अजय बोकिल
मध्यप्रदेश में कुछ अपवादों को छोड़ दें तो मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल की ‘शिशु मृत्यु दर’ पार्टी की अंतर्कलह ही तय करती आई है। इसका नवीनतम उदाहरण कमलनाथ हैं, जिनकी राजनीतिक बलि ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत ने ले ली। मध्यप्रदेश के 63 साल के इतिहास में चार मुख्यमंत्री ही ऐसे हुए हैं, जिन्होंने पार्टी के भीतरी असंतोष को ‘मैनेज’ करते हुए अपनी कुर्सी सतत पांच साल या उससे ज्यादा बचाए रखी। इनमें भी शिवराजसिंह चौहान और दिग्विजय सिंह ऐसे मुख्यमंत्री रहे हैं, जिन्होंने क्रमश: 13 और 10 साल का कार्यकाल आंतरिक असंतोष की लहरों को थामते हुए पूरा किया। वरना मध्य प्रदेश में अब तक हुए 31 ( इनमें से कुछ दो या उससे ज्यादा बार भी सीएम रहे) मुख्यमंत्रियों में से 27 तो 12 दिन से लेकर पौने 3 साल तक ही इस कुर्सी पर रह पाए। अधिकांश को पार्टी के भीतरी झगड़ों और गुटबाजी के कारण मझधार में ही मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पडी।
निश्चय ही मुख्यमंत्रियों को मिले इस ‘अभिशाप’ की प्रतीति इस बार कमलनाथ को हुई है। कांग्रेस में अंतर्कलह कोई नई बात नहीं है। केवल उसका स्वरूप और तेवर बदलता रहा है। जैसे ही कोई मुख्यमंत्री के तख्त पर विराजमान होता है, प्रतिद्वंद्वी नेता अथवा गुट उसके पैरों के नीचे से जाजम खींचने के लिए तैयार रहते हैं। वैसे मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री के रूप पांच साल पूरा करने वाले पहले कांग्रेसी मुख्यमंत्री कैलाशनाथ काटजू थे। वे दिल्ली से भेजे गए पहले सीएम भी थे। उनके नाम एक अनोखा रिकॉर्ड यह है कि वे अपना विधानसभा चुनाव मुख्यमंत्री रहते हुए भी हार गए थे। उन्हें कांग्रेस की आंतरिक गुटबंदी ने ही निपटाया था।
काटजू के बाद निमाड़ क्षेत्र के बड़े नेता भगंवत राव मंडलोई को मुख्यमंत्री बनाया गया। मंडलोई पहली बार 1 माह और दूसरी बार 6 माह तक सीएम रह सके। उन्हें कामराज योजना के तहत इस्तीफा देना पड़ा। कामराज योजना भी दरअसल कांग्रेस में पुरानी और नई पीढ़ी के सत्ता संघर्ष का परिणाम थी। मंडलोई के बाद कांग्रेस के ही एक और दिग्गज नेता डी.पी.मिश्रा सीएम बने। वो पहले कार्यकाल में साढ़े तीन साल पूरे कर पाए और दूसरे कार्यकाल में 4 माह ही पद पर रह पाए।
मजे की बात यह है कि डीपी मिश्रा को इंदिरा गांधी कांग्रेस की आंतरिक गुटबंदी खत्म करने के लिए लाई थीं। लेकिन मिश्रा खुद इस ‘अभिशाप’ का शिकार हो गए। उन्हें कांग्रेस के ही एक और नेता गोविंद नारायण सिंह ने बगावत कर सत्ता से हटाया और खुद सीएम बन गए। हालांकि गो.ना.सिंह स्वयं भी इस पद पर पौने दो साल ही टिक सके। वैसे बतौर मुख्यमंत्री न्यूनतम कार्यकाल अर्जुनसिंह का रहा, उन्होंने 5 साल का पहला कार्यकाल पूरा किया था। लेकिन दूसरे कार्यकाल में वो इस पद पर 24 घंटे ही रह सके थे। उन्हें अप्रत्याशित रूप से सीएम पद छोड़ना पड़ा था।
