राकेश दुबे
मध्यप्रदेश में मतदाताओं को बाँट कर चुनाव जीतने की कोशिशें शुरू हो गई हैं। देश के संविधान की भावना के तहत चुनाव कराने वाली मशीनरी भले ही मतदाताओ का वर्गीकरण नैसर्गिक आधार पर करती हो, राजनीतिक दल यह विभाजन जातिगत आधार पर करने लगे हैं। यह सब प्रदेश के हित में नहीं है। मध्यप्रदेश की चुनावी मशीनरी के हिसाब से मध्यप्रदेश में कुल 5,40,63,815 मतदाता हैं। जिनमें 27962711 पुरुष और 26023733 महिला और 1432 थर्ड जेंडर के मतदाता है। इसके विपरीत राजनीतिक दलों को इनमें सवर्ण, ओबीसी से लेकर और बहुत से विभाजन दिखाई देने लगे हैं।
कांग्रेस हो या भाजपा दोनों के बड़े नेता अपने बयानों में इस विभाजन का प्रचार शुरू कर चुके हैं। चुनाव यदि मतदाताओं को उनकी जातिगत पहचान बता कर जीतना ही लक्ष्य है, तो यह देश के संविधान की मूल भावना के विपरीत है। प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ का सतना में दिया गया बयान भले ही उन्हें ओबीसी वर्ग का हितचिंतक बताता है, परन्तु यह बयान मतदाताओं को उनकी जातिगत पहचान की दिशा में ले जाता है। ठीक इसी प्रकार भाजपा नेता और पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती के इन दिनों आये बयान हैं। इन बयानों का पक्ष प्रतिपक्ष में जो भी असर हो, मतदाता की जातिगत पहचान उकेरना प्रजातांत्रिक नहीं है। कांग्रेस की नीति और उमा भारती की चुनौती आगामी विधान सभा चुनाव में एक नया रंग दिखाएगी।
वैसे मध्य प्रदेश में भाजपा को इस बार के विधानसभा चुनाव में कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। यह पार्टी लंबे समय से सरकार में है, इसलिए एंटी कंबेंसी तो स्वाभाविक है। इसके अलावा जो चुनौतियां है, उनमें सिंधिया गुट के लोगों और मूल भाजपा के लोगों में आंतरिक खींचतान भी एक है। जहां से सिंधिया गुट के लोग चुनाव लड़ेंगे, वहां सेबोटेज से इंकार नहीं किया जा सकता। इससे भी बड़ी चुनौती वो है, जिसका अंदाजा नहीं लगाया जा रहा और न भाजपा उसे गंभीरता से ले रही है। वह चुनौती है उमा भारती का बदलता नजरिया!
उमा भारती का रवैया लंबे समय से अलग-अलग तरीकों से भाजपा को परेशान कर रहा है। न सिर्फ संगठन को, बल्कि सरकार को भी वे अपने शराबबंदी अभियान से परेशान कर रही हैं। कई बार उन्होंने शराब की दुकानों पर पत्थर चलाए हैं। बात यहीं तक सीमित नहीं है। वे रायसेन के किले में पहुंचकर वहां पुरातत्व विभाग को पुरातन शंकर मंदिर खोलने के लिए मजबूर करती हैं। निस्संदेह यह उमा भारती की सोची-समझी राजनीतिक रणनीति का हिस्सा है।
पिछले दिनों उमा भारती ने अपने समाज के एक कार्यक्रम में संदर्भ से अलग हटकर वहां मौजूद लोगों से कहा कि वे उनके कहने से भाजपा को वोट न दें! उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि वे पार्टी से बंधी हैं, इसलिए वे तो भाजपा को वोट देने के लिए कहेंगी, लेकिन उन्हें जिस भी पार्टी को देना है, उसे वोट दें। इसका सीधा-सा मतलब समझा जा सकता है कि वे मध्यप्रदेश के 9 प्रतिशत लोधी वोटरों को भाजपा से काटना चाहती हैं, जो अभी तक भाजपा के साथ रहे हैं।
कमल नाथ नेता हैं, उमा भारती साध्वी हैं, पर दोनों उससे पहले राजनीतिक हैं। दोनों के इस तरह के बयान समयानुकूल हो सकते हैं, परन्तु सामाजिक ताने-बाने को जोड़ने वाले नहीं है। उमा भारती जिस लोधी समाज से आती हैं, उसका मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड इलाके के अलावा उत्तर प्रदेश के बड़े इलाके में दबदबा है। इस समाज के वोटर विधानसभा की कई सीटों पर खेल बिगाड़ सकते हैं। लोधी वोटरों की 9 प्रतिशत ताकत का भाजपा से टूटना पार्टी के लिए बड़ा खतरा हो सकता है। 230 सीटों वाली विधानसभा में 50 से ज्यादा सीटें ऐसी हैं, जहां लोधी वोटर सारे समीकरण प्रभावित कर सकते हैं। उमा भारती के बदलते तेवरों के पीछे कोई बड़ी रणनीति का संकेत मिलने लगा है।
उमा भारती की राजनीति का अपना एक अलग तरीका है। वे भाजपा का सामने खड़े होकर विरोध न करके भाजपा के खिलाफ परोक्ष रूप से दांव चल रही हैं। वे भाजपा के उस ‘राम अभियान’ को भी चोट पहुंचा रही हैं, जो पार्टी की सबसे बड़ी ताकत है। कांग्रेस का ओबीसी प्रेम उमड़ना भी मतदाताओ को बाँटने में कोई कसर नहीं छोड़ने वाला है। हालात देखकर इस बात को समझा जा सकता है, कांग्रेस को कुछ ऐसा करना है कि उसके पक्ष में माहौल बने लेकिन उमा भारती का यह खुलकर विरोध क्यों? इस बात का खुलासा होना अभी बाकी है।
(मध्यमत)
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