इक सिर्फ हमीं सुर को रूह से सजाते हैं…

बहुत पुरानी बात है, मैं एमए हिन्‍दी की पढ़ाई कर रहा था। एक दिन पता नहीं कौनसा प्रसंग आया कि हमारे विभागाध्‍यक्ष डॉ. जयकुमार जलज ने गीतिकाव्‍य का विषय छेड़ दिया। जलज जी वैसे तो हमें भाषा विज्ञान और प्राचीन काव्‍य पढ़ाया करते थे, लेकिन उस दिन क्‍या प्रसंग था, यह तो मुझे ठीक ठीक याद नहीं, पर उन्‍होंने कविता और उसकी गेयता पर जो कहा था उसकी धुंधली सी स्‍मृति मेरे मानस पटल पर आज भी दर्ज है। उनका कहना था की गेयता या गीतात्‍मकता किसी भी कविता को अधिक ग्राह्य बना देती है।

उदाहरण देते हुए वे बोले थे- यदि आपको इस बात का अनुभव करना हो तो आप हिन्‍दी फिल्‍म के किसी गाने को उठा लीजिए। जो गाना आप बहुत आसानी से गा या गुनगुना लेते हैं वही गाना यदि मूल रूप में लिखा हुआ आपको बिना संगीत रचना के पढ़ने को मिल जाए तो हो सकता है आप कहें- ये क्‍या लिखा है? हो सकता है वह गीत या कविता आपको बिलकुल प्रभावित न करे, लेकिन जब वही पूरे संगीत और गेयात्‍मकता के साथ आपके सामने आती है तो आप उसमें डूब जाते हैं।

उस समय इंटरनेट नहीं था, मैंने जलजजी के कहे पर प्रयोग करते हुए कई हिन्‍दी गानों को सुनकर उनके शब्‍द कॉपी में लिखे और उन्‍हें सामान्‍य तौर पर पढ़ा। उस समय दो बातें हुईं। एक तो यह कि उस कविता या गीत के शब्‍दों को मानस में बैठे गीत की धुन से अलग करके पढ़ पाना लगभग नामुमकिन सा था। जैसे ही उसे पढ़ने की कोशिश करता वे शब्‍द पूरी ताकत से उसी सुर और ताल की कतार में सजकर खड़े हो जाते जिसमें उन्‍हें उस फिल्‍मी गीत के रूप में सजाया जा चुका था। फिर भी बलपूर्वक जब उन शब्‍दों को सामान्‍य तौर पर पढ़ने या संगीत से अलग करके पढ़ने की कोशिश की तो वही गाना, जिसको लेकर दीवानगी थी, इतना फीका लगने लगा कि पूछिये मत…

यह प्रसंग आज इतने सालों बाद दिवंगत महान संगीतकार खय्याम जी को लेकर याद आया। खय्याम यानी मोहम्‍मद जहूर खय्याम हाशमी। अब जो बात मैंने पहले कही जरा उसे याद करते हुए सोचिए, यदि आप यूं ही मोहम्‍मद जहूर खय्याम हाशमी नाम का कहीं जिक्र कर दें तो शायद लोग सुनकर भी अनसुना कर देंगे। लेकिन जैसे ही आप कहें कभी कभी, उमराव जान, बाजार, नूरी, थोड़ी सी बेवफाई और रजिया सुलतान वाले खय्याम तो शायद आपकी आंखों में इन फिल्‍मों के गाने तैर जाएं। और जैसे ही आप इन आंखों की मस्‍ती के मस्‍ताने हजारों हैं का जिक्र छेड़ दें तो हो सकता है सामने वाला उसी समय इस गाने को गुनगुनाने भी लगे।

