‘उमराव जान’ और ‘गमन’ जैसी मशहूर और लीक से हटकर फिल्में बनाने वाले निर्देशक मुजफ्फर अली ने एक मासूम-सा सुझाव दिया है। सुझाव यह है कि ‘’नेता यदि दिल लगाकर राजनीति करें तो देश की दशा सुधर जाए।‘’ मुजफ्फर कहते हैं कि जो भी काम हो वह दिल से होना चाहिए, फिर चाहे फिल्म बनाना हो, समाज सेवा करना हो या राजनीति ही क्यों न हो। जो राजनेता दिल से नहीं सोचता वह जनता से कट जाता है।
अली का मानना है कि जब दिल और दिमाग में चुनने की बारी आए तो दिल की बात को ही तवज्जो दी जाए। युवाओं को भी खुल कर अपने दिल की बात कहने और मानने का अवसर मिलना चाहिए। कलाकारों को भी दिल से काम करने देना चाहिए। उनके काम में ‘दिमाग’ का दखल नहीं होना चाहिए।
अपनी चर्चित फिल्म ‘उमराव जान’ की नायिका उमराव जान के मुंह से ‘’दिल चीज क्या है, आप मेरी जान लीजिए’’ जैसी बात कहलवाने वाले मुजफ्फर अली के इस सुझाव ने दिल और राजनीति के रिश्ते को लेकर सोचने पर मजबूर कर दिया।
आज के हालात में राजनीति में जो कुछ चल रहा है उससे ऐसा कहीं नहीं लगता कि राजनीति का दिल से दूर दूर का भी कोई रिश्ता है। जो ‘दिल से’ काम करते हैं वे ‘राजनीति’ नहीं करते और जो ‘राजनीति’ करते हैं वे दिल विल को बीच में नहीं आने देते। दिल कम्बख्त चीज ही ऐसी है कि बीच में आ जाए तो सब गड़बड़ कर देता है। इसीलिए राजनीति करने वाले लोग दिल को खुद से दूर ही रखते हैं। दिल का उनसे सिर्फ काला होने के मुहावरे जितना ही रिश्ता है। बाकी जगह ‘दाल में काला’ होता है जबकि राजनीति के लिए ‘दिल में काला’ होना जरूरी है।
सवाल उठ सकता है कि जब दिल से राजनीति न करें तो फिर क्या करें? कुछ लोग कहेंगे आप दिमाग से राजनीति करिए। राजनीति की शतरंजी चालों को समझने और सुलझाने के लिए दिल नहीं दिमाग ही काम आ सकता है। लेकिन सच पूछा जाए तो इन दिनों दिल तो क्या राजनीति दिमाग से भी नहीं हो रही। वास्तव में आज की राजनीति तो चमड़ी (या चमड़ा) और हड्डियों से हो रही है। जिसकी जितनी मोटी चमड़ी और मजबूत हड्डियां वह उतना ही बड़ा राजनेता। दिल का मामला होगा तो नाजुकी आ ही जाएगी। और राजनीति में नाजुकी का क्या काम? हिन्दी फिल्मों के महान गीतकार शैलेंद्र ने लिखा था- ‘दिल का हाल सुने दिलवाला।‘ अब यदि दिल से राजनीति होगी, तो दूसरों के दिल का हाल भी सुनना पड़ेगा। यहां बाकी कामों से फुरसत मिले तो दिल के लिए वक्त निकले। और जब खुद के ही दिल का हाल सुनने का वक्त नहीं है तो दूसरों के दिल की बात ही छोड़ दीजिए।
कभी कभी लगता है कि राजनीति दिल से होनी भी नहीं चाहिए। वो कहते हैं ना ये ‘दिल की लगी बड़ी बुरी’ होती है। यदि राजनीति दिल से लग गई, तो बाकी काम कैसे हो पाएंगे। राजनीति तो ‘आंखों ही आंखों में खेलने’ और ‘आंखों ही आंखों में निपटा देने’ का हुनर है। आंखों से उतर कर दिल में समाने वाली फिल्मी बातों का यहां दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं है। राजनीति के अनुभवी लोग, आंखों से उतर कर दिल में जाने के तमाम रास्ते सील करके ही रखते हैं। क्योंकि दिल है तो ‘दर्द’ भी होगा और राजनीति के ‘मर्द को दर्द’ कहां होता है?
मुजफ्फर अली ने अपनी पहली फिल्म ‘गमन’ में स्मिता पाटिल को और सुपरहिट फिल्म ‘उमराव जान’ में रेखा को ही नायिका बनाने का भेद भी खोला है। उन्होंने कहा कि ‘गमन’ पलायन पर केन्द्रित फिल्म थी और स्मिता की आंखों में एक लंबा इंतजार दिखाई देता था। उमराव जान में रेखा इसलिए आईं क्योंकि उनकी आंखों में एक ऐसी महिला का अक्स दिखता है जो गिर कर उठ खड़े होने का माद्दा रखती है।
लेकिन अगर फिल्मों में नायिकाओं को लिए जाने की यही कैफियत है, तो दिल की बात तो छोडि़ए, राजनीति तो आंखों से भी नहीं हो पाएगी। क्योंकि वहां तो इंतजार करने वाली नहीं, इंतजार करवाने वाली आंखें चाहिए। और गिर कर उठने वाली आंखों के बजाय वहां तो गिरी हुई आंखों के लिए ज्यादा अवसर हैं।
इसलिए मुजफ्फर साहब का सुझाव सिर्फ बातचीत तक ही ठीक है। वे अगर सोचते हों कि राजनीति उनकी बात को दिल पर ले लेगी और दिल से राजनीति करने लगेगी, तो ऐसा अभी दूर दूर तक दिखाई नहीं देता। हां, राजनीति का शिकार होने वाली बेचारी जनता जरूर सदियों से ‘दिल की बात’ को दिल से लगाए बैठी है। उसके होठों से तो कैफी आजमी साहब का यह गीत हटता ही नहीं-
या दिल की सुनो दुनिया वालो*
या मुझको अभी चुप रहने दो,
मैं गम को खुशी कैसे कह दूं,
जो कहते हैं उनको कहने दो।
एक ख्वाब खुशी का देखा नहीं
देखा जो कभी तो भूल गए,
मांगा हुआ तुम कुछ दे ना सके
जो तुमने दिया वो सहने दो।
* (यहां दुनिया वालो को राजनीति वालो पढ़ा जाए)
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