कालावधि के हिसाब से मुख्यमंत्री के रूप में दूसरा न्यूनतम कार्यकाल राजा नरेशचंद्र सिंह का रहा। वे मात्र 12 दिन के सीएम रहे। कांग्रेस की अंतर्कलह के चलते सिंह के बाद श्यामाचरण शुक्ल यूं तो 3 बार मप्र के सीएम रहे, लेकिन पांच साल एक बार भी पूरे नहीं कर सके। कमोबेश यही हाल सीएम के रूप में पीसी सेठी और मोतीलाल वोरा का भी रहा।
पार्टी की अंतर्कलह ने केवल कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों को ही टारगेट किया हो, ऐसा नहीं है। भाजपा की तस्वीर भी बहुत अलग नहीं है। 1977 में जब जनता पार्टी (जनसंघ इसी में शामिल थी) की सरकार बनी थी तो कैलाश जोशी समाजवादियों के सपोर्ट के कारण सीएम बन पाए थे। मप्र भाजपा के पितृपुरुष कहे जाने वाले कुशाभाऊ ठाकरे तब वीरेन्द्र कुमार सखलेचा को मुख्यमंत्री देखना चाहते थे। इस खींचतान के चलते कैलाश जोशी मात्र 7 माह सीएम रह पाए और कथित अज्ञात बीमारी के चलते उन्हें पद छोड़ना पड़ा।
कैलाश जोशी की जगह सखलेचा मुख्यमंत्री बने। पर वो भी पार्टी की भीतरी कलह का शिकार होकर 2 साल बाद चलते बने। उनका स्थान लिया पार्टी के प्रतिद्ंद्वी गुट के नेता सुंदरलाल पटवा ने। पटवाजी भी पहली बार 1 माह और दूसरी बार पौने 3 साल ही कुर्सी पर रह सके। पटवा एकमात्र ऐसे सीएम रहे, जिनकी सरकार दो बार अलग-अलग कारणों से बर्खास्त हुई। एक दशक बाद भाजपा में अंतर्कलह का यह खेल पहले मुख्यमंत्री उमा भारती और बाद में बाबूलाल गौर के साथ हुआ। दोनों को क्रमश: 7 माह और सवा साल बाद कुर्सी छोड़नी पड़ी। फर्क इतना है कि भाजपा की कलह आमतौर पर कांग्रेस की तरह चौराहे पर नहीं आती।
कांग्रेस में नेताओं की अदम्य महत्वाकांक्षा और सत्ता की चाहत में किसी भी हद तक जाने की प्रवृत्ति का नया एपीसोड कमलनाथ सरकार का है। कमलनाथ पूरी हसरतों के साथ एक लंगड़ी सरकार के मुख्यमंत्री बने थे। वो अपने साथ अपनी कार्यशैली और विजन लेकर आए थे। कमलनाथ के पास केन्द्र सरकार में 16 साल मंत्री रहने का विशद अनुभव भी था। लेकिन जिस प्रदेश की तस्वीर संवारने की तमन्ना उनके मन में थी, उस प्रदेश की सियासी तासीर और प्रदेश कांग्रेस की भीतरी राजनीति ने कमलनाथ की हसरतों को मात्र 15 माह में समेट दिया।
कमलनाथ और अन्य नेताओं का ‘मैनेजमेंट’ इस अर्थ में फेल रहा कि वो ज्योतिरादित्य सिंधिया के इस हद तक चले जाने का पूर्वानुमान नहीं लगा सके। अनुमान लगा भी होगा तो वो शायद यह मानने को तैयार नहीं थे कि सत्ता में भागीदारी की महत्वाकांक्षा सिंधिया को धुर विरोधी खेमे में ले जाएगी। आज सत्ता गंवाने की इस घड़ी में कमलनाथ की जिन खामियों को चुन-चुन कर गिनाया जा रहा है, उनमें संवादहीनता और अपनी ही धुन में काम करते जाना प्रमुख है। यकीनन कमलनाथ का फीड बैक सिस्टम और परामर्श प्रणाली बेहद कमजोर और व्यक्ति निर्भर ज्यादा थी। ऐसे में जमीन के नीचे घुमड़ता अंसतोष कब धमाके में बदल गया और समय रहते इसके समुचित इलाज का अवसर भी उन्होंने कब गंवा दिया, समझ ही नहीं आया।
