देश के नए बजट में घोषित की गई ‘आयुष्मान भारत’ राष्ट्रीय स्वास्थ्य संरक्षण योजना को लेकर देश में बड़े पैमाने पर बहस जारी है। सरकार जहां इसे क्रांतिकारी और दुनिया की सबसे बड़ी योजना बताते हुए अपनी पीठ ठोक रही है वहीं विपक्ष से लेकर स्वास्थ्य एवं बीमा विशेषज्ञ तक, कई सवाल उठाते हुए पूछ रहे हैं कि इतनी बड़ी स्कीम आखिर संचालित कैसे होगी?
रविवार को वित्त मंत्री अरुण जेटली से, न्यूज चैनल आज तक ने एक इंटरव्यू में, इस स्कीम पर उठाई जा रही आशंकाओं को लेकर सवाल किया तो जेटली ने योजना का सिलसिलेवार ब्योरा देते हुए कहा कि देश का हर गरीब या हर व्यक्ति इलाज के लिए अस्पताल नहीं जाता है। इस स्कीम का मुख्य मकसद ये है कि गरीब व्यक्ति सरकारी अस्पतालों के साथ प्राइवेट अस्पताल में भी इलाज पा सके।
जेटली ने बताया कि जो भी गरीब व्यक्ति इस स्कीम का लाभार्थी बनेगा, सरकार का पैसा उसी पर खर्च होगा। यह पूरी स्कीम इंश्योरेंस आधारित होगी और सरकार को केवल इंश्योरेंस की रकम ही देनी पड़ेगी। इससे पहले खबरें आई थीं कि सरकार ने योजना के लिए आरंभिक रूप से 2000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया है।
यानी नई ‘मोदी केयर’ स्कीम इंश्योरेंस मॉडल पर काम करेगी। इसमें मरीज के अस्पताल में भरती होकर पहले इलाज की राशि खर्च करने और बाद में उसका भुगतान सरकार से लेने अर्थात पुनर्भुगतान जैसी स्थिति नहीं होगी। योजना का लाभ उठाने वाले गरीब मरीजों का इंश्योरेंस किया जाएगा और बीमार होने पर अस्पतालों से उन्हें कैशलेस इलाज की सुविधा मिलेगी।
एक मोटा सवाल यह उठाया जा रहा है कि यदि यह इंश्योरेंस आधारित योजना है तो फिर इंश्योरेंस के प्रीमियम का क्या होगा? उसका भुगतान कौन करेगा? तो सरकार का कहना है कि इंश्योरेंस का प्रीमियम वह भरेगी। यानी बीमा कंपनियों को प्रति परिवार या प्रति व्यक्ति प्रीमियम का भुगतान सरकारी खजाने से होगा।
बस यहीं आकर मामला थोड़ा और उलझ जाता है। मीडिया रिपोर्ट्स में राष्ट्रीय सैम्पल सर्वे (एनएसएसओ) के हवाले से बताया गया है कि सरकार का यह अनुमान बहुत व्यावहारिक न होकर अतिशय आशावादी है। सरकार सोच रही है कि प्रति परिवार 1000 या 1200 रुपए प्रीमियम देकर वह इस योजना को बखूबी क्रियान्वित करवा लेगी, लेकिन ऐसा होना संभव नहीं लग रहा।
एनएसएसओ की पिछली रिपोर्ट के मुताबिक 2014 में देश की अत्यंत गरीब 40 प्रतिशत आबादी का अस्पताल में भरती होने का औसतन खर्च 12500 रुपए प्रतिवर्ष बताया गया है। सर्वे कहता है कि जिस आबादी को लाभ देने की बात कही जा रही है, उसकी अस्पताल में भरती होने की दर 40 व्यक्ति प्रति हजार है। इसमें भी प्रति व्यक्ति इलाज का औसतन खर्च 12500 रुपए आता है।
