-जयंती विशेष-
लाजपत आहूजा
अफ्रीकी साहित्य की सशक्त आवाज़ों में से एक नाइजीरिया के चिनुआ अचाबे ने कहा था कि जब तक शेरों के अपने स्वयं के इतिहासकार नहीं होते तब तक शिकार के इतिहास में हमेशा शिकारी का ही महिमामंडन किया जाता रहेगा। राजधानी दिल्लीे में यदि आज असम के महावीर लाचित बडफुकन की 400वीं जयंती न मन रही होती और देश के प्रधानमंत्री स्वयं इसमें भाग न ले रहे होते तो ऐसा ही होता। अहोमों के इस सेनापति को पूर्वोत्तर के शिवा जी की संज्ञा दी जाती है। उसने औरंगज़ेब की सेनाओं को भयंकर नदीयुध्द में ऐसा पराजित किया कि वे उल्टे पैर भागे और इसके बाद असम की ओर देखने से भी परहेज़ किया।
अहोमों के यशस्वी सेनापति लाचित बारफुकन की जयंती के तीन दिनी कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री, वित्त् मंत्री के अलावा इतिहासवेत्ता भी भाग ले रहे हैं। वीर लाचित ने ब्रह्मपुत्र नदी में इतिहास के सबसे भयंकर सराई के युध्द में मुग़ल सेनाओं को ऐसा हराया कि औरंगजेब न केवल दक्षिण में बल्कि पूरब में भी अपने मंसूबे पूरे नहीं कर पाया।
हम भारत के लोगों को इतिहास के वे हिस्से पढ़ाये ही नहीं गए जो प्रतिरोध की अद्भुत वीरता की कहानी कहते हों। लाचित ने अहोमों की पिछली पराजय का बदला लेते हुये असम को मुग़लों से मुक्त कराया। औरंगजेब ने राज जयसिंह के पुत्र राजा रामसिंह के नेतृत्व में सहयोगी मुस्लिम कमांडरों के साथ बड़ी सेना भेजी। बीच युध्द में कमांडर लाचित बीमार पड़ गए। लेकिन इसके बावजूद अपने तपते शरीर की परवाह न करके वे युद्ध में पहुंचे और मुगल सेना को भागने पर मजबूर कर दिया।
1622 में जन्मे लाचित बारफुकन ने इतिहास में एक स्वर्णिम पृष्ठ जोड़ा। जिस शिद्दत से वे लड़े उसकी कीमत उनके शरीर ने चुकाई। मुग़लों से जीतने के कुछ समय बाद मात्र 50 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया। इस महायोध्दा को असम से बाहर कम ही लोग जानते हैं। कहा जाता है कि लाचित उनके पिता मोमई तामुली बोरबरुआ को रक्त में लथपथ मिले थे, इसलिए उन्हें लाचित नाम दिया गया।
जिस वक़्त छत्रपति शिवाजी महाराज ने पश्चिम और दक्षिण भारत में औरंगज़ेब की नाक में दम कर रखा था उसी दौर में उत्तर-पूर्व भारत में औरंगज़ेब से अहोम साम्राज्य टक्कर ले रहा था। शिवा जी से प्रेरणा लेने का साक्ष्य अहोम राजा चक्रधवज सिंह दृारा कूच बिहार के राजा को 7 फरवरी 1666 को लिखे पत्र से मिलता है। लाचित ने शिवा जी की छापा मार पद्धति अपनाई और मुग़लों की तोपों के बारूद में पानी भरकर उन्हेंच बर्बाद कर देने जैसे कारनामे भी किए। ब्रह्मपुत्र नदी में मार्च 1671 में लाचित ने ऐसी लड़ाई लड़ी थी जिसे पानी पर लड़ी गई सबसे महान लड़ाई समझा जाता है। इसे सरायघाट की लड़ाई कहा जाता है।
