डॉ. हंसा कमलेश
कोरोना की शनि की तरह वक्री चालों ने समाज के ढांचे को चरमरा कर रख दिया है। सड़कों पर, जंगल के रास्ते, ट्रेन की पटरी-पटरी चलने वाले हमारे मजदूरों की उखड़ती सांसों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को चरमराने के लिए मजबूर कर दिया है। हर राज्य से मजदूर कहीं पैदल, कहीं टैंकर में बैठकर तो, कहीं ट्रकों में घुसकर अपने गंतव्य पर जा रहे हैं। चारों तरफ मृत्यु पर शवों का अट्टहास और जीवित कंका की सिसकियां, ऐसा भयावह दृश्य चित्रित कर रही हैं कि भावनाएँ, संवेदनाएं सब ठिठक कर खड़ी हो गई हैं|
अथर्ववेद में कहा गया है “त्वां मृत्युर्दयतां मा प्र मेष्ठा:” अर्थात मृत्यु तेरी रक्षा करे और तू समय से पूर्व न मरे। अथर्ववेद में ही “उत तवां मृत्योरपीपरं” कह कर वेद भगवान ने संदेश दिया है कि- हे जीवात्मा मैं मृत्यु से तुझको ऊपर उठाता हूं। मृत्यो मा पुरुषवधी: कह कर वेद ने संदेश दिया कि हे मृत्यु तू पुरुष को समय से पूर्व मत मार।
सवाल यह है कि वर्तमान समय में अलग अलग कारणों से जो सामूहिक मृत्यु हो रही है उसे कैसे रोका जाये? मजदूर सड़क के रास्ते पर जाते हैं तो उन्हें वहाँ से खदेड़ दिया जाता है। जंगल जंगल चलते चलते वो कहीं न कहीं तो ट्रैक पर आयेगें ही। हमें याद रखना होगा कि हमारा यह मेहनतकश वर्ग सिर्फ अपनी दुनिया में व्यस्त रहता है, दिन भर हाड़ तोड़ मेहनत के बाद उसके पास इतना समय नहीं होता कि वह टेलीविजन के लाइव टेलिकास्ट देखकर अपना कार्यक्रम बनाये। उसने सुना लॉकडाउन मतलब सब कुछ बंद। उसने तो कल्पना भी नहीं की होगी थककर आराम करते समय कि वह मौत के तकिये पर सो रहा है।
हमें यह भी याद रखना होगा कि हमारे ये संगठित और असंगठित मजदूर अर्थव्यवस्था के आधार हैं। इनका कार्यस्थल से पलायन मतलब फैक्टरियों का बंद होना। यदि आप फैक्टरी चालू करते हैं तो काम करने वाले मजदूर कहां से लायेगें, क्योंकि वे तो अपनी जगह से हजार किलोमीटर दूर पैदल निकल गये हैं। व्यवस्थाएं मूकदर्शक बन गई हैं। बड़ी संख्या में मजदूरों का पलायन तमाम फैक्ट्रियों में शून्य पैदा कर रहा है। मजदूर अपने गांव में आकर करेगा क्या? मनरेगा कितनों को काम देगा?
