शिवकुमार विवेक
दो दोस्तों में कुछ इस तरह बातचीत हो रही थी-
मैं इस समय स्टेज-3 में हूं।
पहली स्टेज में बर्तन मांजे।
दूसरी में खाना पकाया।
और तीसरी स्टेज में कपड़े धो रहा हूं।
यह तीन हफ्ते की घरबंदी (यानी लॉक़डाउन-पारिवारिक अर्थ में) को लेकर चल रहे हास्य-व्यंग्य का हिस्सा है। सोशल मीडिया पर ऐसी लतीफेबाजी खूब चल रही है। फुरसत में इसकी मौलिकता कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है। लेकिन दू्सरी तरफ कई लोगों के लिए उक्त मजाक एक सचाई है। मेरे एक मित्र ने घर के बर्तन साफ करने की खुद की तस्वीर सगर्व फेसबुक पर डाली। साथ ही यह भी कहा कि हमें इस खाली समय में सहधर्मिणी और परिवार के काम में हाथ बंटाना चाहिए।
असल में यह आदत बदलने का समय है। कुछ आदतें मजबूरी में तो कुछ स्वयंप्रेरणा से बदली जाएंगी। यदि दोनों अपने आप नहीं होते, जैसी कि अंगरेजी कहावत है- पुरानी आदतें मुश्किल से जाती हैं या दुष्यंत कुमार ने कहा- पक गईं हैं आदतें/बातों से सर होगी नहीं/कोई हंगामा करो/ऐसे गुजर होगी नहीं, तो हममें से कुछ इच्छाधारियों को इसकी कोशिश करनी चाहिए क्योंकि यह समय दोबारा नहीं आएगा।
यही वह दौर है जब हमारी कई आदतें और संव्यवहार समय की कसौटी पर खऱा साबित हो रहा है l इन्हें रीकॉल किया जा रहा है। नमस्ते को दुनिया सबसे बेहतर अभिनंदन मान रही है जिसके लिए शारीरिक संपर्क से रहित अभिवादन की अहमियत नहीं थी। अमेरिका में रह रहे एक पत्रकार मित्र के मुताबिक वहां भारतीयों की आदतों के संदर्भ में घूंघट की भी सकारात्मक चर्चा हो रही है। घूंघट में रहने के लिए बाध्य करना भले ही हमारे यहां आज एक निंदनीय व त्याज्य प्रथा है लेकिन यह विदेशी आक्रमणों के समय महिला सुरक्षा की खातिर अपनाई गई युक्ति थी। बकौल अमेरिकी मित्र, वहां लोग मान रहे हैं कि यह बहुत अच्छा मॉस्क है।
तीन हफ्ते की घरबंदी ने हमें अपनी आदतों ही नहीं, दिनचर्या में कुछ जोड़ने-घटाने और स्वभाव को लचीला बनाने का अवसर भी दिया है। दफ्तर बंद, बाजार बंद, आने-जाने के साधन बंद। पूरे चौबीस घंटे घऱ की चारदिवारी में आदमी पहली बार इतने लंबे लंबे समय तक रहने वाला है। सयाने कह रहे हैं कि इस कीमती समय को परिवार को दीजिए। परिवार के लिए और खुद के जीवन में भी ऐसा अवसर दोबारा नहीं मिलेगा जब इतने घंटे परिवार के साथ बिताए जाएंगे।
सही मायने में तो यह कालखंड ‘परिवार पर्व’ है। कुछ व्यवहार विशेषज्ञों का मानना है कि हमें इस दौरान एकांत में बैठने का भी अभ्यास करना चाहिए जो जीवन की भागमभाग में उपलब्ध नहीं होता। एकांत यानी खुद के साथ ईमानदारी से समय गुजारना या खुद के साथ कुछ पल जीना। खुद के साथ रहना भी भारतीय दर्शन में योग है।
घरबंदी को कैसे काट रहे हैं- यह पूछने पर कई लोग अलग-अलग तरह के अनुभव बताते हैं। यदि रोज की रोटी का संघर्ष नहीं है और वर्क फ्राम होम का भार नहीं है तो कोई किताब पढ़ रहा है, कोई किताब लिख रहा है तो कोई संगीत के सान्निध्य में है। एक ने अपने गिटार से धूल झाड़ ली है तो एक मित्र का कहना है कि वे इस अवकाश का उपयोग रामचरित मानस को आद्योपांत पढ़ डालने में कर रहे हैं। एक सज्जन अपनी गायों की सेवा में दिन गुजार रहे हैं। कुछ लोग सलाह देते हैं कि इस दौरान हम कोई अधूरे काम पूरे कर लें, अपने संकल्पों-इरादों को पूरा कर लें और नए कामों को अंजाम दे दें।