17वीं सदी की शुरुआत में मुग़लों को ब्रह्मपुत्र घाटी की अहमियत का अंदाज़ा हो गया था। उन्होंने अहोम राजाओं से दो लड़ाइयाँ लड़ी। 1639 में असुरार अली की संधि में तय हुआ कि मुग़ल गुवाहाटी में ब्रह्मपुत्र के दक्षिण में रहेंगे, लेकिन बादशाह बनने के बाद, साल 1661 में औरंगज़ेब के कहने पर ढाका के सूबेदार मीर जुमला ने बड़ी सेना के साथ असम पर चढ़ाई की और अहोम राजधानी पर कब्ज़ा कर लिया।
नई संधि की शर्तों के तहत अहोम राजा जयध्वज सिंह को गुवाहाटी से मानस नदी तक ज़मीन और बहुत सारी रकम चुकानी पड़ी। कुछ ही समय बाद मीर जुमला और जयध्वज सिंह दोनों की मौत हो गई। नए राजा चक्रध्वज सिंह ने लाचित को अपना बरफुकान (सेनापति) बनाया। लाचित को पता था कि खुली लड़ाई में उनके लिए मुग़लों के सामने टिकना संभव नहीं होगा। ऐसे में लाचित ने गुरिल्ला लड़ाई शुरू की और मुग़लों को परेशान कर दिया।
साल 1667 तक उन्होंने कई किलों पर भी फिर कब्ज़ा कर लिया, लेकिन एक वक़्त के बाद चक्रध्वज सिंह के दबाव में आकर लाचित को 1669 ईसवीं में मुग़लों पर मैदान में हमला करना पड़ा। अहोम सेना को मुगल घुड़सवार सेना ने बुरी तरह हराया और इस लड़ाई में लाचित भी घायल हो गए। औरंगज़ेब के सेनापति और आमेर के राजा राम सिंह अहोम राजा चक्रध्वज सिंह पर फिर से साल 1639 की स्थिति मानने का दबाव बनाने लगे। इस बीच चक्रध्वज सिंह की भी मौत हो गई और उनके भाई उदयादित्य सिंह राजा बने।
जब लंबे समय के बाद भी बातचीत नाकाम हो गई, तो मार्च 1671 में राम सिंह 40 बड़ी नावों के साथ ब्रह्मपुत्र में गुवाहाटी की तरफ़ बढ़ने लगे। मुग़ल सेना पैदल गुवाहाटी में घुसने से रोकने के लिए लाचित ने किले के एक अहम परकोटे की मरम्मत का काम अपने मामा को सौंपा। कहा जाता है कि मामा ने थकान का बहाना बनाकर काम पूरा नहीं किया, ग़ुस्से में लाचित ने मामा का सिर धड़ से अलग कर दिया।
लड़ाई की शुरुआत में मुग़ल सेना अहोम सेना पर भारी पड़ रही थी। इसे देखते हुए किले में बैठे बीमार लाचित ने खुद सेना की अगुवाई करते हुए सिर्फ़ सात नावों के साथ मुग़ल सेना पर धावा बोल दिया। मुग़ल सेना के लिए बड़ी नावों को मोड़ना मुश्किल था। लाचित की छोटी-छोटी नावों ने उन पर तीन तरफ़ से हमला किया। दिन का अंत होते-होते मुग़लों के तीन बड़े अमीर और 4,000 सैनिक या तो मारे जा चुके थे या घायल थे। यह मुग़लों के लिए बड़ी हार थी, जो उन्हें मैदानों में नहीं एक नदी में मिली।
हार के बाद मिर्ज़ा राजा राम सिंह ने औरंगज़ेब को लिखा, “हर असमी सैनिक नाव चलाने, तीर चलाने, खाई खोदने, और बंदूक-तोप चलाने में माहिर है। मैंने भारत में किसी सेना में ऐसा नहीं देखा। एक ही आदमी सारी सेनाओं का नेतृत्व करता है। मुझे मोर्चे में कहीं भी कोई कमी नहीं दिखाई दी।” सरायघाट की लड़ाई के सिर्फ़ एक साल बाद लाचित की मौत हो गई। दुख इस बात का है कि लाचित जैसे महान योद्धा को वह सम्मान नहीं मिला जिसके वे हक़दार थे।
(मध्यमत)
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