विजयमनोहर तिवारी
उज्जैन की रामकथा में कुपढ़ और अनपढ़ के अप्रिय प्रसंग ने समकालीन भारत के सर्वप्रिय वक्ता, प्रसिद्ध कवि कुमार विश्वास को क्षमा याचना के लिए विवश किया। दाल में कंकर किसे भला लगेगा?
एक समय भूल सुधार समाचार पत्रों में हुआ करता था किंतु संवेदनशील संपादक उसे अक्षम्य भूल माना करते थे। जिस किसी के कारण अगले दिन भूल सुधार छापना पड़े, उसके लिए तो डूब मरने का प्रसंग होता था। रामकथा का मंच तो मर्यादा पुरुषोत्तम की भांति जीरो एरर की कड़क कसौटी का है। अगले दिन भूल सुधार और क्षमा याचना हुई तो राम में डूबने का रस भंग हो गया। स्वर सध रहा था कि क्षण भर के लिए कर्कश हो गया। वह क्षण मात्र ही है किंतु अनिष्ट जैसा है।
रामकथा का मंच कविता का मंच नहीं है, न ही कोई टीवी शो का प्लेटफार्म। वहाँ और कोई कवि या वक्ता नहीं हैं, जो बारी-बारी से अपनी बात कहने के लिए स्वतंत्र हों। हँसी-मजाक, चुहल-चुटकुले, कथन-कटाक्ष का कोई स्थान नहीं है। रामकथा राम के चरित्र की ही भांति एक मर्यादा की अपेक्षा करती है।
किंतु प्रिय कुमार विश्वास इन दिनों एक साथ कई फ्रिक्वेंसी पर सेट हैं। काव्य मंचों से किनारा नहीं किया है और टीवी शोज के ऑफर लेटर भी आ ही रहे होंगे। इन सबके बीच में बचे हुए समय में एकाध फिल्म भी लिख डाली। संभव है कोई वेबसीरीज भी रच रहे हों। भगवान न करे, किसी ने अभिनय इत्यादि का परामर्श भी न दे डाला हो। राजनीति के चुनावी मंचों की शोभा वे बढ़ा ही चुके हैं। राख में चिंगारियाँ कहाँ नहीं होतीं।
राजकुमार, दिलीपकुमार, देवानंद, राजकपूर, राजेंद्र कुमार, राजेश खन्ना सिनेमा के शिखर सितारे रहे हैं, जो कभी विज्ञापनों में नहीं आए। राजेश खन्ना अंतिम वर्ष में किसी पंखे के एक विज्ञापन में दिखे थे बस। ऐसा नहीं है कि सिगरेट, साबुन और कपड़े बेचने वाली कंपनियों ने संपर्क न किया होगा। दिल्ली-मुंबई में धन किसे बुरा लगता है? किंतु इन अभिनेताओं ने यह मर्यादा बनाए रखी कि वे अभिनय में ही अपनी प्रतिभा दिखाएंगे।
अमिताभ बच्चन अकेले हैं, जिन्होंने अभिनय से अर्जित लोकप्रियता को हर माध्यम में अंतिम बूँद तक निचोड़ा। टीवी से लेकर विज्ञापन और विज्ञापनों में भी क्या नहीं छोड़ा? एक साथ इतनी फ्रिक्वेंसी पर स्वयं को सेट कर लेना बड़ा कठिन काम है। सबसे पहले तो छवि दांव पर लगती है। साबुन, तेल, चड्डी, बनियान बेचकर अमिताभ ने अपनी छवि को चमकाया कम और गिराया अधिक है, किंतु धन के लिए यह उनका चुनाव था।
राम की कथा में उतरना और अपने संग हजारों आस्थावान सहभागियों को ले चलना, कोई सामान्य भाषण, व्याख्यान या चुनावी सभा नहीं है। वह तनी हुई रस्सी पर चलने जैसा कठिन है। थोड़ा भी संतुलन गड़बड़ाया कि गए। उज्जैन में यही हुआ। क्षमा याचना की मुद्रा में आना, रस्सी से नीचे गिरकर धूल झाड़ते हुए खड़े होने जैसा और समाचार पत्रों की भाषा में कहें तो अगले दिन बॉक्स में भूल सुधार प्रकाशित करना ही है। यह अपेक्षा कुमार विश्वास जैसे अनुभव और भाषा संपन्न वक्ता से भला किसे होगी?
