अजय बोकिल
कोरोना लॉक डाउन का यह दौर मीडिया पर कैसे गुजर रहा है, इसका जायजा लेना भी जरूरी है। क्योंकि मीडिया को अपना काम कैसे करना चाहिए, इसकी नसीहतें अक्सर दी जाती हैं। वैश्विक महामारी के इस अभूतपूर्व और कठिन समय में मीडिया की भूमिका कैसी रही है, मीडिया से सरकारों और आम जनता की क्या अपेक्षा है और मीडिया उसे निभाने में कितना सफल रहा है, इस सवालों पर बारीकी से गौर करना वाजिब है। कोरोना संकट में भी सत्ता की अपेक्षा अमूमन यही रही है कि मीडिया उसके प्रवक्ता के रूप में रोल अदा करे। जहां तक बने, कड़वा सच न बताए, बताए भी तो इस कोण से जो सत्ता के अनुकूल हो अथवा उसके एजेंडे को पूरा करता हो।
इसका ताजा उदाहरण भाजपा शासित हिमाचल प्रदेश है, जहां लॉक डाउन में प्रवासी मजदूरों की समस्याओं को उजागर करने और इससे निपटने में प्रशासनिक कमियों को बेनकाब करने पर बीते दो माह में 6 पत्रकारों के खिलाफ 14 एफआईआर दर्ज की गई हैं। ’ द वायर’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक एक स्थानीय अखबार ‘दिव्य हिमाचल’ के रिपोर्टर ओम शर्मा के खिलाफ 3 तीन एफआईआर हो चुकी हैं। पहली एफआईआर तो 29 मार्च को ही दर्ज हो गई थी, जब उन्होंने सोलन जिले में प्रवासी मजदूरों के प्रदर्शन को फेसबुक पर लाइव कर दिया था। लेकिन सरकार ने तब इसे ‘फेक’ न्यूज बताकर मामला दर्ज किया। बाद में प्रवासी मजदूरों की यही समस्या देशव्यापी हो गई, यह सब को पता है।
शर्मा पर दूसरा मामला एक मीडिया संस्थान की खबर शेयर करने पर दर्ज हुआ था, क्योंकि उस खबर को मीडिया संस्थान ने ही सरकार द्वारा खंडन किए जाने पर हटा लिया था। शर्मा पर तीसरा मामला राज्य के तीन शहरों में कर्फ्यू में ढील दिए जाने सम्बन्धी कलेक्टर के आदेशों में अस्पष्टता को लेकर फेसबुक पर की गई आलोचना पर दर्ज किया गया था। इसके बाद शर्मा का कर्फ्यू पास भी रद्द कर दिया गया। इसी राज्य में लॉक डाउन में प्रशासन की आलोचना करने पर टीवी चैनल न्यूज 18 के पत्रकार जगत बैंस के खिलाफ भी तीन एफआईआर दर्ज की गई।
एक और पत्रकार अश्वनी सैनी पर लॉक डाउन में पांच मामले दर्ज किए गए। एक राष्ट्रीय समाचार चैनल के पत्रकार के खिलाफ भी दो एफआईआर इसलिए हुईं, क्योंकि उन्होंने प्रशासन की आलोचना की थी। इन सभी पत्रकारों पर लगभग एक जैसी धाराओं में मामला दर्ज किया गया, जिनमें सजा का प्रावधान है। जबकि इन पत्रकारों का आरोप है कि यह पूरी तरह से सच्चाई को दबाने का प्रयास है। बता दें कि हिमाचल प्रदेश वो राज्य है, जहां तुलनात्मक रूप से कोरोना वायरस का प्रकोप काफी कम है। वहां अब तक केवल 25 संक्रमित पाए गए हैं और 3 मौतें हुई हैं।
लेकिन पत्रकारों की मानें तो सरकार को कोरोना की इतनी रिपोर्टिंग भी नागवार गुजर रही है। महाराष्ट्र में प्रवासी मजदूरों से जुड़ी एक ‘गलत’ खबर चलाने के आरोप में अप्रैल के शुरू में मराठी न्यूज चैनल के पत्रकार राहुल कुलकर्णी को गिरफ्तार किया गया था। उन पर आरोप था कि उनकी खबर से घर लौटने के इच्छुक प्रवासी मजदूरों में अफरातफरी फैली। हालांकि राहुल का कहना था कि उन्होंने यह खबर रेलवे की एक विज्ञप्ति के आधार पर चलाई थी। राहुल अब जमानत पर हैं। इस कार्रवाई को लेकर महाराष्ट्र की कांग्रेस समर्थित उद्धव ठाकरे सरकार की काफी आलोचना भी हुई।
मीडिया को सरकार और प्रशासन की प्रताड़ना का सामना तकरीबन हर राज्य में करना पड़ रहा है। झारखंड में देवघर जिले के मधुपुर के दो पत्रकारों पर इसलिए एफआईआर दर्ज की गई कि क्योंकि वे क्षेत्र में लॉक डाउन उल्लंघन को लेकर खबरें छापते हैं। बताया जाता है कि ये समाचार एक निजी कंपनी के सदंर्भ में था। कंपनी इसे झूठा बताकर पत्रकारों के खिलाफ ही मामला दर्ज करवा देती है। झारखंड में ही साहेबगंज जिले के बरहरवा के दो पत्रकारों के खिलाफ बीडीओ ही मामला दर्ज करवा देता है। इस आरोप में कि पत्रकार ग्रामीणों को लॉक डाउन तोड़ने के लिए उकसा रहे थे। झारखंड में कांग्रेस समर्थित झामुमो की सरकार है।