लेकिन चूंकि नई योजना में सरकार ने पांच लाख रुपए तक के खर्च की बात की है इसलिए अब सरकार को प्रति परिवार न्यूनतम 2500 रुपए का प्रीमियम तो देना ही होगा। ऐसे में दस करोड़ परिवारों के लिए यह राशि 25 हजार करोड़ रुपए होती है जो बहुत बड़ी रकम है। और यह तो केवल प्रीमियम की राशि है, इस पूरी योजना को चलाने के लिए जो ढांचा खड़ा करना होगा, उस पर होने वाला खर्च सरकार को अलग से वहन करना होगा।
बढ़ती महंगाई और अन्य खर्चों की स्थिति इससे अलग होगी। इसके अलावा 2014 के बाद से अस्पताल में भरती होने वालों की दर में भी काफी बढ़ोतरी हुई है। खुद एनएसएसओ के आंकड़े कहते हैं कि 1995-96 से 2014 तक शहरी क्षेत्र में यह वृद्धि दो से चार प्रतिशत रही तो ग्रामीण क्षेत्र में 1.3 से 3.5 प्रतिशत रही।
इसी तरह निजी अस्पतालों का उपयोग करने वालों की संख्या में भी लगातार बढ़ोतरी हो रही है। खासतौर से शहरी क्षेत्र में लोग निजी अस्पतालों की सेवाएं लेना अधिक पसंद कर रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि 1995-96 से 2014 के बीच ही निजी अस्पतालों में जाने वालों की संख्या में शहरी क्षेत्र में 57 से 68 फीसदी का और ग्रामीण क्षेत्र में 56 से 58 फीसदी का इजाफा हुआ है।
अब यदि इस अवधि के अस्पतालों के खर्च की स्थिति देखें तो सरकारी या सार्वजनिक अस्पतालों में इलाज का प्रति व्यक्ति औसत खर्च ग्रामीण क्षेत्र में 5512 रुपए और शहरी क्षेत्र में 7592 रुपए है। जबकि निजी अस्पतालों के लिहाज से यह खर्च ग्रामीण क्षेत्र में 21726 रुपए और शहरी क्षेत्र में 32 हजार 375 रुपए है।
एक मोटा आंकड़ा कहता है कि सरकारी या सार्वजनिक अस्पतालों की तुलना में निजी अस्पतालों में इलाज कराने का खर्च चार गुना अधिक बैठता है। इस लिहाज से देखें तो 2014 में प्रति व्यक्ति इलाज का जो औसत खर्च एनएसएसओ ने 12500 अनुमानित किया था वह आज कई गुना अधिक बढ़ चुका होगा। ऐसा इसलिए भी है कि सरकारी स्कीम का लाभ उठाने वाले निजी अस्पताल समय समय पर अपनी चिकित्सा सेवाओं के शुल्क में सरकार से बढ़ोतरी भी करवाते रहे हैं।
अब यदि सरकार ऐसे निजी अस्पतालों में इलाज के बढ़े हुए खर्च को वहन करने में सक्षम भी हो तो भी एक बड़ा पेंच ऐसे अस्पतालों के चिकित्सा सुविधा मानकों और सेवा की गुणवत्ता को लेकर फंसता है, क्योंकि निजी अस्पतालों में सभी के मानक और सुविधाएं अलग अलग हैं। निजी क्षेत्र की स्वास्थ्य सुविधाओं में विस्तार के बावजूद सरकार ने इन अस्पतालों के मानकों और गुणवत्ता में एकरूपता लाने के लिए कोई कानून कायदा तय नहीं किया है।
ऐसी स्थिति में यह पूरी तरह संभव है कि कोई निजी अस्पताल किसी गरीब के इलाज के नाम पर बीमा कंपनी से अनाप शनाप राशि वसूल ले। निजी मामला होने पर तो व्यक्ति अस्पताल वालों से एक बार पूछ भी लेता है कि फलां जांच या इलाज की वास्तव में जरूरत है भी या नहीं, लेकिन सुदूर गांव का आदमी दिल्ली या मुंबई के किसी हाई प्रोफाइल अस्पताल में ऐसा पूछना तो दूर, ऐसा सवाल भी मन में लाने की हिम्मत शायद ही जुटा पाए…