समर्पण का अभयारण्य है मध्यप्रदेश

राकेश अचल

उत्तरप्रदेश के आठ पुलिसकर्मियों की नृशंस हत्या करने के आरोपी विकास दुबे के मध्यप्रदेश के महाकाल मंदिर में कथित रूप से समर्पण करने पर अगर आप हैरान हैं तो व्यर्थ है। हकीकत ये है कि मध्यप्रदेश अपराधियों के समर्पण के लिए घोषित अभयारण्य है और इस मामले में मध्यप्रदेश सरकार और पुलिस को महारत हासिल है। मध्यप्रदेश में ये काम पिछले छह दशकों से अबाध गति से चल रहा है।

पांच लाख का इनामी विकास पूरे देश में सुर्ख़ियों में रहने के बावजूद सात सौ किमी की यात्रा कर बेख़ौफ़ मध्यप्रदेश चलकर आ गया। उसे किसी ने एयरड्रॉप नहीं किया, विकास सड़क मार्ग से होकर उज्जैन पहुंचा, लेकिन उसे न किसी ने रोका, न टोका न कोई टोल नाका उसे पहचान पाया और न ही कोई पुलिस की जांच चौकी। जबकि एक साधारण आदमी दस जगह परेशान होता है और अपना परिचय देते-देते तक जाता है। जाहिर है कि विकास को उत्तरप्रदेश से मध्यप्रदेश लाने का उत्तरदायित्व मध्यप्रदेश की सत्ता और पुलिस ने उठाया।

मेरे पास अपनी आशंका को प्रमाणित करने के लिए कोई साक्ष्य नहीं है लेकिन अपने चार दशक से अधिक के अनुभव के आधार पार मैं कह सकता हूँ कि सारा घटनाक्रम सुनियोजित है और इसके लिए अकेली मध्यप्रदेश की पुलिस जिम्मेदार नहीं है, मध्यप्रदेश की पुलिस नाकारा भी नहीं है और लापरवाह भी नहीं है। उसे जैसे निर्देश मिले होंगे, उसने वैसा किया। अन्यथा सघन जांचों के चलते कोई नामचीन्ह अपराधी कैसे महाकाल मंदिर में पहुँच सकता है?

आइये अब आपको बता दूँ कि मध्यप्रदेश में अपराधियों के समर्पण का धंधा कब और कैसे फैला? आपको पता है कि मध्यप्रदेश बागियों और डाकुओं का प्रदेश रहा है और यहां की इस समस्या को निबटाने के लिए दिल्ली से लेकर पटना और वर्धा तक ने प्रयास किये। मध्यप्रदेश में डाकुओं और बागियों के समर्पण का लंबा इतिहास है। रियासत काल को छोड़ भी दें तो आजादी के बाद से ही इस दिशा में काम चलता रहा।

छठवें दशक में जब ये समस्या गंभीर हो गयी तो भूदान यज्ञ के प्रणेता आचार्य बिनोवा भावे ने सबसे पहले बागियों/डाकुओं के आत्मसमर्पण का अभियान चलाया। उन्हें इसमें आंशिक कामयाबी भी मिली, लेकिन वे इसे निरंतरता नहीं दे सके। आचार्य बिनोवा भावे के बाद बाबू जयप्रकाश नारायण ने इस अभियान को आगे बढ़ाया। उन्होंने तब के डाकू सरगना माधौ सिंह और मोहर सिंह जैसे लोगों की पहल पर मध्यप्रदेश में सामूहिक आत्मसमर्पण कराया।

इस अभियान को तत्कालीन केंद्र और राज्य सरकारों का भरपूर सहयोग मिला लेकिन प्रदेश में न बगावत रुकी न डकैती। चूंकि चंबल के बीहड़ आबाद बने रहे इसलिए समर्पण का काम भी ठहरा नहीं। पुलिस और समर्पित बागी इस अभियान को जैसे-तैसे चलाते रहे। यूपी और एमपी के जो बागी और डाकू पुलिस की गोली से मरना नहीं चाहते थे उन्होंने पुलिस और नेताओं की मदद से समर्पण करने का काम जारी रखा और इसके लिए बाकायदा फीस अदा की।