क्‍या संयोग है कि हिन्‍दी फिल्‍मों के दो महान संगीतकारों का सेना और युद्ध से रिश्‍ता रहा है। इनमें से एक थे स्‍वर्गीय मदनमोहन और दूसरे थे खैय्याम। जिस तरह मदनमोहन सेना की नौकरी छोड़कर संगीत की दीवानगी के चलते सुरों की दुनिया में रम गए थे, उसी तरह कुछ समय सेना में काम करने के बाद खैय्याम को भी गोली की नहीं बोली और सुरों की दुनिया ही रास आई। ये दोनों अमर संगीतकार दूसरे विश्‍वयुद्ध के समय सेना में थे और यह अपने आप में बहुत गहरे अध्‍ययन और विश्‍लेषण का विषय है कि तमाम सुरों को खत्‍म कर देने वाली युद्ध की दुनिया से आए इन दोनों महान संगीतकारों ने वहां आखिर ऐसा क्‍या अनुभव किया होगा कि उन्‍होंने सुरों से जीवन देने वाली नई दुनिया ही रच डाली।

खय्याम साहब के इंतकाल के बाद प्रसिद्ध शायर और गीतकार जावेद अख्‍तर ने कहा- ‘’वे काफी कमजोर और बूढ़े हो गए थे, और अब बॉलीवुड को भी वैसा म्‍यूजिक नहीं चाहिए जैसा वो देते थे… अब अलग दौर है। वे हमेशा अच्‍छे गीतकारों के साथ काम करना पसंद करते थे, उनके शब्‍दों की इज्‍जत करते थे… उनकी धुन में शब्‍द कुचलते नहीं थे खिलते थे।‘’

और शायद यही बात खय्याम जैसे संगीतकारों को दूसरों से अलग और अमर बनाती है। हिन्‍दी फिल्‍म जगत में यह विवाद बहुत पुराना रहा है कि किसी भी गाने की लोकप्रियता के पीछे श्रेय किसको दिया जाना चाहिए। गीतकार को, संगीतकार को या फिर उसके गायक को। जावेद अख्‍तर ने ठीक ही कहा, खय्याम साहब ने इस विवाद से अलग रहते हुए गीतों की रचना की। उन्‍होंने अच्‍छे शब्‍द चुने, अच्‍छे सुर चुने और अच्‍छा संगीत रचा। यही वजह है कि उनके रचे 50 साल पुराने गाने भी यदि आज आप सुनें, बशर्ते आप में ऐसे गाने सुनने और समझने का शऊर हो, तो आपको वे ऐसी दुनिया में ले जाएंगे, जहां से वापस इस दुनिया में लौटने में आपको बहुत मुश्किल होगी।

यकीन न आए तो उनके पुराने गानों को सुनकर देख लीजिए। चूंकि आज की पीढ़ी ने खय्याम को कभी कभी, उमराव जान आदि से ही जाना है, लेकिन जिन लोगों ने खय्याम को सुना है वे उन्‍हें- जाने क्‍या ढूंढती हैं ये आंखें मुझमें (रफी), वो सुबह कभी तो आएगी (मुकेश), आसमां पे है खुदा और जमीं पे हम (मुकेश), शामे गम की कसम, आज तनहा हैं हम (तलत महमूहद), बहारों मेरा जीवन भी संवारो (लता), तुम अपना रंजो गम, अपनी निगहबानी मुझे दे दो (जगजीत कौर) जैसे दर्जनों गीतों में हमेशा याद करते और गुनगुनाते रहेंगे। आज जब बॉलीवुड के गाने गीत से रैप पर आ गए हैं, तब उस संगीतकार को याद करना बहुत सुकून देता है जिसने हमेशा गुनगुनाए जा सकने वाला संगीत रचा।

आज खय्याम साहब को याद करने का मकसद सिर्फ उनके काम को या उनके द्वारा संगीत से सजाई गई फिल्‍मों को याद करने का नहीं, बल्कि उस पीढ़ी को और उस संगीत को याद करने का है, जिसने जिस्‍म का नहीं रूह का संगीत दिया। उमराव जान का जो गाना- इन आंखों की मस्‍ती के… खय्याम साहब की पहचान बन चुका है, उसी गाने के बोल हैं- इक सिर्फ हमीं मय को आंखों से पिलाते हैं, कहने को तो दुनिया में मयखाने हजारों हैं। लेकिन सच पूछिये तो खय्याम साहब के संगीत को लेकर आप सौ टका यही बात कुछ यूं कह सकते हैं- इक सिर्फ हमीं सुर को रूह से सजाते हैं, कहने को तो दुनिया में मौसिकार हजारों हैं।

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