अजय बोकिल
सियासत ही सही, लेकिन मध्यप्रदेश में जारी सत्ता की उठापटक और कुटिल चालों के बीच सुकून भरा नजारा महामहिम राज्यपाल और प्रदेश के मुख्यमंत्री का ‘पत्र संवाद’ बन गया है। भले ही उसके पीछे संवैधानिक तकाजे हों। पर क्षण भर को लगता है मानो पत्रों की वीरान होती दुनिया में फिर बहार आ गई है। हर बात पर चिट्ठी लिखी जा रही है। निशाने साधे जा रहे हैं। जवाब तलब किए जा रहे हैं। सफाइयां दी जा रही हैं। लंबे समय बाद लगा कि राजनीति में पत्र की कितनी अहमियत है। जो कहा नहीं जा सकता, वह पत्र में नमूदार हो सकता है।
राज्यपाल लालजी टंडन और मुख्यमंत्री कमलनाथ ने सिर्फ दो दिनों में चार चिट्ठियां एक-दूसरे को लिख डालीं। दोनों शीर्ष हस्तियों के बीच ऐसी ‘मोहब्बत’ कम ही दिखाई देती है। दोनों राजधानी भोपाल में एक-दूसरे से महज डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर रहते हैं। एक राजभवन में दूसरा मुख्यमंत्री निवास में। दोनों एक दूसरे से मिलते भी रहते हैं, लेकिन अधिकार और तकरार का यह सियासी शरसंधान चिट्ठियों के मार्फत ही हो रहा है। कब तक चलेगा, कहना मुश्किल है।
बहरहाल राज्य की इन दो शीर्ष हस्तियों के बीच जारी ‘पत्र संवाद’ ने गुजरे जमाने के उन पत्र-वीरों को खुशी से भर दिया है, जो पत्र संस्कृति को आउटडेटेड मानने लगे थे। हालांकि राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच जारी इस युद्धनुमा पत्र व्यवहार का असल मकसद विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिए फ्लोर टेस्ट कराने की गरज और उसे न करा पाने की वैधानिक मजबूरी जताना है। नोट करने लायक बात यह भी कि महामहिम और मुख्यमंत्री के बीच ये चिट्ठियां आधी रात को भी लिखी और भेजी जा रही हैं।
इस राजनीतिक उठापटक के मौसम की पहली चिट्ठी गवर्नर ने सीएम कमलनाथ को इस हिदायत के साथ लिखी कि आपने बहुमत खो दिया है। लिहाजा आप 16 मार्च को सदन में विश्वासमत हासिल करें। चिट्ठी में इसका वक्त और शिड्यूल भी निर्देशित किया गया था। आधी रात को मिली इस चिट्ठी पर सीएम कमलनाथ ने जवाबी पत्र लिखा कि भाजपा ने कांग्रेस के विधायकों को बंधक बना लिया है। ऐसे में फ्लोर टेस्ट कराना अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक होगा।
कानूनी हवालों के साथ लिखी गई इस विस्तृत चिट्ठी में राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र को चुनौती देते हुए कहा गया कि विधानसभा अध्यक्ष के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। राज्यपाल कोई स्पीकर का मार्गदर्शक या परामर्शदाता नहीं है। विधानसभा का काम देखना स्पीकर का काम है, मेरा नहीं। राज्यपाल की दो पेजी चिट्ठी के जवाब में सीएम का यह 6 पेजी जवाब था। नाथ की चिट्ठी में तल्खी और चुनौती का भाव था।
बात यही नहीं रुकी। राज्यपाल ने फिर दूसरे दिन सीएम को एक और चिट्ठी थमा दी, यह कहते हुए कि आपके जवाब में पत्र का भाव/भाषा संसदीय मर्यादा के अनुकूल नहीं है। राज्यपाल ने फिर निर्देशित किया कि कमलनाथ सदन में बहुमत सिद्ध करने के लिए 17 मार्च को यकीनी तौर फ्लोर टेस्ट कराएं। कमलनाथ ने फिर जवाबी पत्र लिखकर इस बात से इंकार किया कि बतौर सीएम उन्होंने राज्यपाल के निर्देशानुसार फ्लोर टेस्ट कराने में कोई आनाकानी नहीं की है। पत्र में कोरोना और बंदी कांग्रेस विधायकों को छुड़ाकर खुली हवा और मन से रहने देने का हवाला देते हुए कहा गया कि इन हालात में फ्लोर टेस्ट कराना असंवैधानिक होगा।
जो भी हो, सियासी तल्खी और सत्ता की इस अकुलाहट के बीच चिट्ठियों के जरिए मनोभावों को व्यक्त करते हुए आर-पार तीर चलाने की अदा ने उस जमाने को फिर जिंदा कर दिया, जब पत्रों की अहमियत जिंदगी के हर मोड़ पर हुआ करती थी। प्यार में, वार में, उल्लास में, एकांत में, दोस्ती में, दुश्मनी में, सफलता में, विफलता में, जनम में मृत्यु में। पत्र एक सहयात्री की तरह किसी न किसी रूप में साथ होता था। पत्र लिखना भी एक कला थी। एक जुनून की हद तक सिरजने वाली कला।
