अजय बोकिल
नेता और कवि कुमार विश्वास की जिंदगी में वो वक्त शायद आ गया है, जब उन्हें अपने नाम के आगे से ‘विश्वास’ शब्द हटा देना चाहिए। क्योंकि उनको लेकर विश्वास का संकट न सिर्फ गहराता जा रहा है, बल्कि संज्ञा के रूप में भी उसने महत्ता खो दी है। नेता के रूप में कुमार पर पब्लिक का विश्वास पहले भी कम था, अब उनके प्रति उनकी अपनी आम आदमी पार्टी का विश्वास भी डोल गया है। नतीजा ये कि पार्टी के संयोजक और दिल्ली के मुख्य मंत्री अरविंद केजरीवाल ने कुमार विश्वास को राजस्थान के प्रभारी पद से भी हटा दिया है। उनकी जगह यह जिम्मा किसी अनाम से चेहरे दीपक वाजपेयी को सौंप दिया है।
इस बदलाव के पीछे कुमार और केजरीवाल के रिश्तों में लगातार आ रही खटास को कारण माना जा रहा है। वर्तमान में पार्टी में कुमार की हैसियत महज राजनीतिक सलाहकार समिति के सदस्य की रह गई है। कुमार के लिए यह झटका अप्रत्याशित भले न हो, लेकिन दिल को दुखाने वाला तो रहा है। इसीलिए उन्होंने अपनी पीड़ा एक कविता के जरिए अभिव्यक्त की। यह बात अलग है कि उन्हें कोई हमदर्द नहीं मिला।
देश में ‘नई राजनीति की कसीदाकारी’ करने का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी की किस्मत में जितनी लड़ाइयां बाहरी हैं, उनसे कहीं ज्यादा भीतरी हैं। पार्टी अपनी ही छायाओं से युद्ध करती ज्यादा दीखती है। ऐसे में ‘आप’ की बुनियाद रखने वाले हाथ एक-एक कर टूटते जा रहे हैं। कुमार तो शुरू से ही केजरीवाल के निशाने पर रहे हैं, क्योंकि वो भी सत्ता के प्रमुख दावेदार रहे हैं और इसके लिए उन्हें भाजपा के मैदान में खेलने से भी कभी गुरेज नहीं रहा।
कुमार केजरीवाल से खुला पंगा लेते रहे हैं। इसलिए केजरीवाल ने उन्हें अपना दोस्त शायद ही कभी माना हो। कुमार उन पर हुए हमलों का जवाब कविता में देते हैं लेकिन कविता से कोई जिद्दी नेता नहीं डरता। इस बार भी कुमार की राजस्थान प्रभारी के पद से छुट्टी करते वक्त केजरीवाल ने बड़ा मासूम सा कारण बताया कि कुमार के पास वक्त ही नहीं है। उन्होंने यह साफ नहीं किया कि वक्त क्यों नहीं है? क्योंकि कुमार का दूसरा शगल मंच से कविताएं पढ़ने का है। बाकी टाइम वो राजनीति करते रहते है।
फिलहाल राजस्थान प्रभारी का पद इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि वहां साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और ‘आप’ वहां पूरी ताकत से चुनाव लड़ना चाहती है। वैसे कुमार के साथ यह पहली चोट नहीं है। पिछली बार राज्यसभा चुनाव के दौरान भी पार्टी ने उन्हें अपना उम्मीदवार नहीं बनाया था। यही नहीं कई बार पार्टी के मंचों से उन्हें बोलने भी नहीं दिया गया था।
केजरीवाल का मानना है कि दमदारी से पार्टी को चुनाव लड़वाना कुमार के बस का नहीं है। उधर कुमार के करीबियों का कहना है कि अमानतुल्लाह प्रकरण बेनकाब करने का बदला केजरीवाल ने इस तरह से लिया है। केजरीवाल चाहते तो उन्हें तब भी हटा सकते थे, लेकिन तब उसका विरोध हो सकता था। कुमार की परेशानी यह है कि वे कब नेता होते हैं और कब कवि बन जाते हैं, यह खुद उन्हें भी ठीक से नहीं मालूम होता।
