इसका मतलब सरकार किसी और प्‍लान पर काम कर रही है

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्‍व में एनडीए की दुबारा सरकार बनने के बाद से कई मोर्चों पर गतिविधियां शुरू हो गई हैं। कहा जा रहा है कि सरकार पिछले कार्यकाल में अपने जिन-जिन घोषित एजेंडों पर काम नहीं कर सकी थी, उन पर इस कार्यकाल में काम आगे बढ़ सकता है या अधूरे रह गए कामों को पूरा किया जा सकता है। इन अधूरे कामों की सूची बहुत लंबी है जिनमें राम मंदिर से लेकर कश्‍मीर तक के मसले शामिल हैं।

हाल ही में अचानक ऐसा ही एक मुद्दा फिर से उभर कर सामने आया है या लाया गया है, और वह है लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एकसाथ कराए जाने का। वैसे यह मामला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पिछले कार्यकाल में भी कई बार कई मंचों से उठाया था। इस बार भी इसे उन्‍हीं पुराने तर्कों के साथ दोहराया जा रहा है कि ऐसा करने से चुनाव पर होने वाले खर्च में कमी आएगी और आचार संहिताएं लागू होने के कारण रुक जाने वाले विकास कार्य भी अपेक्षाकृत कम प्रभावित होंगे।

हालांकि उस समय भी इस मामले पर ज्‍यादातर विपक्षी दलों की राय भाजपा की राय से मेल नहीं खाती थी। पर भाजपा ने अपने इस एजेंडे को छोड़ा नहीं था। बुधवार को इस मामले में प्रधानमंत्री की ओर से बुलाई गई बैठक में भी स्थितियां ज्‍यादा नहीं बदलीं। इस मुद्दे पर कांग्रेस, बसपा, तृणमूल कांग्रेस, वामपंथी दल, सपा,टीडीपी आदि सरकार के साथ नहीं आए। पर ऐसा लगता है कि सरकार विपक्षी दलों के विरोध के बावजूद इस मुद्दे को छोड़ने के मूड में नहीं है।

लेकिन असली सवाल यह है कि लोकसभा के चुनाव अभी-अभी हुए हैं, ऐसे में यह न तो तत्‍काल चर्चा किए जाने का कोई विषय है और न ही देश के सामने ऐसी कोई इमरजेंसी है कि वो ‘वन नेशन वन इलेक्‍शन’यानी ‘एक देश एक चुनाव’ पर एकदम से सोचने के लिए मजबूर हो। इससे भी बड़ी बात यह है कि मान लीजिए, सारे दल एक साथ इस बात पर राजी हो जाएं और कहें कि चलिए चार-छह महीने बाद महाराष्‍ट्र,झारखंड और हरियाणा विधानसभाओं के जो चुनाव होने वाले हैं उनके साथ ही देश के सभी राज्‍यों व लोकसभा के चुनाव भी फिर से एकसाथ करा लिए जाएं तो क्‍या सरकार तैयार हो जाएगी?

जाहिर है इस मुद्दे में उलझाने वाले कई पेंच हैं और ये पेंच ही संभवत: वह कारण है जिसे लेकर इस मुद्दे को अभी इसी समय उठाया गया है। ध्‍यान रखिए जिस समय प्रधानमंत्री ने एक देश एक चुनाव सहित चार पांच मुद्दों को लेकर सर्वदलीय बैठक बुलाई, उसी समय नई लोकसभा का सत्र भी चल रहा है। वैसे तो सरकार की तरफ से कहा गया है कि विपक्ष भले ही संख्‍या में कम हो लेकिन सरकार उसके हर शब्‍द को महत्‍व देगी। लेकिन क्‍या ऐसा नहीं लगता कि संसद में शपथ ग्रहण के बाद नियमित कामकाज शुरू होने से पहले ही सरकार ने एक विवादास्‍पद मुद्दे पर बैठक बुलाकर खुद ही मतभेदों और टकराहट को सतह पर लाने का काम कर दिया है।