मध्यप्रदेश में कोरोना काल के आरंभ में एक स्थानीय दैनिक के पत्रकार के खिलाफ मामला दर्ज किया गया। वे प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ की पत्रकार वार्ता में पहुंचे थे और वो कोरोना पॉजिटिव पाए गए थे। उनके खिलाफ लापरवाही और गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार करने के आरोप में आईपीसी की धारा 188, 269 व 270 के तहत मामला दर्ज हुआ। ये पत्रकार इलाज के बाद ठीक भी हो गए। लेकिन मामला अभी भी दर्ज है।
ताजा प्रकरण गुजरात का है, जहां एक समाचार पोर्टल के संपादक के खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया है। उन्होंने खबर चलाई थी कि बीजेपी आलाकमान मुख्यमंत्री विजय रूपाणी के स्थान पर केंद्रीय मंत्री मंसुख मंडाविया को मुख्यमंत्री बना सकता है। यह खबर गलत तो हो सकती है, लेकिन ‘राजद्रोह’ कैसे है, यह समझना मुश्किल है। देश में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा लॉक डाउन 1.0 की घोषणा के दो दिन बाद ही यूपी में एक स्थानीय दैनिक ‘जनसंदेश टाइम्स’ ने एक समाचार छापा कि लॉक डाउन के चलते वाराणसी जिले में एक जनजाति के बच्चे घास खाने पर मजबूर हैं। इसके बाद वाराणसी कलेक्टर ने अखबार को कानूनी नोटिस थमा दिया, जिसमें कहा गया कि छापी गई खबर ‘झूठी’ एवं ‘सनसनीखेज’ है।
उल्लेखनीय है कि कोरोना प्रकोप के चलते केन्द्र सरकार ने देश में 11 मार्च से महामारी रोग अधिनियम लागू कर दिया है। इसके तहत गलत सूचना फैलाने के आरोप में राज्य सरकारों को मीडिया व पत्रकारों को दंडित करने का अधिकार मिल गया है।
ये तो हुई आम पत्रकारों की बात। देश में खुद को स्टार मानने वाले दो पत्रकारों का जिक्र जरूरी है। विवादित चैनल रिपब्लिक टीवी के मालिक और पत्रकार अर्णब गोस्वामी ने अपने एक कार्यक्रम में कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के खिलाफ अशिष्ट भाषा का प्रयोग किया, जिससे नाराज दो कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने उन पर कथित रूप से हमला किया।
अर्णब ने जो किया, वो पत्रकारीय मर्यादा में नहीं आता, लेकिन इस कारण उन पर हमला करना और कांग्रेस शासित राज्यों में उनके खिलाफ सौ से ज्यादा एफआईआर दर्ज भी गलत है। एक और टीवी चैनल के वरिष्ठ पत्रकार सुधीर चौधरी को पाकिस्तान से मिल रही कथित धमकियों की बात भी सुर्खियों में है। इसमें कितनी सच्चाई है, यह बाद में पता चलेगा।
इसका अर्थ यह नहीं कि पूरा मीडिया दूध का धुला है। यहां भी ‘खेल’ करने वाले हैं। किसी हद तक आज मीडिया के भी अपने एजेंडे और तकाजे हैं। खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तो दो खेमों में बंटा दिखता है। निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ पत्रकारिता अब केवल पाठ्यक्रम का हिस्सा रह गई है। जब तक कोई पत्रकार किसी एजेंडे का प्रत्यक्ष या परोक्ष हिस्सा नहीं बनता, तब तक सत्ता उसका नोटिस नहीं लेती।
मोटे तौर पर मीडिया के अब तीन खेमे हैं। आप या तो सत्ता के अंध पैरोकार और व्याख्याकार हैं या फिर सत्ता के स्थायी आलोचक और निंदक हैं। यानी या तो आपके हाथों में आरती का थाल हो या फिर घोंपने के लिए खंजर हो। सूचनाओं के तटस्थ सम्प्रेषण और पोस्टमार्टम के लिए जरूरी चाकू रखने की इजाजत भी आपको नहीं है। अगर आप वस्तुनिष्ठ भाव से खेमाविहीन पत्रकारिता का आग्रह रखते हैं तो आप की मान्यता तो रहेगी, मगर बिना हैसियत के।
कोरोना काल ने सत्ता के अहंकार को खाद-पानी देने का काम ही ज्यादा किया है। जबकि तमाम आलोचनाओं के बावजूद कोरोना को लेकर जनजागरण में मीडिया की भूमिका सार्थक और महत्वपूर्ण रही है। वरिष्ठ पत्रकार और ‘द वायर’ के संपादक, सिद्धार्थ वरदराजन ने पिछले दिनों कहा था- ‘‘लॉक डाउन एकदम सही वक्त है, जब लोकतांत्रिक परिवेश में काम कर रहे पत्रकारों को आधी रात को उनके घरों के दरवाजों पर होने वाली दस्तक के भय से मुक्त होकर लिखने और पत्रकारिता करने के लिये स्वतंत्र होना चाहिए।‘’ लेकिन क्या हकीकत में ऐसा संभव है?
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टीम मध्यमत