अजय बोकिल
देश की राजधानी दिल्ली के बाहरी इलाके में नए साल की रात स्कूटी पर घर लौटती एक युवती को नशे में चूर युवकों की कार में घसीट कर जिस रोंगटे खड़े कर देने वाले ढंग से मौत का मामला उजागर हुआ है, वह दरअसल समूची इंसानियत की ही बेशर्म हत्या है। इस मामले में दिल्ली पुलिस की अब तक की कहानी पर भरोसा करना उतना ही कठिन है, जितना कि यह मान लेना कि ये दुनिया अपने आप से चल रही है।
इस प्रकरण में पूरा घटनाक्रम इस बात को काले अक्षरों में रेखांकित करता है कि क्रूरता, नृशंसता और पैशाचिकता में हम दस साल पहले दिल्ली में हुए निर्भया प्रकरण की तुलना में मीलों आगे बढ़ गए हैं और मनुष्यता के पैमाने पर मीलों नीचे गिर गए हैं। इस बात पर भरोसा कैसे करें कि एक कार में एक युवती मय स्कूटी के फंसी और उस कार में सवार नशे में डूबे पांच उच्छृंखल युवा उसकी लाश को 15 किमी तक घसीटते रहें।
उस युवती का शरीर तार-तार हो जाए, वो युवती बचाने के लिए ठीक से चीख भी न सके और चीखी भी हो तो दिल्ली में किसी ने वो चीख न सुनी हो, सरेआम सड़क पर घिस-घिस कर उसका निर्वस्त्र जिस्म टुकड़े टुकड़े बिखरता किसी ने न देखा हो। एक-दो संवेदनशील राहगीरों ने इस भयानक ‘मोबाइल मर्डर’ की सूचना पुलिस को दी तो पुलिस ने भी उन नराधमों को पकड़ने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। वो तो थर्टी फर्स्ट की रात सेलिब्रेशन में जुटे लोगों की निगरानी में व्यस्त थी।
यानी जो हुआ, वो सोचकर भी रोंगटे खड़े कर देता है। उससे भी ज्यादा क्षुब्ध करने वाली दिल्ली पुलिस की यह थ्योरी कि मामला शराब पीकर गाड़ी चलाने और महज एक हादसे का है। दरअसल नए साल की रात दिल्ली की सड़कों पर जो हुआ, वो उस आफताब द्वारा लिव इन में रहने वाली अपनी प्रेमिका की हत्याकर 35 टुकड़े कर जंगल में सुकून के साथ फेंकने, एक पत्नी द्वारा अपने बेटे के साथ मिलकर पति की हत्याकर टुकड़े फ्रीज में रखने, एक नाबालिग बेटी द्वारा अपने प्रेमी के साथ मिलकर अपनी ही मां की तकिए से मुंह दबाकर हत्या करने तथा इसका कोई अफसोस भी न होने, एक उदीयमान युवा अभिनेत्री द्वारा सेट पर ही फांसी लगा लेने या फिर काल्पनिक स्वर्ग में जाने के लिए एक परिवार के एक दर्जन सदस्यों द्वारा शांति के साथ खुदकुशी कर लेने से भी भयानक और समूचे समाज के जमीर को झिंझोड़ने वाला है।
क्योंकि कांझीवला मामले में जो हुआ है, उसमें कोई निजी खुन्नस, दुराग्रह, प्रतिशोध या राक्षसी सोच भले न थी लेकिन उससे भी कहीं ज्यादा भयावह और चिंताजनक वो अमानवीयता, बेपरवाही तथा आत्मकेन्द्रिकता थी, जहां मनुष्य सिर्फ और सिर्फ अपने सुख, स्वार्थ और भोग के बारे में सोचता है, उसे सर्वोपरि मानता है। बाकी उसे किसी से कोई मतलब नहीं। इतने खुदगर्ज तो शायद पशु भी नहीं होते।
राजनीतिक पार्टियां इस वीभत्स हादसे पर भी राजनीति भले कर लें, लेकिन इस सवाल का जवाब तो पूरे समाज को, हमारी संस्कृति को और सभ्यता को देना होगा कि आखिर हम जी किस समय में रहे हैं? तकनीकी तौर पर यह केस संभव है कि सिर्फ हादसे का साबित हो, क्योंकि शराब पीकर कार चलाते हुए उन्होंने घर लौटती युवती को टक्कर मार दी। टक्कर मारने के बाद दारू के नशे में मदहोश कार में सवार युवाओं ने एक क्षण के लिए भी यह न सोचा कि कम से कम गाड़ी की रफ्तार धीमी कर यह तो देख लें कि गाड़ी किससे और कैसे टकराई है।
