कई बार ऐसा लगता है कि हमें बिना बात विवाद खड़ा करने की आदत सी हो गई है। खासतौर से राजनीति के क्षेत्र में जो भी लोग हैं उन्हें खाना ही तब तक नहीं पचता जब तक कि वे विवाद के ‘पाचक चूर्ण’ का सेवन न कर लें। यही हाल मीडिया का है, उसकी कब्ज भी तब तक दूर नहीं होती जब तक कि उसे कोई ‘विवाद-नित्यम’ टेबलेट खाने को न मिल जाए।
ताजा विवाद अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) में कई दशकों से टंगी मोहम्मद अली जिन्ना की तसवीर का है। यह तसवीर सुर्खियों में तब आई जब अलीगढ़ के भाजपा सासंद सतीश गौतम ने 30 अप्रैल को एएमयू परिसर से इसे बेदखल करने को लेकर वहां के कुलपति को पत्र लिखा।
गौतम का कहना था कि जो जिन्ना भारत के बंटवारे यानी देश को तोड़ने के लिए जिम्मेदार थे उनकी तसवीर विश्वविद्यालय में टांगने का तुक क्या है। जो पाकिस्तान भारत को लगातार चोट पहुंचा रहा है उसके संस्थापक को यहां प्रतिष्ठित क्यों किया गया है।
गौतम के इस पत्र में राजनीति और मीडिया के लिए सनसनी का पूरा मसाला था और वही हुआ। जैसे ही यह खत लिखे जाने की बात सामने आई हर ‘इंट्रेस्टेड पार्टी’ उसे अपने अपने हिसाब से ले उड़ी। भाजपा नेताओं ने पुरजोर तरीके से तसवीर को हटाने की मांग की, तो कांग्रेस के नेताओं ने लगे हाथ सवाल उठा दिया कि भाजपा पहले जिन्ना को लेकर अपना स्टैंड तो क्लीयर कर दे।
कांग्रेस की ओर से इस संबंध में दो दृष्टांत दिए गए। पहला जून 2005 में हुई भाजपा के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी की पाकिस्तान यात्रा का था। इसमें आडवाणी ने वहां जिन्ना की मजार पर फूल चढ़ाए थे और जिन्ना को सेक्यूलर नेता व हिन्दू मुस्लिम एकता का राजदूत बताया था।
दूसरा मसला भाजपा के ही एक और दिग्गज नेता व भारत के पूर्व विदेश एवं वित्त मंत्री जसवंत सिंह की किताब ‘जिन्ना: इंडिया,पार्टीशन,इंडिपेंडेंस’ से जुड़ा है। यह किताब लोकार्पित होने से पहले जसवंतसिंह ने एक इंटरव्यू में कहा था कि ‘’जिन्ना को हमने एक खलनायक के तौर पर पेश किया, क्योंकि हमें भारत के विभाजन के बाद एक खलनायक की तलाश थी।‘’
जिन्ना की तसवीर को लेकर बुद्धिजीवियों ने भी प्रतिक्रियाएं दीं। मशहूर गीतकार जावेद अख्तर ने कहा कि ‘’मोहम्मद अली जिन्ना की तसवीर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में लगी होना शर्मिंदगी की बात है। लेकिन जो लोग इसके खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं उन्हें उन मंदिरों का विरोध भी करना चाहिए जो गोडसे के सम्मान में बनाए गए हैं।‘’
सबसे दिलचस्प मामला खुद उत्तरप्रदेश की भाजपा सरकार के भीतर ही हुआ। बसपा से भाजपा में आए वरिष्ठ नेता और योगी सरकार के मंत्री स्वामीप्रसाद मौर्य ने बयान दे डाला कि ‘’देश विभाजन से पहले जिन्ना के योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।‘’ उधर मुख्यमंत्री योगी ने कहा कि जिन्ना का महिमामंडन नहीं चलेगा, ऐसा करने वाले लोगों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी।
एएमयू के कुलपति तारिक मंसूर का कहना है कि ‘’जिन्ना की यह फोटो 1938 से लगी हुई है। ये कोई नई चीज नहीं है। अब तक किसी ने इस पर ऑब्जेक्ट नहीं किया। यह तो एक अर्काइव है, बहुत से पोर्ट्रेट लगे हैं तो वह तसवीर भी लगी है। कुछ लोग यूनिवर्सिटी का माहौल बिगाड़ना चाहते हैं।‘’
एएमयू छात्रसंघ अध्यक्ष मशकूर अहमद उस्मानी ने सवाल किया है कि जब तस्वीर छात्रसंघ की तरफ से छात्रसंघ हॉल में लगी है तो सांसद हमसे जवाब मांगें कुलपति से नहीं। हम लोग सांसद के पत्र का मुंहतोड़ जवाब देंगे।
वहीं, एएमयू के जनसंपर्क अधिकारी शैफी किदवई ने कहा कि यूनिवर्सिटी का छात्रसंघ एक स्वतंत्र संस्था है। छात्रसंघ ने 1920 में आजीवन सदस्यता देने की शुरुआत की थी। तब महात्मा गांधी और जिन्ना को भी सदस्यता मिली थी, उसके बाद ही वहां जिन्ना की तस्वीर लगाई गई थी।
इस मामले में हर तरफ से बयान और प्रतिबयान की बमबारी के बीच सवाल यह है कि हम आखिर इतने छुई मुई क्यों हो गए हैं? क्या एक तसवीर, किसी एक गली का नाम, किसी जगह लगा कोई झंडा, या कहीं किसी उचक्के द्वारा लगाया गया कोई नारा, हमारे विशाल भारत को तोड़ या बिखेर सकते हैं? क्या हमारा भारत इतना कमजोर है जो तिनके के धक्के से गिर जाएगा?