शुक्रवार को जब कमलनाथ ने मीडिया के समक्ष अपने इस्तीफे का ऐलान किया तो उनके चेहरे की मुस्कुराहट में छिपा खालीपन साफ महसूस किया जा सकता था। यह युद्ध जीतने से पहले ही अपना झंडा उतारने की विवशता थी। हालांकि कमलनाथ ने मुख्यमंत्री के रूप में अपने अंतिम वक्तव्य में भाजपा पर उन्हें काम न करने देने जैसे आरोप जड़े। लेकिन कमलनाथ की असली पीड़ा ‘महाराज’ के कथित विश्वासघात को लेकर थी। उन्होंने सीधा नाम न लेते हुए तल्ख कटाक्ष किया कि ‘‘एक तथाकथित, जनता द्वारा नकारे गए, महत्वाकांक्षी, सत्तालोलुप ‘महाराज’ और उनके द्वारा प्रोत्साहित 22 लोभियों के साथ मिलकर भाजपा ने खेल रच लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या की, जिसकी सच्चाई थोड़े ही समय बाद सभी के सामने आएगी। प्रदेश की जनता के साथ धोखा करने वाले इन लोभियों व बागियों को जनता कभी माफ नहीं करेगी।‘’
कमलनाथ के इस लिखित बयान में ही पार्टी की भीतरी कलह की तीव्रता और कड़वाहट को पढ़ा जा सकता है। उन्होंने सिंधिया के प्रतिपक्ष से गले मिलने को दुरभिसंधि माना। हालांकि इस विदाई वक्तव्य में भी कमलनाथ ने मध्यप्रदेश की तस्वीर बदलने का दम फिर दिखाया और कहा कि अगर वे यह तस्वीर बदल पाए तो भाजपा का नामोनिशान भी मिट जाएगा।
राजनेताओं की खूबी होती है कि वे निजी विफलताओं को भी जनता के साथ धोखा बताने में कोताही नहीं करते। वो भूल जाते हैं कि जनता केवल जनादेश देती है। लेकिन उस जनादेश की आंच पर नेता अपनी महत्वाकांक्षाओं की खिचड़ी कैसे, क्यों और कितनी पकाते हैं, यह तय करने में जनता की कोई भूमिका नहीं होती। वह बेचारी तो हतप्रभ होकर सारा खेल देखती रहती है और वक्त आने पर चुनाव में इसका हिसाब करती है। मध्यप्रदेश जैसे राजनीतिक स्थिरता वाले राज्य में जनता अपना जनादेश पांच साल के लिए देती रही है। लेकिन इस जनादेश की व्याख्या राजनेता अपने तरीके, सुविधा और आकांक्षाओं के रैपर में करते हैं।
15 साल के ‘वनवास’ के बाद सत्ता के उपवन में लौटी कांग्रेस जनता के इस ‘प्रसाद’ को भी पचा नहीं पाई। पब्लिक ने 15 महीनों में ही सत्ता की रेवड़ी के लिए पार्टी के भीतर वर्चस्व की जो खींचतान, गुटीय कशमकश, असहनीय अनिर्णयता और चंद हाथों में सत्ता का गंगाजल समेटने की प्रवृत्ति देखी, उससे संदेश यही गया कि मिली सत्ता को धारण करने के लिए भी पार्टी में कोई नीलकंठ चाहिए। मगर कमलनाथ कोई-सा कंठ ठीक से नहीं साध पाए। जबकि मुख्यमंत्री की कुर्सी धरती और आकाश के बीच संतुलन साधने की कला की मांग करती है। जो मुख्यमंत्री इस कला में कच्चा रह जाता है, उसके लिए पांच साल भी सपना बन जाते हैं। कमलनाथ ने अपने विदाई वक्तव्य में कहा कि उन्हें भाजपा से नहीं जनता से प्रमाण पत्र चाहिए। लेकिन क्या जनता अपने जनादेश की एफडी इस तरह पांच साल से पहले ही तोड़े जाने से खुश होगी, उसे खुश होना भी क्यों चाहिए?