लिंगायतों को ‘अ-हिंदू’ मानने में छिपा राजनीतिक दांव

अजय बोकिल 
कर्नाटक में मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने लिंगायत समुदाय को हिंदुओं से अलग धर्म की मान्यता देकर आसन्न विधानसभा चुनाव के ठीक पहले तुरुप का पत्ता चल दिया है। इस निर्णय पर अंतिम मोहर केन्द्र सरकार को लगानी है, लेकिन जिस तरह से लिंगायतों के मामले में गेंद मोदी सरकार के पाले में डाली गई है, उससे भाजपा अजीब मुश्किल में फंस गई है।

जाहिर है सिद्धारमैया भाजपा को उसकी ही चालों से मात देने में लगे हैं। उनके पांसे सही पड़े तो दो माह बाद कर्नाटक में अपनी सरकार बनाने के ख्वाब देख रही भाजपा को निराश भी होना पड़ सकता है। क्योंकि भाजपा राज्य में सभी हिंदुओं को एक छतरी के नीचे लाने में लगी है, तो कांग्रेस के घुटे हुए मुख्यमंत्री सिद्धारमैया इसी छतरी में छेद करने में लगे हैं। भाजपा ने सिद्धारमैया के इस कदम का यह कहकर कड़ा विरोध किया है कि वे हिंदू समुदाय को बांटने की राजनीति कर रहे हैं, लेकिन हकीकत में सिद्धारमैया भाजपा के वोटों को बांटने का शातिर खेल खेल रहे हैं।

उत्तर भारत में बहुतों को नहीं मालूम कि लिंगायत कौन हैं? उनका हिंदू धर्म से क्या और कितना सम्बन्ध है? वे हिंदू छतरी से अलग क्यों होना चाहते हैं और ऐसा करने के राजनीतिक-सामाजिक परिणाम क्या होंगे? जान लें कि लिंगायत कर्नाटक राज्य का एक प्रभावशाली सम्प्रदाय है, इसे वीरशैव के नाम से भी जाना जाता है। वो लिंगायत इसलिए कहलाते हैं कि इस सम्प्रदाय का हर व्यक्ति अपने गले में लॉकेट की तरह शिव लिंग धारण करता है, जिसे इष्ट लिंग कहा जाता है। वे शिव को ही संसार की उत्पत्ति और विनाश का कारण मानते हैं। लेकिन शिव की मूर्तिरूप में आराधना नहीं करते।

इस सम्प्रदाय की स्थापना संत व राजनेता बसवराज ने 12 वीं सदी में की थी। इस पंथ के अनुयायी ‘शरण’ कहलाते हैं। लिंगायत सम्प्रदाय की स्थापना सनातनी हिंदुत्व के खिलाफ बगावत के रूप में की गई थी। लिंगायतों को हिंदू माना जाए या नहीं, इसको लेकर लंबे समय से बहस होती रही है। कारण हिंदुओं के देवता शिव को मानने को छोड़कर हिंदुओं की बाकी प्रथाओं और धर्म दर्शन को लिंगायत नहीं मानते। लिंगायतों के अपने मठ होते हैं, लेकिन उनमें देवी-देवताओं की प्रतिमाएं नहीं होतीं।

लिंगायत वर्ण व्यवस्था, ब्राह्मणवाद और वेदों को नहीं मानते। पुनर्जन्म, कर्मवाद और मोक्षवाद में भी उनकी आस्था नहीं है। वे मृतकों को दफनाते हैं। लिंगायतों का धर्म मूलत: षटसिद्धांत पर आधारित है। इसका मूल भाव कबीर की इस साखी में है कि ‘तेरा साईं तुझ में।‘ लिंगायत मानते हैं कि मनुष्य का जन्म शिव से ही होता है और मरने के बाद वह इसी में समाहित हो जाता है। इसे वे ‘ऐक्य’ कहते हैं। लिंगायतों में ज्यादा कर्मकांड नहीं है। जातीय ऊंच-नीच नहीं है। उनका तत्वज्ञान शू्न्य सिद्धांत पर आधारित है। कोई भी दीक्षा लेकर लिंगायत बन सकता है। वे हिंदुओं के शास्त्रों के बजाए ‘वचना’ को मानते हैं, जो धर्म पालन के दिशा निर्देश हैं।

लिंगायत आजादी के बाद से ही अपने को हिंदुओं से अलग धर्म के रूप में मान्यता की मांग करते आ रहे हैं। एमएम कलबुर्गी जैसे वामपंथी लेखक चिंतकों ने इस मांग को और उभारा। लिंगायतों की इस मांग ने जोर तब पकड़ा, जब पिछले वर्ष अखिल भारतीय वीरशैव महासभा ने राज्य सरकार को ज्ञापन दिया कि लिंगायतों को हिंदुओं से अलग धर्म माना जाए। इसके समर्थन में कर्नाटक और महाराष्ट्र में बड़ी-बड़ी रैलियां निकलीं, जिनमें लिंगायत मठों के धर्मगुरुओं ने भाग लिया।

