मप्र उपचुनाव : बीजेपी और सिंधिया पर टिकी है अशोकनगर में जज्जी की कहानी

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अशोकनगर उपचुनाव

डॉ. अजय खेमरिया

अशोकनगर एक ऐसा कस्बा जो अपनी उन्नत कृषि और व्यापार के लिए प्रसिद्ध है। पंजाब से आये तमाम श्रमजीवी किसानों को अपने आँचल में समेटे अशोकनगर में होने वाला उपचुनाव बहुत ही रोचक औऱ कांटेदार रहने वाला है।

अशोकनगर को लेकर एक दुष्प्रचार यह भी है कि यहां जो भी सीएम आएगा उसकी कुर्सी चली जायेगी। ठीक यूपी के नोयडा की तरह। हालांकि योगी आदित्यनाथ ने इस मिथ को तोड़ नोयडा के कई दौरे कर लिए हैं, लेकिन मप्र के इस छोटे से कस्बे को अभी भी मुख्यमंत्री के चरणकमलों का इंतजार ही है।

आलम यह कि अविभाजित गुना जिले का हिस्सा रहे अशोकनगर में दस साल सीएम रहे दिग्विजयसिंह भी नही आये, जबकि यह उनका गृह जिला था। 13 साल में शिवराज सिंह भी नजदीक से निकल गए पर अपने पैर अशोकनगर में नही रखे।

यहां प्रस्तावित उपचुनाव में मुद्दा एक ही है ‘जजपाल सिंह जज्जी’। दो बार अशोकनगर के नगरपालिका अध्यक्ष रहे जज्जी एक ऐसे नेता हैं जिनसे स्थानीय राजनीति में लोग बड़ी संख्या में असहमति और विरोध तो रखते हैं, लेकिन उन्हें खारिज नहीं कर पाते। जज्जी कांग्रेस में थे तब भी 80 फीसदी कांग्रेसी उनके विरुद्ध रहते थे और अब बीजेपी में भी यह आंकड़ा फिलहाल इससे कम नहीं है।

सिंधिया परिवार के परम्परागत प्रभुत्व वाले इस क्षेत्र से महेंद्र सिंह कालूखेड़ा भी विधायक रहे हैं। वह अकेले ऐसे नेता थे जो इस जिले की अशोकनगर और मुंगावली दोनों सीटों से एमएलए चुने गए।

जाटव, यादव, रघुवंशी, ब्राह्मण, जैन, कुशवाहा, गुर्जर, मांझी, लोधी, सिख सहित ओबीसी दलित वर्ग की लगभग सभी छोटी जातियों वाले इस विधानसभा क्षेत्र का समीकरण 2008 के परिसीमन के बाद काफी कुछ बदल गया है। यादव, रघुवंशी जातियों के आपसी वर्चस्व का मैदान रही यह सीट 2008 में दलित वर्ग के लिए आरक्षित हो गई। अशोकनगर, शाडोरा, मुंगावली के कुछ हिस्सा जोड़कर बनाई गई चंदेरी सीट पर अब अशोकनगर के नेताओं की नजर रहती है।

पुरानी अशोकनगर सीट से बीजेपी के नीलम सिंह यादव तीन बार लड़े और दो बार जीते। 2003 में सीनियर नेता जगन्नाथ सिंह भी यहां से जीते। 2008, 2013 में बीजेपी के लड्डूराम कोरी और गोपीलाल जाटव एमएलए रहे हैं। विधानसभा के स्तर पर यह सीट बीजेपी के लिए मुफीद रही है, लेकिन यहां सिंधिया का प्रभाव लोकसभा में 2019 को छोड़कर अक्षुण्ण रहा है।

आरक्षण के बाद अशोकनगर में बीजेपी के दोनों विधायक असल में अपनी खुद की उम्‍मीदवारी से नहीं, बल्कि पार्टी के जनाधार के चलते ही जीत सके हैं। जहां तक अगले उम्मीदवार जजपाल सिंह का सवाल है, वह इस मामले में थोड़े मजबूत हैं। दो बार नपाध्यक्ष रहने के कारण उनके पास हर वर्ग के लोगों का एक समर्पित नेटवर्क है।