दूसरी बात इतिहास की है। जो चीजें वहां दर्ज हैं, वे दर्ज ही रहेंगी। हम इतिहास से तथ्यों को हटाने या मिटाने की कोशिश करेंगे तो हममें और बामयान में बुद्ध की मूर्तियों को ध्वस्त कर देने वाले तालिबानों में क्या फर्क रह जाएगा? क्या हम इस तथ्य से इनकार कर सकते हैं कि जिन्ना, भले ही वे भारत के विभाजन के जिम्मेदार हों, भारत के इतिहास का हिस्सा हैं।
जिन्ना पर तमाम कालिख पोतने के बावजूद क्या हम इतिहास में दर्ज वो पन्ना हटा सकेंगे जो कहता है कि इसी ‘खलनायक जिन्ना‘ ने हमारे महान स्वतंत्रता सेनानी लोकमान्य तिलक का वह मशहूर मुकदमा लड़ा था जिसमें अंग्रेज सरकार ने तिलक को अपने अखबार केसरी में कुछ लेख छापने पर देशद्रोह का आरोपी बनाया था।
और चलिए भूल जाइए उस सौ साल से भी ज्यादा पुरानी बात को। यदि जिन्ना की तसवीर पर इतनी ही आपत्ति है तो अब तक उत्तरप्रदेश या केंद्र सरकार या भाजपा को यह क्यों याद नहीं आया कि इस ‘कलंक के टीके’ को एएमयू से उखाड़ फेंका जाए। आजादी के बाद तो देश में अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार भी रही है और उत्तरप्रदेश में कल्याणसिंह से लेकर राजनाथसिंह तक की सरकारें भी।
तो क्या यह समझा जाए कि सिर्फ आज की भाजपा और आज का भाजपा नेतृत्व ही सच्चा देशभक्त है। उससे पहले हुए उसके खुद के नेता भी नहीं। वाजपेयी भी नहीं… सवाल तो यह भी है कि जब जब कोई संकटपूर्ण चुनाव सामने होता है तब ही ऐसे मुद्दे क्यों उभर कर आते हैं या उभारे जाते हैं। गुजरात चुनाव के समय भी पूर्व प्रधानमंत्री तक पर पाकिस्तान से मिलकर षड़यंत्र करने का आरोप लगा था और अब कर्नाटक चुनाव के समय जिन्ना का जिन्न बोतल से निकाल लिया गया है।
याद रखें चुनावी राजनीति के ये खेल तो शुरू होकर खत्म हो जाएंगे, लेकिन देश का इतिहास खत्म नहीं होगा। वह तो निरंतर लिखा जाता रहा है और लिखा जाता रहेगा। बड़ी बात यह है कि हम उसमें किस तरह दर्ज होना चाहते हैं।
1996 में अल्पमत में आने पर अपना इस्तीफा देने से पहले भाजपा के ही दिग्गज नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने लोकसभा में कहा था- ‘’सत्ता का खेल तो चलेगा, सरकारें आएंगी-जाएंगी, पार्टियां बनेंगी-बिगड़ेंगी, पर यह देश रहना चाहिए…’’
क्या ऐसा हो पा रहा है?