कई बार एक थप्पड़ भी नशा उतार देता है, यहां तो सीधे-सीधे एक गाड़ी दूसरे को कुचल रही थी। लेकिन उन संवेदनहीन युवाओं ने ऐसा कुछ करना तो दूर नए साल की मदहोशी में कार को घुमाना जारी रखा, मानो कुछ हुआ ही नहीं। इक्का दुक्का राहगीरों ने उन्हें रोकने की कोशिश भी की, लेकिन वो युवा मदमस्त अपने में ही व्यस्त थे। कोई मरे, कोई जीए, इससे उन्हें क्या। जिसने अपनी जान इतने वीभत्स तरीके से गंवाई, उसका दोष केवल इतना था कि वो बीते साल की आखिरी रात में अकेले यह सोच कर लौट रही थी कि आने वाले साल की सुबह उसकी जिंदगी में शायद कोई नया सपना या संदेशा लेकर आएगी।
इस मामले में कानूनी तौर पर क्या होगा, कैसे होगा, यह आगे की बात है। पर इस कांड ने देश तो क्या दुनिया को भी झकझोर दिया है। यह सवाल फिर उछाल दिया है कि एक मनुष्य इतना बेरहम और बेपरवाह कैसे हो सकता है? इस बात की पूरी संभावना है कि नशे में चूर युवकों को युवती की मौत की बात पता चल गई हो तो उन्होंने उसे पूरी तरह मिटाने की सोच ली हो। युवती की जान जाने से ज्यादा उन्हें अपनी जान बचाने की ज्यादा चिंता थी।
ऐसा नहीं कि क्रूरता की मिसालें पहले नहीं थीं। लेकिन उनके पीछे कभी वैचारिक तो कभी निजी कारणों से प्रतिशोध अथवा अवसाद का तत्व ज्यादा काम करता रहा है। लेकिन कंझावाला में विशुद्ध निर्ममता और संवेदनहीनता थी। ऐसी संवेदनहीनता जो मानवीयता को ही खारिज करती है। दुर्भाग्य से समूची दुनिया में मनुष्य को जानवर से भी ज्यादा क्रूर प्राणी बनाने में आज इंटरनेट का बड़ा हाथ है।
आफताब ने अपनी प्रेमिका के टुकड़े-टुकड़े कर सुकून के साथ जंगल में फेंकने और घर में खून के धब्बे मिटाने के तरीके गूगल से सीखे थे। आज इंटरनेट पर देखकर उस उम्र के बच्चे भी सफाई से फांसी लगाकर जान गंवा रहे है, जिस उम्र में कभी लोगों को फांसी शब्द का सही-सही मतलब भी मालूम नहीं होता था, उसे लगाना तो बहुत दूरी की बात है। थोड़ी भी मनमर्जी के खिलाफ बात होने पर लोग उस तरह खुदकुशी कर रहे हैं, मानो आत्महत्या न हुई, रोजमर्रा की सब्जी काटना हो गया।
ऐसा लगता है कि इंटरनेट हमारे ज्ञान की सीमाएं उस हद तक बढ़ा रहा है, जहां दरअसल कंटीले तारों की बाड़ होनी चाहिए थी। नेट ने दुनिया को करीब ला दिया है, लेकिन मनुष्यता के मूल तत्व को दफनाने में भी कसर नहीं छोड़ी है। वरना कोई कारण नहीं था कि दिल्ली की सर्द रात में एक भी शख्स किसी तरह उस मीलों घिसटती जा रही युवती की देह में प्राण ज्योत बचा पाता।
विडंबना तो यह है कि यह हादसा उस रात घटा, जब दिल्ली तो क्या लगभग पूरे देश की पुलिस अलर्ट पर थी। कैसे थी, यह इस हादसे ने बेनकाब कर दिया है। पुलिस कह रही है कि जो हुआ, वह सेक्सुअल असॉल्ट (यौनिक हमला) या सुविचारित मर्डर नहीं है। मान लिया, लेकिन जो हुआ है, वह इन अपराधों से भी ज्यादा भयानक और संवेदनाओं को सुन्न करने वाला है। कहीं ऐसा तो नहीं कि आपराधिक मानसिकता ने अब हत्या का एक बिल्कुल नया तरीका ईजाद किया हो, जिसे अदालत में इरादतन हत्या साबित करना भी मुश्किल हो।
आरोपियों के मुताबिक कार में तेज संगीत बजाने के कारण वह मृतका की चीख नहीं सुन सके। ऐसा संगीत भी किस काम का? तो क्या हमारी युवा पीढ़ी के लिए संगीत भी मौत का नया नुस्खा है, जिसकी आड़ में कुछ भी किया सकता है?
(मध्यमत)
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता, सटीकता व तथ्यात्मकता के लिए लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए मध्यमत किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है। यदि लेख पर आपके कोई विचार हों या आपको आपत्ति हो तो हमें जरूर लिखें।-संपादक