कोरोना बीमारी के भय और आशंकाओं में घरबंदी ने कुछ आदतों की तरफ हमें अनचाहे या अन्यमनस्क भाव से धकेला है। नैतिक रूप से कहें या स्वास्थ्य की दृष्टि से, यह सही ही हुआ है। मसलन, साबुन से हाथ धोने की आदत का मामला है। पिछले सालों में यूनीसेफ द्वारा प्रेरित स्वच्छ विद्यालय-स्वच्छ भारत अभियान में देश के 10 करोड़ स्कूली बच्चों में हैंडवॉश डे मनवा-मनवाकर बच्चों में साफ-सुथरेपन की आदत डालने की कोशिश की गई। बताया गया है कि इससे हैजा के मामलों में ही 30 प्रतिशत गिरावट लाई जा सकती है।
इसका साफ मतलब है कि हमारे दैनंदिन जीवन में यह आदत नहीं है जबकि हम अब भी कई ऐसे काम अपने रोजमर्रा में करते हैं जो सेहत को खतरे में डालते हैं। मसलन, हमारे मोबाइल में ही लाखों कीटाणु होते हैं और वाहन के स्टीयरिंग पर भी। कोरोना महामारी शायद अब हाथ धोने को हमारी आदतों या स्वभाव का हिस्सा बना देगी। एक अध्ययन के मुताबिक हमारी 40 फीसद आदतें ही हमारे दैनंदिन व्यवहार का निर्धारण करती हैं।
कभी-कभी इंसान तमाम सीखों-समझाइशों से नहीं मानता, प्रकृति अपने बल से उसे मनवाती है। हमारी बेहतरीन आदतों का हिस्सा घऱ में बिना जूते पहने प्रवेश करने का भी रहा है लेकिन हमने उसे त्याग दिया जबकि जापान में यह अनिवार्य नियम अथवा शिष्टाचार है। जापान में घऱ के अंदर जाते हुए बाहर के जूते बाहर ही उतारकर घऱ की चप्पलें पहन ली जाती हैं। रूस में भी कहीं-कहीं इसका पालन किया जाता है। जबकि हम मेहमान से कहते हैं- जूते चलेंगे। बावजूद इसके कि जूतों से सड़क की गंदगी घऱ के अंदर आती है। सड़क पर कुत्तों का मल, थूक-खकार और नाली की गंदगी आदि सब रहता है।
पुराने समय में बैठकें ही ऐसी होती थीं जिनमें जूते उतारकर बैठना होता था। आजादी के आंदोलन के समय और बाद में कांग्रेस की बैठकों की तस्वीरों में हम सफेद जाजम पर बैठने और डेस्क पर लिखने के दृश्य देखते हैं। महाराष्ट्र, गुजरात व दक्षिण के घरों में आज भी ऐसी बैठकें प्रचलित हैं। खाने के समय भी पालथी मारकर बैठना होता था। इसके विपरीत अब जूते पहनकर खाना भी खाया जाता है। हमें याद है जब बाजार से घूम कर आने अथवा यात्रा से लौटने के बाद हमारी दादी नहाने के लिए कहती थींl हमने अपने परखी हुई परंपराओं और आदतों को आधुनिक होने के चक्कर में छोड़ दिया।
इसी तरह थूकने और कचरा फेंकने का मामला है। कहीं भी कचरा फेंकने की तरह किसी भी सार्वजनिक स्थान पर थूक की पीक मार देने की आदत ने हमारे परिसरों और पर्यावरण को काफी गंदा किया है। समाज वैज्ञानिकों के अनुसार इस आदत को छोड़ने से ट्यूबरकुलोसिस यानी टीबी के मरीजों की तादाद में बड़ी कमी लाई जा सकती है। पश्चिम के देशों में भी बीसवीं सदी तक थूकने की यह बीमारी भयानक रूप से व्याप्त थी लेकिन कुछ कानून तो कुछ नैतिकतावाद ने जहां इसे खत्म करने में अहम भूमिका निभाई, वहीं दोनों विश्वयुद्धों ने भी लोगों की आदतों को बदलने के लिए विवश किया। क्या कोरोना महामारी हमारी आदतों में इस तरह बदलाव लाएगी?
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