दूसरी प्रमुख बात है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की काम करने की शैली। वे हमेशा न सिर्फ अपने विरोधियों को बल्कि खुद अपनी ही पार्टी के लोगों को भी अपनी कार्यशैली और निर्णयों से चौंकाते रहे हैं। मीडिया की कयासबाजियों को तो उन्‍होंने एक तरह से धोकर रख दिया है। वे वह काम कभी नहीं करते जो दिखता या दिखाया जाता है। मैं तो एक कदम और आगे जाकर यह कहूंगा कि वे इस मामले में इस हद तक जिद्दी हैं कि यदि मीडिया में गलती से कोई सही बात भी अनुमान के तौर पर उछल गई या उस पर कयास लगने लगे तो मोदी वो निर्णय कर भी रहे होंगे तो उसे नहीं करेंगे।

मोदी और अमित शाह की कार्यशैली या रणनीति का एक प्रमुख हिस्‍सा है विरोधियों और मीडिया का ध्‍यान बंटाकर रखो। उन्‍हें इतना भटकाकर रखो कि जो हो रहा है या जो किया जाने वाला है उसकी तरफ उनकी नजर कभी न जाए। इसके लिए भाजपा की नई लीडरशिप ने नई शैली अपनाई है, खुद अमित शाह ही एक बार भोपाल में मीडिया से कह चुके हैं कि कई बार हम खुद आप लोगों को उलझाने वाली खबरें देते हैं।

तो मेरे हिसाब से एक देश एक चुनाव के मुद्दे को भी इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए। इस बात की पूरी संभावना है कि सरकार या प्रधानमंत्री बात भले ही एक देश एक चुनाव की कर रहे हों, उस पर सर्वदलीय बैठक भी बुला रहे हों, लेकिन उनका मूल एजेंडा कुछ और ही हो। और ऐसा ही एक एजेंडा यह हो सकता है कि सरकार एक देश एक चुनाव के बहाने देश में राष्‍ट्रपति शासन प्रणाली लागू करने की संभावनाओं को टटोल रही हो।

ऐसा इसलिए भी है कि पिछले कुछ दिनों के घटनाक्रम इस दिशा में कुछ कुछ इशारा कर रहे हैं। इनमें सबसे पहली बात तो भाजपा का सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र मोदी के नाम पर चुनाव लड़ा जाना है। लोकसभा चुनाव की सफलता ने मोदी-शाह को इस बात का भरोसा तो दिला ही दिया है कि मोदी के नाम पर पूरे देश में चुनाव लड़कर उसे जीता भी जा सकता है। अभी यह चुनाव संसद के लिए हुआ था, आगे हो सकता है राष्‍ट्रपति प्रणाली लागू करते हुए राष्‍ट्रपति पद के लिए हो। मंत्रिमंडल में एस. जयशंकर को विदेश मंत्री बनाने, सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और पीएमओ के अफसरों को केबिनेट मंत्री का दर्जा देने में अमेरिकन राष्‍ट्रपति सिस्‍टम की छाया दिखाई देती है।

एक मोर्चा भाजपा के पुराने एजेंडों का है जिनमें कश्‍मीर सबसे प्रमुख है। हो सकता है सरकार 370 और 35 ए पर कोई बड़ा फैसला करने जा रही हो। उस दिशा में चल रहे काम की ओर विपक्ष और मीडिया का ध्‍यान न जाए इसलिए भी एक देश एक चुनाव का मुद्दा उछाला गया हो सकता है। याद रखिए अभी एक दो दिन पहले ही खबर छपी है कि गृह मंत्री अमित शाह 30 जून को कश्‍मीर का दौरा करने वाले हैं। इस दौरे के मायने और उद्देश्‍य उतने सहज सरल नहीं हैं जितने आधिकारिक रूप से बताए जा रहे हैं। इसीलिए मेरा कहना है आप निशाने के बजाय तीर पर नजर रखिए। नई भाजपा की फितरत है कि वह बताकर निशाना नहीं लगाती, तीर लग जाने के बाद पता चलता है कि निशाना क्‍या और कौन था।

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