हालांकि लिंगायतों का एक धड़ा, जिसमें जाने-माने लेखक एस.एल. भैरप्पा शामिल हैं, लिंगायतों को ‘अ-हिंदू’ मानने का विरोध करते आ रहे हैं। लेकिन लिंगायतों के ‘अ-हिंदू’ कहलाने की मांग के पीछे एक और कारण लिंगायत मठों तथा अन्य सामाजिक संस्थाओं द्वारा संचालित होने वाली शैक्षणिक व अन्य संस्थाएं हैं, जिनके स्वतंत्र संचालन के लिए लिंगायत अपने को अल्पसंख्यतक घोषित करवाना चाहते हैं, जो कि संविधान सम्मत है।

लिंगायतों की इस मांग के राजनीतिक महत्व को भांप कर राज्य सरकार ने नागभूषण दास कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी ने सिफारिश की है कि लिंगायतों को अलग धर्म की मान्यता दी जाए। ऐसा हुआ तो लिंगायत कर्नाटक में धार्मिक अल्पसंख्यक कहलाएंगे। सिद्धारमैया सरकार ने इन सिफारिशों को अपनी ओर से मंजूर कर लिंगायतों को हिंदुओं से इतर मानने की अनुशंसा केन्द्र सरकार को भेज दी है, जिसे इस मांग पर अंतिम निर्णय करना है।

इसके पहले भाजपा ने येद्दियुरप्पा जैसे नेता को आगे कर लिंगायतों में अपनी पैठ बनाई थी। इसीके चलते दस साल पहले राज्य में पहली भाजपा सरकार बनी। लेकिन बाद में येद्दियुरप्‍पा भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसे और उन्हें हटाना पड़ा। पार्टी अंतर्कलह में फंस गई। येद्दि ने अपनी नई पार्टी बनाकर चुनाव लड़ा। वे खुद हारे, साथ ही भाजपा को भी ले डूबे। अब फिर भाजपा अपनी पुरानी पार्टी में लौटे येद्दि पर दांव लगा रही है। ऐसे में येद्दि के मजबूत लिंगायत वोट बैंक में ही सेंध लग गई तो भाजपा के लिए बहुत मुश्किल होगी।

खास बात यह है कि राज्य में कांग्रेस और भाजपा के वोटों में केवल दो फीसदी का अंतर है। कर्नाटक में लिंगायतों की संख्या करीब 59 लाख है, जो कुल मतों का लगभग 11 फीसदी है। इनके अलावा 16 परसेंट दलित और 13 फीसदी मुसलमान हैं। अगर लिंगायत वोट भाजपा से टूटता है तो उसके सत्ता में आने की संभावना कमजोर पड़ जाएगी। वैसे भी पार्टी की राज्य इकाई में एका नहीं है।

इससे भी बड़ी दिक्कत भाजपा के सामने यह है कि वह लिंगायतों के हिंदुओं से अलग होने की मांग का खुलकर विरोध कर उन्हें नाराज नहीं कर सकती। अगर वह इसका समर्थन करती है तो हिंदुओं के कई और सम्प्रदाय भी इस तरह की मांग कर सकते हैं। ऐसा हुआ तो हिंदू एकता के महल की नींव ही हिल जाएगी। दूसरी तरफ लिंगायतों को हिंदू मानने वालों का तर्क है कि लिंगायतों का पंथ हिंदुओं के सुधारवादी आंदोलन का ही हिस्सा है, न कि अलगाववादी आंदोलन का। इसलिए लिंगायतों को हिंदू छतरी में ही रहना चाहिए।

लेकिन लिंगायतों का बड़ा हिस्सा इसे अमान्य करता है। तात्विक दृष्टि से क्या सही और क्या गलत है, यह विद्वानों की बहस का विषय है। लेकिन राजनीति के अखाड़े में लिंगायतों का ‘अ-हिंदू’ होना कांग्रेस की सत्ताकांक्षा को ज्यादा पोषित कर रहा है। सिद्धारमैया की चाल में यह सियासी संदेश भी छिपा है कि सत्ता साकेत केवल मुसलमानों को अलग करके ही नहीं हथियाया जाता, हिंदुओं को बांटकर भी हथियाया जा सकता है। यही भाजपा के सामने असली चुनौती है।

(सुबह सवेरे से साभार)

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