उनका परिवार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचार वृत्त में रहा है। संभव है संघ में किसी उत्तरदायित्व में भी कोई हो। उनके बड़े भाई संजीव शर्मा संघ के विचार मंथनों में सम्मिलित होते रहे हैं, जिन्होंने एक किताब भी लिखी। वे इन दिनों किसी विश्वविद्यालय के कुलपति भी हैं। क्या यह संभव है कि अनपढ़ लोग विचार मंथनों में बैठते हों, किताब लिखते हों या कुलपति बनते हों? कथा में प्रसंग कोई भी हो, एक परिपक्व वक्ता के बोल-व्यवहार में ऐसे उदाहरण आने ही नहीं चाहिए।
चार पुस्तकें पढ़ने वाला दो पुस्तकें पढ़ने वाले से अधिक ज्ञानवान कहलाएगा। दो पुस्तकें पढ़ने वाला एक भी न पढ़ने वाले के लिए ज्ञानी होगा। ज्ञान अंतहीन है और सर्वज्ञ होना हर किसी की क्षमता में यूं भी संभव नहीं है। तुलनात्मक रूप से अधिक अध्ययन और अनुभव होना भी कम बड़ी उपलब्धि नहीं है। नियति यह कृपा हर किसी पर नहीं करती। किंतु ये अनायास भूलें सामान्य मनुष्य की मर्यादा को ही रेखांकित करने के लिए होती हैं। मुरारी बापू भी कृष्ण पर कुछ कहकर एक बार ऐसे ही धड़ाम हो चुके हैं।
जहाँ तक इधर वालों की बात है, जो बात तो करते हैं हमारे वेदों में और वेद ही पढ़े हुए नहीं होते अर्थात् राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों की। संघ सौ वर्ष का होने जा रहा है। यह संसार का एक बड़ा आश्चर्य ही है। अंतर्विरोधों से परिपूर्ण, आपसी राग-द्वेष-जलन से भरपूर भारतीय समाज में एक ऐसा संगठन सौ वर्ष पूरे करने जा रहा है, जिसकी आयु का अधिकतम भाग उपेक्षा, आरोप, प्रतिबंध झेलते हुए ही व्यतीत हुआ है।
मामाजी के नाम से विख्यात संघ के एक वरिष्ठ प्रचारक माणिकचंद्र वाजपेयी के बारे में एक बार मैंने लिखा था कि भारत की स्वतंत्रता के समय वे युवा अवस्था में थे। वह गांधी-नेहरू के चरचराटे का समय था। देश और समाज के लिए कुछ करने की इच्छा उन्हें क्यों डॉ. हेडगेवार के विचार की ओर ले गई, जिसमें मिलना कुछ नहीं था और पूरी उम्र सिर्फ तपना ही था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद तो सतत् कठिन प्रश्नों, परीक्षाओं और प्रतिबंधों से होकर गुजरना था। फिर उनकी कौन सी दृष्टि थी, जो उन जैसे हजारों युवाओं को डॉ. हेडगेवार के विचार वृत्त में एकत्रित कर रही थी? अगर अनपढ़ों को वह दृष्टि प्राप्त होती है तो समाज को उन शिक्षितों की कोई आवश्यकता नहीं है, जिन्हें हम शिक्षित मानते हैं।
हजारों प्रचारकों की चार पीढ़ियाँ उस नींव में पड़ी हैं अनाम शिलाओं की तरह, जिस पर वर्तमान भारत एक भव्य इमारत की तरह खड़ा होने का प्रयास कर रहा है। सादगी से जीवन जीने की शिक्षाएं बापू ने जीवन भर दीं और वे अपने आसपास पुष्पित-पल्लवित होने वाली पार्टी में सच्ची सादगी वाले चार लोग खड़े नहीं कर पाए। संघ के अनगिन प्रचारकों का जीवन आज इक्कीसवीं सदी में उपलब्ध संसार की समस्त चमक-दमक के बीच अध्ययन का विषय है। अपने पत्रकारीय जीवन में मुझे ऐसे कुछ प्रचारकों से मिलने का सौभाग्य मिला है।
संतों में तो कुछ पाने की इच्छा शेष होगी, मैंने संघ के प्रचारकों में वह भी नहीं देखी। प्रचार की जिन्हें कोई लालसा नहीं है, पदों की कोई कामना नहीं है। वे अपने आचरण से पार्श्व में रहकर प्रभावपूर्ण होना सिखाते हैं। प्रभावपूर्ण भी स्वयं के लिए नहीं, केवल समाज के लिए, केवल राष्ट्र के लिए। वे दशकों से उत्तरपूर्व के अशांत पर्वतीय क्षेत्रों से लेकर सुविधाविहीन गहन वनों में सेवा के कार्यों में अपनी आयु होम कर रहे हैं। उन्होंने जीवन लगाकर सेवा और शिक्षा के महान् संस्थान खड़े किए हैं। यदि अनपढ़ होने से लोग ऐसे बनते हैं तो मोटी फीस, चार्टर प्लेन और बिजनेस क्लास की लकदक भाषा समझने वाले सभ्य समाज की ऊंची शिक्षा से रघुनंदन ही बचाएं।
विनाशकारी विभाजन के साथ प्राप्त की गई स्वतंत्रता के बाद देश को जिस दिशा में ले जाया गया, वह अब सर्वज्ञात है। संघ के अनुषंगों में राजनीतिक मंच भी एक महत्वपूर्ण भूमिका में रहा है, जिसकी मर्यादा तय की गई। संघ ने अपने सर्वश्रेष्ठ प्रचारक राजनीतिक मंच पर भी उतारे। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ऐसे ही एक प्रचारक थे। कोई उनके जीवन प्रसंगों में झांके, लगेगा बापू की प्रबल परछाई को देख रहा है।
संघ की छाया में यह अनूठी राजनीतिक धारा है, जो दमघोंटू और आत्मघाती नीतियों में फँसा दिए गए भारत के भावी जीवन के लिए जरूरी विषयों पर कई दशकों तक संघर्षरत् रही और वे समस्त लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का पालन करके ही लक्ष्य प्राप्त करने में धीरे-धीरे सफल हुए। संसद में दो सीटों से तीन सौ पार होना बच्चों का खेल नहीं था। स्मृतियों में ताजा उदाहरण राम मंदिर के उद्धार और कश्मीर की कूड़ा सफाई के हैं। बिना जीवन समर्पण, सर्व प्रकार के त्याग, असीम धैर्य और गहरी निष्ठा के भारत जैसे जटिल समाज में ये उपलब्धियाँ असंभव कोटि की हैं।
ये गुण अगर अनपढ़ों में प्रकट होते हैं तो ऐसा अनपढ़ राघवेंद्र सरकार हरेक को बनाएँ और कुपढ़ों से कृपापूर्वक रक्षा भी करें।
(लेखक की सोशल मीडिया पोस्ट से साभार)
(मध्यमत)
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