मुझ पर मामाजी की वो पचास रुपए की उधारी…

(वरिष्‍ठ पत्रकार माणिकचंद्र वाजपेयी ‘मामाजी’ के जन्‍म दिन 7 अक्‍टूबर पर विशेष)

गिरीश उपाध्‍याय

आज जब ‘मामाजी’ के बारे में कुछ लिखने बैठा हूं तो समझ नहीं आ रहा कि क्‍या लिखूं… या कि क्‍या-क्‍या लिखूं। ‘मामाजी’ यानी सरकारी दस्‍तावेजों के हिसाब से श्री माणिकचंद्र वाजपेयी, सामाजिक प्रतिष्‍ठा के हिसाब से देश के मूर्धन्‍य पत्रकार… लेकिन ये सब उनकी औपचारिक पहचानें ही हैं। असलियत में वे ‘मामाजी’ ही थे, हैं और रहेंगे… आप जब कहें ‘श्री माणिकचंद्र वाजपेयी’ तो लगता है जैसे किसी बड़े आदमी का परिचय कराया जा रहा है, आप जब कहें ‘देश के मूर्धन्‍य पत्रकार’ तो लगता है मानो किसी लब्‍धप्रतिष्ठित व्‍यक्ति के योगदान का उल्‍लेख किया जा रहा है… लेकिन जब आप कहें ‘मामाजी’ तो लगता है अरे, ये तो कोई अपना ही है…

सच कहूं तो ‘मामाजी’ न तो कभी अपने नाम के अनुरूप माणिकचंद्र वाजपेयी बन पाए और न ही अपनी प्रतिष्‍ठा के अनुरूप मूर्धन्‍य पत्रकार का चोगा पहन पाए। लगता है जैसे वे ‘मामाजी’ बनने के लिए ही पैदा हुए थे और जिंदगी भर ‘मामाजी’ बनकर ही जिए…

‘मामाजी’ के साथ मेरी कहानी 1981 के शुरुआती दिनों से शुरू होती है। मैं हिन्‍दी साहित्‍य में एम.ए. करने के बाद नौकरी की तलाश में भोपाल पहुंचा। इसी सिलसिले में मेरी मुलाकात स्‍वदेश के संपादक राजेंद्र शर्मा जी से हुई जो उन दिनों भोपाल से भी स्‍वदेश का संस्‍करण शुरू करने की योजना बना रहे थे। उन्‍होंने मुझे आश्‍वासन दिया कि जब भोपाल में काम शुरू हो जाएगा वे मुझे बुला लेंगे, तब तक मैं इंदौर स्‍वदेश में जाकर ‘मामाजी’ के पास कुछ काम सीखूं।

मुझे अभी तक याद है कि राजेंद्रजी ने ‘मामाजी’ संबोधन का ही उपयोग किया था और मैं समझा था कि जिन सज्‍जन की बात हो रही है, वे राजेंद्रजी के कोई रिश्‍तेदार होंगे, जिनके पास मुझे जाकर काम सीखना है। खैर…ऐसे ही कई सवालों की उधेड़बुन में उलझा मैं इंदौर पहुंचा।

इंदौर स्‍वदेश का दफ्तर, यानी एक खांटी परंपरागत अखबार का खांटी परंपरागत माहौल… मैंने जाकर कहा- ‘’मुझे ‘मामाजी’ से मिलना है।‘’ गेट पर मौजूद आदमी ने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा और डपटने के अंदाज में पूछा- ‘’क्‍या काम है?’’ मैंने कहा- ‘’भोपाल से राजेंद्रजी ने भेजा है…’’ उसने भीतर की तरफ इशारा कर दिया। अंदर जाकर डेस्‍क पर काम कर रहे एक बंदे से पूछा तो उसने बगैर जबान से एक भी शब्‍द जाया किए, गरदन उचकाकर सामने वाले कोने की तरफ इशारा भर कर दिया…

और जब मैंने उस कोने में लगी एक थोड़ी सी बड़ी और बाकी टेबलों से अलग, उस टेबल के पीछे, लकड़ी की कुर्सी पर बैठे सज्‍जन को देखा तो जैसे आसमान से गिरा… ये हैं ‘मामाजी’??? ये हैं स्‍वदेश के संपादक??? मोटे कपड़े का लंबा सा कुर्ता, उसके नीचे धोती, किसी लोहार जैसा सख्‍त चेहरा और उस पर दोनों होठों को अपनी सीमा में समेटते हुए और भी नीचे आने को मचलती घनी मूछें… सिर पर घने लेकिन अस्‍तव्‍यस्‍त बाल।

