ट्रेवलॉग
माहुरगढ़/ 6 साल बाद अपनी कुल देवी के दर्शन करने माहुरगढ़ के लिए निकली थी। ये वही देवी हैं जिनकी पूजा हम रोज घर पर करते हैं। जिनकी तस्वीर पर रोज कुमकुम लगाते हैं, पुष्प चढ़ाते हैं, और अपना शीश झुकाते हैं। लेकिन घर पर पूजन करने और उस शक्ति स्वरूपा के मूल स्थान में दर्शन करने में बहुत फर्क है। माहुरगढ़ पर पहुंचकर ऐसा आभास होता है, जैसे मां रेणुका आज भी इस पहाड़ी पर निवास करती है। सिंदूर की कई परतों के पीछे जैसे वे आज भी सजीव हैं और वे हमें देख रही हैं। उनकी उपस्थिति का, उनके मातृत्व का, उनकी शक्ति का, उनके आशीषों का अहसास है इस स्थान पर। जो शांति, ऊर्जा, उत्साह, प्रसन्नता, संतुष्टि, और वात्सल्य की अनुभूति इस स्थान पर होती है, वह बिना किसी अलौकिक शक्ति की उपस्थिति के हो ही नहीं सकती।
यही तो वजह है कि मां रेणुका के हर भक्त में माहुरगढ़ जाने का इतना उत्साह होता है। ये भावनाएं बिलकुल वैसी ही होती हैं जैसे बहुत दिनों के बाद घर आने के लिए काम या पढ़ाई से छुट्टी मिलने पर होती हैं। जैसे अपने घर लौटते समय बच्चे को कोई थकान, कोई असुविधा महसूस नहीं होती, वैसे ही ‘आई रेणुका’ का गढ़ चढ़ते समय भी कोई थकावट महसूस ही नहीं होती। जैसे घर जाते समय कैसे परिवार के लिए उनके पसंद के उपहार ले जाने का मन करता है, वैसे ही यह गढ़ चढ़ते समय वहां शिखर पर बैठी मां के लिए हार, फूल, और पान लेने की ओर ही हाथ बढ़ते हैं। वैसे तो कई दुकानें है गढ़ के रास्ते पर, लेकिन मां के दर्शन का उत्साह ही ऐसा होता है कि उस ओर ध्यान ही नहीं जाता। और जब लगभग 250 सीढ़ियां चढ़कर आखिरकार गढ़ पर पहुंचते हैं तो माहुरगढ़ शीतल हवाओं से आपका स्वागत करता है। हवाओं के ये झोके जब शरीर को छूते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे ‘आई रेणुका’ हमें आंचल की छांव तले लेकर पुचकार रही हैं, अपने मातृत्वपूर्ण स्पर्श से हमारी सारी थकान मिटा रही हैं।
यह वात्सल्य महसूस करने के बाद जब आखिरकार मां के दर्शन का वक्त आता है, तो कुछ अलग ही अहसास होता है। माहुरगढ़ में देवी का केवल मस्तक ही स्थापित है, पर वह काफी है मां के भाव बताने के लिए। जब भक्त सच्चे हृदय से मां के पूजन को जाते हैं तो उन्हें देवी में केवल मातृत्व के भाव ही दिखाई देते हैं। देवी के मुखमंडल से आंखें नहीं हटतीं। उस स्वरूप से दूर हटने का मन ही नहीं करता। जब सब भक्त मिलकर तालियों के एक सुर में आरती और भजन गाते हैं, तब ऐसी शांति का अनुभव होता है कि एक पल को लगता है जैसे आस-पास कोई है ही नहीं। मुझे भी ऐसा लगा जैसे मैं उस जगत माता के वात्सल्य में कहीं खो गई हूं। उस शांति के बाद जो ऊर्जा का संचार होता है, वह अपने आप में देवी का आशीर्वाद है।
इस सबके बाद सबसे कठिन होता है उस भक्तिमय और ऊर्जात्मक स्थान से लौटना। मां की मूर्ति, गढ़ की वह सम्मोहक हवा, वहां की प्रत्येक दीवार में जैसे कोई चुंबकीय शक्ति हो जो गढ़ से उतरने के लिए बढ़ते पैरो को पीछे की ओर खींचती है। जो कष्ट घर छोड़कर जाने में होता है, वही कष्ट ‘आई रेणुका’ के गढ़ से उतरते वक्त भी होता है। पर वापस तो आना ही होता है। लौटते समय बस एक ही आस मन में रहती है कि साल में एक बार तो ‘आई रेणुका’ के दर्शन करने का सौभाग्य जीवन भर मिलता रहे….
(मध्यमत)