भारतीय संवाद परंपरा के प्रखर संवाहक-कबीर

डॉ. आशीष द्विवेदी

भारत में संवाद और विमर्श की एक समृद्ध परंपरा रही है। हमारी संस्कृति में संवाद के न जाने कितने सूत्र भरे पड़े हैं। अपनी अभिव्यक्ति को किस तरह प्रभावपूर्ण अंदाज में प्रस्तुत करना है, इसके एक-दो नहीं सैकड़ों प्रसंग हैं। एक से बढ़कर एक संचारक भारतीय संस्कृति में नजर आते हैं। लेकिन कबीर उन सब में विरले हैं। बड़ी से बड़ी बात को किस सहजता, सरलता और तरलता से कहना है, कबीर इसमें पारंगत हैं। उनका संवाद पहाड़ी झरने जैसा निर्झर है, वह नदियों की तरह मर्यादित नहीं कि तटबंधों में सिमटा रहे। वह तो अपनी मर्जी से जहां मन करता है, जैसा मन करता है, बह जाता है। उसके प्रवाह को रोक पाना हर किसी के बस की बात नहीं। भले ही कबीर ने मसि-कागद न उठाई हो, न अक्षर ज्ञान का इल्म सीखा हो लेकिन इसके बावजूद वे अच्छे-अच्छे संवाद गुरुओं को पानी पिलाते नजर आते हैं। इसलिए कि वे कागज की लेखी नहीं आंखन की देखी में भरोसा करते हैं। उनकी अभिव्यक्ति अनगढ़ है उसे किसी गुरुकुल में तराशा नहीं गया पर उसकी मार हृदय को वेधती है।

कबीर के शब्दकोश में बहुत ज्यादा शब्दों की संपदा नहीं है, जो थोड़े बहुत हैं भी उनमें किसी तरह के परिष्कार की झलक भी नहीं है। कुछ ऐसा जैसे कि किसी जौहरी ने खदान से निकले हीरे को न तराशा हो या किसी सुनार ने सोने को सुहागा में न चमकाया हो। इसके बावजूद कबीर उस आम आदमी तक अपनी बात पहुंचाने में कामयाब हो जाते हैं जिसे भाषाई लालित्य की तनिक भी समझ नहीं। जो ठीक तरह से ‘अलिफ‘ पढ़ना तो दूर समझना भी नहीं जानता। कबीर ने जीवन की उन जंजीरों को, उन गुत्थियों को इतनी आसानी से मुक्त कर दिया जो सदियों से समाज को जकड़े हुई थीं।

संचार के विद्यार्थी साधारणीकरण का सिद्धांत पढ़ते जरूर हैं पर कबीर ने ज्ञान का ऐसा सहज रूपांतरण किया कि अच्छे-अच्छे वेदपाठी भी दंडवत हो गए। यह अलग बात है कि कबीर के इस दर्शन को उस वक्त के मठाधीशों ने मान्यता देने से इंकार कर दिया। इसके पीछे भय था अपने किले दरकने का। कबीर ने सभी के किले न सिर्फ दरकाए वरन नेस्तानाबूद भी कर दिए। कबीर जितना साधारण आदमी खोजना मुश्किल है जो इतना असाधारण बन गया। उनका सारा जीवन ‘विशिष्टता‘ के भाव से कोसों दूर रहा पर जिसने उन्हें समझा, जाना और अनुभव किया, वह उन्हीं का हो गया।

कबीर का सारा ज्ञान ‘ऑब्‍जर्वेशन’ का है। सारा कुछ उन्होंने इसी समाज से अर्जित किया। एकदम खरा-खरा। तभी तो कबीर की वाणी तलवार की ऐसी धार है जो सीधी-गर्दन पर गिरती है। उनके वचनों में एक किस्म की आग्नेय क्रांति है। कबीर ने जो भी कहा वह तर्क-वितर्क से ज्यादा यथार्थवाद पर आधारित है। वे अबूझ पहेली हैं, उनका सत्य अकाट्य है। बेफिक्री में डूबा हुआ। वे बेलिहाज हैं, बेपरवाह हैं। जो कहना है सो कहना है। इस गणित में नहीं उलझते कि लोग क्या कहेंगे। भाषा विचारकों ने उनकी भाषा को ‘सधुक्कड़ी‘ का टैग दे दिया और उनकी कथनी को ‘उलटबांसी‘। अर्थ यह है कि कबीर ने जो कहा वह संसार के दार्शनिकों, विचारकों और पंडितों को रास नहीं आया और इन लोगों ने जो कुछ कहा वह कबीर को नहीं सुहाया, सो विरोधाभास हो गया। कबीर का सारा ज्ञान उनके द्वारा रचित ‘साखी‘ में संग्रहित है, जिसका अर्थ है साक्षी अर्थात् मेरी गवाही। तभी तो कबीर कहते हैं- ‘सच कहो तो मारन धावे।‘ उनके सच को समाज स्वीकारने को राजी नहीं था। कबीर वेद-पुराण, शास्त्र पढ़ने वाले विद्वान नहीं बल्कि ज्ञानी थे या इससे भी आगे आत्मज्ञानी। उन्होंने जो कहा वह किसी भी कसौटी पर रखा जा सकता है। कबीर सिखा गए कि यदि अपनी बात आम आदमी के मानस तक पहुंचाना है तो संवाद का तौर-तरीका कैसा होना चाहिए?
(लेखक इंक मीडिया इंस्ट्टीयूट ऑफ मॉस कम्युनिकेशन, सागर के निदेशक हैं)

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