विवादित बयान देना उनकी फितरत है। पिछली बार उन्होंने आरक्षण आंदोलन की आलोचना की थी। तब माना गया था कि वे बाबा साहब आंबेडकर के विरोधी हैं। लेकिन कुमार ने साफ किया कि उनकी पंक्तियां पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह पर कटाक्ष हैं न कि बाबा साहब आंबेडकर पर। विश्वनाथ प्रतापसिंह ने ही सत्ता में बने रहने के लिए पिछड़ा वर्ग का कार्ड खेला और देश की राजनीतिक दिशा ही बदल दी।
प्राध्यापकी छोड़ राजनीति में आए कुमार को अभी भी ऐसे नेता की तलाश है, जो उन पर सही अथों में भरोसा करे। कुमार की हरकतों और राजनीतिक प्रतिबद्धताओं को लेकर शंका का घेरा हमेशा से बना रहता आया है। उनके बयानों में केसरिया रंग और कविताओं में भगवा भाव गाहे-बगाहे झलकता रहता है। लोगों को लगता है कि उनके असली आराध्य कोई और हैं। इसलिए केजरीवाल कुमार को सहयोगी मानकर भी उनपर पूरी तरह विश्वास नहीं करते। क्योंकि वे कब किसका हाथ थाम लेंगे और जाने किस मंच से बधाइयां गाने लगेंगे, कहना मुश्किल है।
कुमार महंगे मंचीय कवि भी हैं। ऐसे में उनके सांस्कृतिक मंच और राजनीतिक मंच की दूरियां खुद ब खुद घटती प्रतीत होती हैं। वो तब भी देश को कविता सुनाने लगते हैं जब देश एक्शन की मांग कर रहा होता है। हालांकि कुमार खुद को कवि ही मानते हैं। प्रभारी पद से बेदखल किए जाने के बाद उन्होंने काव्यात्मक विरोध ही जताया। कुमार खुद को उस ‘शब्द वंश का हरकारा’ बताते हैं, जिनकी सच बोलने की परंपरा रही है। वे स्वयं को कबीर की पीढ़ी की उस रवायत का मानते हैं, जो बाबर-अकबर से भी नहीं डरी। खुद अपनी नजर में कुमार ‘पूजा का दीप’ हैं।
केजरीवाल की शतरंजी चाल से आहत कुमार ने लिखा- ‘’पूजा का दीप नहीं डरता, इन षड्यंत्री आभाओं से/वाणी का मोल नहीं चुकता, अनुदानित राज्य सभाओं से, जिसके विरुद्ध था युद्ध उसे, हथियार बना कर क्या पाया? जो शिलालेख बनता उसको, अख़बार बना कर क्या पाया?’’ यानी अपनी ही नजर में कुमार ऐसा शिलालेख हैं, जिनको षड्यंत्रपूर्वक अखबार में तब्दील कर दिया गया है। यह बात दूसरी है कि आज भी अखबारों की विश्वसनीयता कुमार विश्वास की तुलना में ज्यादा है।
एक राजनीतिक भ्रम यह भी रहा है कि कुमार की राजनीतिक आस्था केजरीवाल में कम, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी में कई गुना ज्यादा रही है। लेकिन खुद मोदी की पार्टी भाजपा भी कुमार विश्वास पर ज्यादा भरोसा नहीं करती। ऐसे में सवाल सिर्फ इतना है कि कुमार पर विश्वास किसको है? इससे भी बड़ा सवाल यह कि क्या कुमार को खुद पर भी उतना विश्वास रह गया है, जितना पहले था। अगर संकट चौतरफा है तो विश्वास के धागे कहां उलझे हैं? और फिर विश्वास ही ध्वस्त हो गया है तो ‘कुमार’ ‘विश्वास’ क्यों बने हुए हैं? विश्वास का यह संकट दरअसल कवि और नेता को एक साथ जीने का संकट भी है। कविताओं में अपने राजनीतिक अंगद होने की दुहाइयां सुनने में भली लगती हों, लेकिन सियासी शतरंज पर उनका कोई मोल नहीं है।
( ‘सुबह सवेरे’ से साभार)