सोचो.. सोचो..

गिरीश उपाध्‍याय 
सोचो.. सोचो..
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वो जो नंबर
डाल रखा है अपनी
‘कॉन्टैक्ट लिस्ट’ में तुमने
याद तो करो
कितने दिन, महीने, बरसों से
नहीं किया कॉन्टैक्ट उससे
वो जो नाम तुमने
डाल रखे हैं ‘फेमिली फोल्डर’ में
सोचो तो जरा
उनसे बात करने की
कितनी फुरसत मिली है तुम्हें
वो जो पल ‘अपनों’ के
सैकड़ों की तादाद में
क्लिक कर लिए थे तुमने
देख तो लो
कहीं उस फोल्डर में
लग तो नहीं गई कोई
काली फफूंद
याद भी है तुम्हें उसका नाम
जिसका नंबर
‘स्कूल फ्रेंड’ लिखकर
सेव कर लिया था तुमने
पता है तुम्हें?
एक डायरेक्टरी
दिल में भी होती है
है कोई
जो सेव है वहां
धड़कन की तरह…
सोचो.. सोचो…

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