मध्यप्रदेश को बागियों और डाकुओं का अभयारण्य घोषित रूप से तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने बनाया। उनकी सरकार ने उस समय की चर्चित दस्यु सुंदरी फूलनदेवी और डाकू सरगना मलखान सिंह के गिरोहों के आत्मसमर्पण को जनता के विरोध के बावजूद स्वीकार कर इस धंधे को एक व्यवसाय का रूप दे दिया। 1980 के बाद शुरू हुआ समर्पण का ये धंधा लगातार फलता फूलता रहा।

यूपी के डाकुओं ने ही नहीं अन्य सक्रिय अपराधियों ने भी इस सुविधा का लाभ लिया। यूपी में जब-जब बदमाशों पर पुलिस का दबाब बढ़ा, वे भागकर मध्यप्रदेश आ गए और यहां उन्होंने बड़ी आसानी से पुलिस के सामने या तो समर्पण कर दिया या मामूली से अपराधों के आरोप में खुद को गिरफ्तार कर न्यायिक अभिरक्षा हासिल कर ली। चंबल में डाकू और नेताओं का गठजोड़ सनातन रहा है और हर दल के नेता इसमें शामिल रहे हैं।

मध्यप्रदेश में 2003 में कांग्रेस की सरकार जाने के बाद जब भाजपा सत्ता में आयी तो उसने भी समर्पण के इस धंधे पर ब्रेक नहीं लगाया, तत्कालीन मुख्यमंत्री उमा भारती और बाबूलाल गौर इस धंधे की लगाम कसने में नाकाम रहे, लेकिन शिवराज सिंह चौहान के आने के बाद दस्यु उन्मूलन अभियान में गति आने से इस धंधे पर आंशिक ब्रेक लगे।

शिवराज सरकार के अनेक मंत्रियों ने भी अर्जुन सिंह सरकार के अनुभवों का लाभ लेते हुए अपनी जाति के डाकुओं और यूपी के अपराधियों को पुलिस की गोली से बचाने के लिए समर्पण कराया। समर्पण के इस धंधे को लेकर सरकार और पुलिस प्रशासन में टकराव की स्थितियां भी बनीं लेकिन भारी सरकार ही पड़ी। समर्पण में बाधक पुलिस के आला अफसरों को किनारे कर दिया गया। यूपी से एमपी में आकर समर्पण करने वाले अपराधियों की लंबी फेहरिस्‍त है, इनमें विकास दुबे का नाम प्रमुख है।

सामूहिक पुलिस हत्याकांड के आरोपी विकास दुबे के आत्मसमर्पण के लिए भी मध्यप्रदेश की सरकार और पुलिस अदृश्य रूप से सहायक साबित हुई। यूपी पुलिस अगर विकास को मारना चाहती तो उसे अपनी सीमा से बाहर निकलने ही नहीं देती। विकास को बचाने के लिए यूपी भाजपा के नेताओं ने एमपी के भाजपा नेताओं की मदद ली और विकास को बचा लिया। अब आप सबूत मांगेंगे तो वे मिलने वाले नहीं हैं। क्योंकि ऐसे मामलों में सबूत मिटा दिए जाते हैं, केवल परिस्थितजन्य सबूत ही होते हैं, इन्हें आप मानें या न मानें ये आपकी मर्जी है।

इस सनसनीखेज और हैरान कर देने वाले समर्पण के बाद आपके मन में मध्यप्रदेश पुलिस को लेकर यदि सवाल नहीं उठते तो आप बेहद भोले इंसान हैं। प्रदेश के गृहमंत्री का मासूमियत भरा बयान यदि आपको विश्वसनीय लगता है तो मुझे कुछ नहीं कहना। यदि मध्यप्रदेश के पुलिस महानिदेशक इस मामले में उज्जैन रेंज के आला अफसरों से लेकर थाने के प्रभारी को लापरवाही और सांठगांठ का जिम्मेदार नहीं मानते तो मुझे कुछ नहीं कहना।

लेकिन एक बात जान लीजिये कि आपकी ये चुप्पी प्रदेश की बदनामी के साथ ही एक दिन प्रदेश की क़ानून और व्यवस्था के लिए भी समस्या पैदा करेगी। इस मामले की जांच की मांग करना भी बेमानी है क्योंकि भोपाल और लखनऊ से लेकर दिल्ली तक सत्ता एक ही दल और दिमाग वालों की है। नाकारा विपक्ष इस मुद्दे पर असहाय है ही।

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