कर्नाटक: सत्ता की चाह में लोकतंत्र के मूल्‍यों की कुर्बानी

उमेश त्रिवेदी

कर्नाटक में त्रिशंकु विधानसभा के नतीजों के बाद सरकार बनाने के मामले में भाजपा बहुमत के जादुई आंकड़ो से मात्र छह-सात कदम दूर खडी है, जबकि कांग्रेस ने जनता दल (सेक्युलर) के साथ राजनीतिक गांठ बांध कर सत्ता की मधुर चांदनी में बहारों की रंगरेलियां मनाने के मंसूबो में मग्न हैं। दूसरी ओर बजरिए दिल्ली बेंगलुरू के राजभवन में कांग्रेस और जनता दल (सेक्युलर) की खुशफहमियों को ध्वस्त करने के लिए भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के मास्टर-प्लान पर अमल शुरू हो गया है।

गोवा, मणिपुर और मेघालय के बाद अब कर्नाटक में सत्ता के भेड़िया-घाट पर लोकतांत्रिक-मूल्यों और परम्पराओं की मासूम भेड़ें हलाल होने के लिए फिर कतारबध्द हैं। समीक्षकों के लिए समझना मुश्किल है कि वो लोकतंत्र के किन मूल्यों की बात करें, किसका समर्थन करें और किसका विरोध करें, क्योंकि सबके हाथ खून मे सने हैं? फर्क इतना है कि कांग्रेस के हाथों में लगा खून सूख चुका है और भाजपा के दामन पर लगे खून के दाग ताजे हैं।

हर मुद्दे पर कांग्रेस को कठघरे में खड़ा करने वाली भाजपा मानने को तैयार नहीं है कि उसके हाथों भी लोकतंत्र और संसदीय परम्पराएं आहत हो रही हैं। वह मानती है कि 2014 में प्रधानमंत्री मोदी को मिले जनादेश ने उसे कांग्रेस-राज के सारे कुकर्मों को दोहराने का अधिकार-पत्र भी दिया था। इसीलिए भाजपा को वह सब करने का अख्तियार है, जिसके लिए वह कांग्रेस को कोसती थी।

टीवी स्क्रीन की बहसों में लोकतंत्र और संविधान से जुड़े सवाल और मुद्दे बुझ चुके हैं। इन्हें पूछने और बूझने वाले लोग उपहास के पात्र माने जाते हैं। भाजपा और कांग्रेस के प्रवक्ता खम ठोक कर कहते हैं कि सत्ता के खेल में नैतिकता के तकाजे कोई मायने नहीं रखते। कर्नाटक में भाजपा ने कांग्रेस और जनता दल (सेक्युलर) के गठजोड़ का बहुमत नकारते हुए गोवा, मणिपुर और मेघालय की तरह सत्ता की हेराफेरी खेल शुरू कर दिया है।

सत्ता के खेल में मुसीबत यह है कि कर्नाटक में भाजपा की इस राजनीति को कैसे पढ़ा और समझा जाए अथवा सराहा जाए? कर्नाटक में भाजपा की रणनीति बदली हुई है। अब वह राज्यपाल के नाम पर अपने मोहरे चल रही है कि सबसे बड़े दल को आमंत्रित करना राज्यपाल का विवेकाधिकार है। जबकि गोवा, मणिपुर और मेघालय के राज्यपालों ने सबसे बड़े गठबंधन के नाते पहले भाजपा को सरकार बनाने का मौका दिया था, हालांकि इन तीनों राज्यों में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी।

राज्यपालों ने बड़ी पार्टी होने के दावों को नजरअंदाज करके भाजपा के गठबंधन को प्राथमिकता दी थी। कर्नाटक में इसी आधार पर कांग्रेस और जनता दल (सेक्युलर) चाहते हैं कि राज्यपाल उन्हें सरकार बनाने का अवसर दें, लेकिन 104 सीटों पर विजयी भाजपा का कहना है कि सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते उसे ही सरकार बनाने के लिए न्यौता मिलना चाहिए। इस पहल के बाद यह सवाल उभर रहा है कि कर्नाटक में जो भाजपा चाहती है, उस पर गोवा, मणिपुर और मेघालय में अमल क्यों नहीं किया गया?

चालीस सीटों वाली गोवा विधानसभा में 17 विधायकों के साथ कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। भाजपा को 13 सीटें मिली थीं। गोवा में भाजपा के मुख्यमंत्री और दो मंत्री भी चुनाव हार गए थे। यहां भाजपा ने हार्स-ट्रेडिंग के जरिए कांग्रेस के दो विधायकों का इस्तीफा दिलवा कर बहुमत के आंकड़े को हासिल किया था। मणिपुर की 60 सीटों में से कांग्रेस 28 सीटों पर जीती थी। बहुमत से तीन कदम दूर कांग्रेस को राज्यपाल ने दरकिनार करते हुए 21 सीटें जीतने वाली भाजपा के गठबंधन को सत्ता सौंप दी थी। बाद में कांग्रेस के आठ विधायक इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हो गए थे। मेघालय में तो मात्र दो सीटें जीतने वाली भाजपा 21 सीटों पर विजयी कांग्रेस पर भारी पड़ी थी।

सत्ता की चाह में जो कुछ घट रहा है, वह लोकतंत्र की उस बेबसी को बयां कर रहा है, जहां वोट देने के बाद जनता के हाथों में कुछ नहीं रहता है। राजनीतिक ज्वार-भाटों के बाद लोकतंत्र के टूटे किनारों पर बेबस भटकना ही शायद आम आदमी की नियति है। समाज में भी कोई यह सुनने-समझने के लिए तैयार नहीं है कि देश की दिशाएं अंधेरे कोनों की ओर अग्रसर हैं। राजनीति के फलक ज्यादा स्याह और कुरूप होते जा रहे हैं।

(सुबह सवेरे से साभार)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here