सच पूछें तो मुझे वो व्‍यक्ति कहीं से भी संपादक की उस छवि में फिट नजर नहीं आया जो मेरे मानस में उन्‍हें देखने से पूर्व बनी हुई थी। मैंने मन ही मन सोचा, कहां फंस गया… अब इनसे क्‍या तो मैं सीखूंगा और क्‍या ये सिखा पाएंगे? उनके नजदीक जाकर बात करने से पहले ही मैंने सोच लिया था कि यहां नहीं टिकना है, राजेंद्रजी से कोई बहाना बना दूंगा और दूसरी नौकरी तलाश लूंगा…

‘मामाजी’ अखबारी कागजों की कतरनों को एकजाई कर बनाए गए पैड के पन्‍नों पर सिर झुकाए कुछ लिख रहे थे। मैंने उनकी तल्‍लीनता में बाधा डालते हुए कहा- ‘मामाजी’ मुझे राजेंद्रजी ने भेजा है… इतना सुनते ही छोटी लेकिन आरपार देख सकने वाली आंखें मेरे चेहरे पर आकर टिक गईं। ‘’तुमने कहीं काम नहीं किया है ना…’’ बगैर किसी लागलपेट के सीधे सपाट पूछा गया यह प्रश्‍न ही मेरा ‘मामाजी’ से पहला संवाद था…

खैर… ‘मामाजी’ ने जो पहला काम मुझे सौंपा, वह था अखबार के दफ्तर के एक कोने में लगे समाचार एजेंसी के टेलीप्रिंटर से निकलने वाले कागज को फाड़ना… जी हां, मैंने नियमित पत्रकारिता में पहला काम कागज फाड़ने का किया… और भाग्‍य का खेल देखिये कि आगे चलकर स्‍वदेश की नौकरी छोड़ने के बाद मैंने उसी टेलीप्रिंटर वाली समाचार एजेंसी यूएनआई में पूरे 19 साल नौकरी की। पत्रकारिता का पहला सबक ही ‘मामाजी’ ने मुझे यह सिखाया कि यह पेशा समाज और दुनिया की बेतरतीबी को तरतीब से देखने और समझने का है।

स्‍वदेश इंदौर में ‘मामाजी’ के सान्निध्‍य में मैं बहुत कम ही दिन रहा। लेकिन इन दिनों में, बगैर कुछ कहे या हाथ पकड़कर सिखाने के बजाय उन्‍होंने इशारों इशारों में और अलग-अलग काम सौंपकर, मुझे वे सारी बुनियादी बातें सिखा दीं जो किसी भी पत्रकार के लिए अक्षर ज्ञान की तरह अनिवार्य होती हैं। वे किसी को सिखाने के बजाय खुद करके उसके सामने उदाहरण प्रस्‍तुत कर देते थे। वे ऐसे ‘इंसान संपादक’ थे जिनके आचरण से ही आप काफी कुछ सीख सकते थे। वे ऐसी सुगंध थे जो इंद्रियों में नहीं मन में व्‍याप्‍त होती है।

‘इंसान संपादक’ मैंने इसलिए कहा क्‍योंकि आज अखबारों में संपादक तो मिल जाएगा, लेकिन वह इंसान है या नहीं इसका जवाब आपको लाख ढूंढने पर भी शायद न मिले। मानवीयता और अपने आसपास के लोगों से संवेदना का रिश्‍ता रखने वाली वह पीढ़ी शायद अब कभी पत्रकारिता की दुनिया में नहीं आएगी। यह समय ‘इंसान संपादकों’ का नहीं ‘भेडि़ए संपादकों’ का है जो अपने सहकर्मियों के मांस की एक-एक बोटी नोच लेना चाहते हैं।

और आखिर वह दिन भी आ गया जब भोपाल से मेरे पास राजेंद्रजी का संदेश आया कि भोपाल संस्‍करण जल्‍दी ही शुरू हो रहा है तुम भोपाल आ जाओ। मैं फिर उसी पहले दिन वाले गिरीश उपाध्‍याय की तरह उनकी टेबल के सामने खड़ा था। लेकिन इस बार मन में भाव पौधे के मिट्टी से अलग हो जाने जैसे थे… मैंने कहा ‘मामाजी’ मुझे भोपाल बुलाया है…  टेबल के दूसरी ओर से फिर बिना लागलपेट के जवाब आया- ‘’तो जाओ, मन लगाकर काम करना…’’