बेरोजगारी गरीबी भुखमरी जैसी समस्याएं विकराल रूप धर कर खड़ी हो रही हैं। यथार्थ के धरातल पर क्या हो रहा है किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा है। मीडिया के दृश्य पूरे देश में बिखरे उन मजदूरों के पलायन की भयावहता को प्रस्तुत कर रहे हैं। लगता है पूरा देश सड़क पर है। कहीं प्रसव की वेदना सड़क पर दिख रही है, तो कहीं नंगे पैरों का चिलचिलाती धूप में झुलसना दिखाई दे रहा है, कहीं बैल की जगह मानव जुत रहा है तो कहीं ठुसे हुए मजदूरों से भरा ट्रक।
सब कुछ एक सवाल बनकर खड़ा हो गया है यदि हम कहें कि मानव परिस्थितियों का दास है तो मृत्यु के इस तांडव को और पलायन की भयावहता को नहीं रोका जा सकता। लेकिन यदि हम कहें कि मानव परिस्थितियों का निर्माता है तो इन सब को टाला जा सकता है बशर्ते आपकी इच्छा शक्ति हो।
वर्तमान में देश के पास कोई ठोस योजना नहीं है। इस तरह की महामारी के दौरान समाज के उस वर्ग के लिए, जिस पर उत्पादन की महती जिम्मेदारी है। जिसके बिना अर्थव्यवस्था की मजबूती की कल्पना नहीं की जा सकती, वह मजबूर होकर सड़क पर खड़ा है। हमारा कृषक, हमारा मजदूर देश को अपना 100 फीसदी देता है, पर देश उसके लिए क्या कर रहा है? सोचने वाली बात है, 5000 वर्ष पुरानी गौरवमयी सभ्यता का इतिहास और हमारा लोकतंत्र आज सड़क पर खड़ा हमसे सवाल कर रहा है।
आंकड़े उठाकर देखें तो हमारी पूंजी विदेशों में अधिक गई है। शिक्षा से जुड़े समस्त सवाल ठंडे बस्ते में पड़े हैं, कृषि की उपेक्षा प्रशासन की आदत सी हो गई है। अभी भी महा पैकेज में यथार्थ के धरातल पर किसान ठगा ही गया है। बंपर सब्जियों, फसलों, गन्ने का उत्पादन हुआ है और आदमी भूखे पेट मर रहा है। अभी हम कोरोना से मर रहे हैं, पर कुछ दिन बाद भुखमरी से मरेंगे, कुछ लूटपाट, हत्या, डकैती की घटनाओं में मरेंगे और कुछ आत्महत्या करेंगे। अर्थात मृत्यु का आंकड़ा बढ़ते ही जाना है।
आजादी के इतने सालों बाद भी भंडारण की व्यवस्था नहीं, सब कुछ खुले में पड़ा है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में उल्लेखित यह तथ्य उल्लेखनीय है “अर्थव्यवस्था का मूल आर्थिक गतिविधियां हैं, इनके अभाव से भौतिक तनाव का जन्म होता है। परिणाम दायक सक्रियता के अभाव में न केवल वर्तमान समृद्धि की बल्कि साथ ही भावी संपन्नता के भी विनाश की संभावनाएं बनने लगती हैं।”
अर्थव्यवस्था के आधार कृषक और मजदूर दोनों ही बिखर गए हैं। भारत की 60 प्रतिशत जनसंख्या कृषि आधारित है। पर हैरानी की बात तो यह है कि कहने को कृषि का और सब्जियों का बंपर उत्पादन हो रहा है और विश्व में सबसे अधिक उपजाऊ कृषि भूमि हमारे पास है पर तुलनात्मक दृष्टि से हमारा खाद्यान्न उत्पादन कम ही है। चीन की प्रति हैक्टेयर चावल की उपज हम से दोगुनी है। हम प्रतिवर्ष यह कहते हैं कि भारत ने उत्पादन में पिछले वर्ष का रिकॉर्ड तोड़ा, लेकिन यथार्थ में कृषि के क्षेत्र में यह वृद्धि 2 फीसदी की ही है।
लगभग 30 से 35 फीसदी खाद्यान्न भंडारण और वितरण में नष्ट हो जाता है। लगभग 35 मिलियन टन अनाज सड़ जाता है भंडारण के अभाव में। लेखिका स्वयं होशंगाबाद जैसे खाद्यान्न उत्पादन वाले क्षेत्र में रहती है जहां वह प्रत्यक्ष उत्पादन भी देखती है और उसकी बर्बादी को भी देखती है।
कोविड-19 ने चिकित्सा के क्षेत्र के साथ-साथ सामाजिक आर्थिक व्यवस्था को तोड़ कर रख दिया है। समाज में संक्रमण ने छुआछूत जैसी बीमारी को और उसकी जटिलता को विकसित कर दिया है। इंसान की इंसान से दिलों की दूरियां तो वैसे ही इस भौतिक जगत में बढ़ रही थीं, पर अब यह फिजिकल/सोशल डिस्टेंसिंग के नाम से रिश्तों को ही तार-तार कर रही है। कोरोना वायरस शव को परिवार वाले लेने को तैयार नहीं हैं। कंधा देने की बात तो बहुत दूर की हो गई है।
प्रत्येक व्यक्ति की महती जिम्मेदारी है कि सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने को व्यवस्थित करने में अपनी सक्रिय भागीदारी दर्ज कराएं ना कि शोर का हिस्सा बने।
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टीम मध्यमत