लोकव्यवहार में भी जज्‍जी मृदुभाषी हैं और जिस तरह से वह लगातार बीजेपी के मैदानी कार्यकर्ताओं के साथ अपनी ओर से पहल करके संवाद कायम करने में लगे हैं, उससे उनकी स्थिति चुनाव आते तक, अन्य त्यागपत्र देने वाले विधायकों के बनिस्बत ठीक हो सकती है। जज्जी उन बीजेपी नेताओं के घर भी दस्तक दे रहे हैं, जिनसे उनकी सीधी लड़ाई थी।

बीजेपी के पूर्व पार्षद अशोक जैन के घर जाकर उन्होंने पुरानी अदावत खत्म करने की पहल की है। जज्जी एक चतुर राजनीतिक हैं, उन्हें पता है कि अशोकनगर के जैन समाज की अहमियत क्या है? यही नहीं वे बीजेपी के कैडर वोट बैंक को भी मनाने में लगे हैं।

चूंकि इस सीट पर बीजेपी के कद्दावर नेताओं की दावेदारी नहीं रही है, इसलिये संभव है पार्टी में अंततः जीत के लिए जज्जी के लिए एकजुटता निर्मित हो ही जाए। बीजेपी के तीन बड़े नेता जगन्नाथ सिंह रघुवंशी (पूर्व विधायक), राव राजकुमार यादव (पूर्व विधायक), मलकीत सिंह संधू (पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष) 2018 में पार्टी छोड़कर सिंधिया के साथ चले गए थे। ये तीनों नेता खांटी भाजपाई रहे हैं और अब सिंधिया के साथ इनकी भी घर वापसी होगी। इसका फायदा अशोकनगर में बीजेपी को मिलना स्वाभाविक ही है।

सांसद केपी यादव फैक्टर को मुख्यमंत्री और सिंधिया के स्तर पर ही सुलझाया जा सकता है। फिलहाल नीरज मनोरिया, भानु रघुवंशी, पप्पू यादव सहित पार्टी के सीनियर नेता जज्जी के साथ हैं और संभव है शीघ्र ही दूसरे दूरी बनाकर चल रहे नेता भी जज्जी के साथ नजर आएं। यहां बीजेपी को सिंधिया के दौरे का इंतजार भी है, जिसके साथ ही चुनावी समीकरण बदलेंगे।

कांग्रेस के पास यहां मजबूत उम्मीदवार का अभाव है। क्योंकि सिंधिया ही यहां से टिकट देते आये हैं, और उनके साथ के अधिकतर लोग बीजेपी में आ गए हैं। पूर्व पार्षद आशा दोहरे जैन, गोपाल कॉल या बीजेपी से नाराज हरिबाबू राय जैसे कमजोर खिलाड़ियों पर कांग्रेस का दावा मजबूत नहीं कहा जा सकता है।

बसपा यहां अगर दमदारी से चुनाव लड़ती है तो कांग्रेस की मुश्किलें औऱ भी बढ़ जाएंगी। 1998 में बलबीर कुशवाहा यहां से बसपा के टिकट पर एमएलए बन चुके हैं। तब उन्हें 39760 वोट मिले थे। 2003 में बसपा के विष्णु रघुवंशी को 12494, 2008 में राकेश कठेरिया को 17712, 2013 में बाबूलाल दहलवार को 14677 और 2018 में बसपा के बालकृष्ण को 9559 मत मिले थे।

जाहिर है बसपा अगर उपचुनाव में दमदारी से लड़ती है तो बीजेपी को फायदा सुनिश्चित है। फिलहाल यहाँ बीजेपी के अलावा किसी अन्य दल में चुनावी हलचल नजर नहीं आ रही है। इस सीट पर सिंधिया एक बड़ा फैक्टर हैं और बीजेपी के साथ मिलकर उनकी ताकत को कम से कम अशोकनगर सीट पर तो चुनौती देना फ़िलहाल कांग्रेस के लिए कठिन टास्क ही है। हालांकि एक एमएलए के रूप में जज्जी की उपलब्धि भी अन्य सिंधिया समर्थक विधायकों की तरह जीरो ही है।

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टीम मध्‍यमत

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