बस…!! ‘मामाजी’ को सिर्फ इतना ही कहना है मुझसे? क्‍या और कोई बात नहीं… कोई सीख नहीं… भविष्‍य के लिए कोई पाठ नहीं… मेरी कमियों, खूबियों का जरा भी जिक्र नहीं… क्‍या ‘मामाजी’ इतने निस्‍पृह… इतने निर्मम..???  उनका वाक्‍य पूरा हो जाने के बाद मैं अगले वाक्‍यों के इंतजार में खड़ा रहा, लेकिन वे अपने काम में व्‍यस्‍त थे… अपनी ओर से बात पूरी हो जाने के बाद भी मेरे वहां खड़े रहने पर एक तरह से खीजते हुए उन्‍होंने कहा- ‘’अब जाओ भाई, भोपाल जाने की तैयारी करो…’’

मैं, बस चुपचाप सूनी और डबडबाने को मचलती आंखों से उनकी ओर देखता हुआ खड़ा था… वे बोले- ‘’और कोई बात है क्‍या?’’ मन में आया कि कह दूं, ‘मामाजी’ बातें तो इतनी हैं कि सुनाने लगूंगा तो शायद भोपाल जा ही नहीं पाऊंगा… लेकिन इतना ही बोल पाया- ‘’नहीं कुछ नहीं…’’ वे बोले- ‘’तो जाओ, तैयारी करो…’’

अचानक मेरे मुंह से निकला, ‘’लेकिन जाऊंगा कैसे ‘मामाजी’?’’ ‘क्‍या मतलब’ उन्‍होंने सवालिया निगाहों से मेरी तरफ देखते हुए पूछा। मैंने कहा- ‘’मेरे पास तो जाने का किराया भी नहीं है, कैसे जाऊंगा, कहां रहूंगा, क्‍या खाऊंगा…’’ मैं एक सांस में सारी बातें कह गया…

‘मामाजी’ चौंके और फिर जैसे खुद पर ही खीज खाते हुए मुसकुराकर मेरी ओर देखा, मानो कह रहे हों, मैं भी कैसा नादान हूं, बच्‍चे को कह तो दिया जाओ, लेकिन वो जाएगा कैसे, वहां उसका क्‍या होगा… शायद ऐसा ही कुछ सोचते-सोचते उन्‍होंने कमीज के अंदर पहनी बंडी (देसी बनियान) की जेब में हाथ डाला और मेरे हाथ में 50 रुपए का एक मैला सा नोट पकड़ाते हुए कहा ‘’लो ये रख लो। इसमें तुम्‍हारा किराया भी हो जाएगा और भोपाल में दो तीन दिन का खाना भी… बाकी इंतजाम राजेंद्रजी देख लेंगे…’’

और इधर मैं, जो घट रहा था और जो घटने वाला था, उन हालात का अनुमान लगाता हुआ, एक कठपुतली की तरह उनकी हर बात पर ‘जी ‘मामाजी’… जी ‘मामाजी’…’ के अलावा कुछ भी नहीं बोल पा रहा था। मैंने पचास का वो नोट लिया, ‘मामाजी’ के पैर छुए, दफ्तर के सभी सदस्‍यों का अभिवादन किया और पत्रकारिता के बीहड़ में जाने के लिए उस उपवन से बाहर निकल आया…

भोपाल आने के बाद मैं पत्रकार हो गया और जिंदगी पत्रकारिता… धीरे-धीरे चीजें आकार लेने लगीं। स्‍वदेश छोड़कर मैं यूएनआई में आ गया तो ‘मामाजी’ को खबर की, बहुत खुश हुए। जब भी भोपाल आते कुशल क्षेम पूछते और पूरनपोली की फरमाइश करते जो उन्‍हें बहुत पसंद थी। मैं ‘मामाजी’ को छेड़ता- ”पूरनपोली खाने का तो बहाना है ‘मामाजी’, असल में तो आप मुझसे वो पचास रुपए लेने आते हो…” वे ठहाका लगाते और मैं साफ कह देता, ‘’वो पचास रुपए तो मुझ पर उधार रहे ‘मामाजी’, इस जनम में तो आपको मिलने वाले नहीं… मैं तो जिंदगी भर आपके पचास रुपए का कर्जदार बनकर ही रहना चाहूंगा…।‘’

आज भी वो पचास रुपए मेरी जेब में नहीं, बल्कि मेरे दिल में बहुत हिफाजत से रखे हुए हैं। सोचता हूं अब ऊपर जाकर ही ‘मामाजी’ से यह हिसाब-किताब पूरा करूंगा…

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