दुविधा में प्रभु राम

ओम वर्मा

भले ही हम उनकी सत्यता को जीवन की अंतिम-यात्रा के दिन ही स्वीकारते हैं, फिर भी वे सभी का बेड़ा पार कराते आ रहे हैं। लेकिन पौराणिक ग्रंथ गवाह हैं कि भगवान भले ही लाख सर्वशक्तिमान हों, मगर भक्तों को लेकर कभी कभी कन्फ़्यूज़िया भी जाते हैं। और इसी दुविधा में प्रभु श्रीराम को देखकर उनके परम भक्त महावीर हनुमान भी विचलित हो गए!

“आज्ञा हो तो प्रभु मैं जाऊँ,” पवनपुत्र ने अपनी गदा पर हाथ घुमाते हुए कहा।

“नहीं महावीर। यह कोई देवी सीता का पता लगाने या लंका दहन जैसा टास्क नहीं है जो तुम समुद्र लाँघ कर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ कर लौट आओ। न ही यह संजीवनी लाने जैसा दायित्व है कि तुम सारा पर्वत उठा लाओ। हमारी परेशानी तो भक्तों के बीच हमें लेकर मच रहे कोहराम को लेकर है।‘’

“कैसा कोहराम प्रभु!”

“परेशानी यह है मारुतिनंदन कि हमारे भक्त कभी इस बात को लेकर लड़ने लग जाते हैं कि हमारा जन्म कहाँ हुआ। फिर इस बात पर कि हमें किसी अस्थाई शिविर में ही रहने दें या हमारे लिए भव्य मंदिर बनवाएँ! हमारा सबसे बड़ा धर्मसंकट यह है कि विवाद करने वाले भी हमारे भक्त ही हैं। और भक्त भी भाँति भाँति के हैं। कोई दिल से याद करता है तो कोई दिल में दर्द होने पर ही याद करता है। कोई सांप्रदायिक सद्भाव की बात चलते समय याद करता है तो कोई अपने आक़ा के प्रभाव में याद करता है। कोई रथ में बैठकर याद करता है तो कोई घर बैठकर ही याद कर लेता है। देश में चुनाव और घर में अभाव के वक्त तो हर कोई याद कर लेता है’’… कहते कहते प्रभु कभी अपने मुकुट को उतार कर सिर खुजलाने लगते और कभी काँधों पर बरसों से धारण कर रखे धनुष को उतार कर उसकी प्रत्यंचा की कमनीयता को टेस्ट करने लगते थे।

“लेकिन प्रभु आप तो कृपानिधान हैं, सभी पर कृपा बरसा सकते हैं…!”

“वह तो ठीक है आंजनेय! भक्त हम तक डायरेक्ट एप्रोच करने के बजाय बीच में बाबाओं के बताए उपायों पर चलने लगे हैं।‘’

“लेकिन प्रभु ये समस्याएँ तो आपके लिए मामूली हैं’’, इस बार हनुमान जी ने प्रभु को उनकी शक्ति व सामर्थ्य का स्मरण करवाया।

“लेकिन अब नई समस्या यह है अंजनीलाल कि मैं मृत्युलोक में कहाँ बिराजूँ? उस अस्थाई शिविर में, नए बन रहे अंतरराष्ट्रीय रामलीला केंद्र या रामलीला पार्क में, या फिर दो सौ पच्चीस करोड़ रु. की लागत से बनाए जा रहे रामायण म्यूज़ियम में? सब हमें अपने अपने तरीके से उनके द्वारा अभिकल्पित, संरचित व सुसज्जित स्थल पर स्थापित तो करना चाहते हैं पर दिव्य स्वरूप देखने या आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए ईवीएम का ही मुँह ताकते हैं। हद तो यह हो गई कि हम कहाँ बिराजें इस बात के लिए विवाद करने वालों के बीच एक न्यायाधीश को मध्यस्थता करने का प्रस्ताव रखना पड़ा है। फिर एक दुविधा यह भी है कि हर भक्त संपूर्ण रामायण में से अपनी अपनी पसंद के प्रसंग चुनकर उनका अपने ढंग से कलियुगीकरण कर रहा है। एक बार आर्यावर्त्त पर चुनी हुई सरकार ने वहाँ की बड़ी अदालत में शपथपत्र देकर हमारे अस्तित्व को ही नकार दिया था। दूसरी ओर उनके ही एक राज्य में ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने राजकुमार भरत की तरह अपनी बीमार नेत्री की तस्वीर सामने रखकर राज चलाया है।

जो हमारे अस्तित्व को नकारते हैं वे भी हमें प्रिय हैं और जो स्वीकारते हैं वे भी उतने ही प्रिय हैं। हमारी चिंता उन्हें लेकर है जो हमारे नाम का दुरुपयोग कर वैमनस्य फैलाते हैं। हमने केवट का अनुरोध मानकर नाव उतराई नहीं दी, तो आर्यावर्त्त में हमारे भक्त ‘टोल पार कराई’ देने में गुंडागर्दी पर उतर आते हैं। हमने माता शबरी के हाथों बेर खाकर वात्सल्य का अमृत चखा था मगर देख रहा हूँ कि इधर लोग दलितों के घर एक वक्त भोजन कर या एक रात व्यतीत कर वोटों का पूरा थाल निगलना चाहते हैं। हमने अहंकारी का वध किया था तो इधर लोग अहंकारी का पुतला बनाकर उसकी जगह जीवित व्यक्ति की तस्वीर लगाकर दहन कर रहे हैं। लक्ष्मण ने शूर्पनखा के प्रणय निवेदन को ठुकराया और न मानने पर उसके ‘डेंटेड-पेंटेड’ फ़ेस को मूल स्वरूप प्रदान किया, मगर हम देखते हैं कि इधर कुछ पुरुष प्रेम प्रसंगों में ना सुनकर सीधे एसिड अटैक वाली कार्रवाई कर लड़कियों को जीवन भर डेंटिंग-पेंटिंग के लिए मजबूर कर देते हैं ..!”

सर्वशक्तिमान का अपने ही बंदों के कारनामों को देखकर व्यथित होना स्वाभाविक है। आज अगर त्रेतायुग जैसा राजतंत्र होता तो शायद वे एक बार फिर किसी दशरथ के घर जन्म लेकर कुछ ‘रिफ़ॉर्म’ करने की सोचते। मगर लोकतंत्र में शक्ति तो जनता के ही हाथों में होती है। शायद वे भी इस व्यवस्था को भंग करना नहीं चाहते होंगे। मगर लोग भी अड़े हैं कि “हम नहीं झुकेंगे!”

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