पत्र लिखना बहुत से लोगों का एक शगल हुआ करता था। पत्र लिखना, उसे पोस्ट करना, पत्र का डाक विभाग के मार्फत लंबी दूरियां तय करना और डाकिए के जरिए गंतव्य तक पहुंचना बड़ी रोमांचक और बेचैन करने वाली प्रक्रिया हुआ करती थी। डाकिया तब देवदूत की तरह महसूस होता था न कि आज के दन्न से बेल बजाकर आ टपकने वाले डिलीवरी ब्वॉय की तरह।
एक वो भी समय था, जब पोस्टकार्ड गरीबों और अमीरों का सबसे बड़ा, सस्ता और सुलभ संदेशवाहक हुआ करता था। ये कहें कि पोस्टकार्डों के कारण ही पत्र लेखन कला का आविष्कार हुआ तो गलत नहीं होगा। पहला पोस्टकार्ड इस देश में अंग्रेजों ने 1879 में जारी किया, जिसकी पत्र शताब्दी आजाद भारत में 2 जुलाई 1979 को मनाई गई। उस साल डाक विभाग ने 21 करोड़ पोस्टकार्ड बेचे। कहने को पोस्टकार्ड अब भी मिलते हैं, लेकिन वो अब जनता की आवाज नहीं हैं। इनका उपयोग व्यावसायिक उद्देश्यों से ज्यादा किया जाता है। अब तो पोस्टकार्ड के साथ साथ अंतर्देशीय और एरोग्राम जैसे शब्द भी ट्रैश में चले गए हैं। इन्हें बेचने वाली डाक खाने की खिड़कियां भी दूसरे फार्मेट में दिखती हैं।
प्रौद्योगिकी और संचार क्रांति ने संचार का महाविस्तार तो किया है, लेकिन पत्र लिखने, उसे भेजने और पाने का सुख भी छीन लिया है। आज की पीढ़ी के लिए ‘फूल तुम्हें भेजा है खत में’ छिपा प्रेम निवेदन शायद ही समझ आए। चाहे तो उसे ‘ पोस्ट तुम्हें फारवर्ड की है व्हाट्स एप पर’ जैसा कुछ लिखना होगा। लिखे हुए सुंदर, अर्थपूर्ण और मार्मिक शब्दों के माध्यम से दिल के जज्बात बयान करने की दुनिया अब साहित्य अथवा फेसबुक कमेंट तक सिमटती जा रही है।
दरअसल मोबाइल फोनों ने जिस कल्चर को एक तरह से निष्कासित कर दिया है, वह है पत्र लेखन संस्कृति। 21 वीं सदी के बच्चों के लिए तो डाकिया एक अजूबा चीज है। वो सिर्फ कोरियर वाले को जानते हैं। फर्क इतना है कि डाकिया धीरे-धीरे आपकी जिंदगी का हिस्सा बन जाता था, कोरियर वाला पावती लेकर चल देता है। उसका चेहरा भी आपको शायद ही याद रहता हो। वह डिलीवर भी करता है तो विवाह पत्रिकाएं या कानूनी नोटिस।
बेशक, वक्त बदलता है। पहले आप जिस माध्यम से लिखी या छपी सामग्री भेजते या पाते थे, वो ‘पोस्ट’ कहलाता था। आजकल सोशल मीडिया पर आप जो लिखते या प्रतिक्रिया देते हैं, वही ‘पोस्ट’ में तब्दील हो गया है। लेकिन यह तो हुई निजी या सामाजिक जीवन की बात। सौभाग्य से राजनीति में चिट्ठियों का चलन अभी बाकी है, यह राहत की बात है। फिर चाहे वह राजनीति करने के लिए या सियासी दोस्ती अथवा दुश्मनी निभाने के लिए ही क्यों न हो।
ऐसा होने के कुछ बुनियादी कारण हैं। पहला तो यह कि राजनीतिक पत्र व्यवहार राजनीतिक इतिहास का जरूरी हिस्सा हो सकता है। इसलिए हर बात लिखित में कहना जरूरी है ताकि सनद रहे। उस पत्र के माध्यम से आपकी मंशा, चरित्र, तेवर और रणनीति भी बोले। इतिहास के कटघरे में वो आपकी पैरवी करने वाला दस्तावेज हो। कहते हैं कि पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह खूब चिट्ठियां लिखा करते थे। शायद जंगल और पहाड़ ही बाकी थे, जिन्हें उन्होंने पत्र नहीं लिखे।
वैसे कानून की दुनिया में आज भी सारा काम लिखत-पढ़त में ही होता है। वहां जल्दबाजी में किए गए ट्वीट का कोई अर्थ नहीं होता। यूं आज के जमाने में प्रचलित ई मेल, पोस्ट और ट्वीट सबूत तो होते हैं, लेकिन उनसे वो बात नहीं बनती, जो बात ‘चिट्ठी आई है..!’ से बनती है। यह हकीकत है कि बदलते समय के साथ लोगों ने एक दूसरे को चिट्ठी लिखना भी लगभग बंद ही कर दिया है। सोशल मीडिया आ जाने से डाक मीडिया का कोई खास मतलब नहीं रह गया है। लोग मोबाइल पर सीधे ही बतिया लेते हैं। उसी पर लड़-झगड़ भी लेते हैं। लेकिन मोबाइल संवाद की इस दुनिया में ‘धैर्य’ शब्द अवांछित सा है। लिहाजा यहां अधगली दाल और अधपकी सब्जी भी खूब चल जाती है। मनोभावों को परिष्कृत रूप और तड़प के साथ परोसने का आग्रह नदारद रहता है। जो जैसा है, उसी रूप में ठेलो और पेलो का मानस।
इन सबके बावजूद अगर राजनेता और संविधानिक हस्तियां अपनी तकरार के इजहार के लिए चिट्ठियों का सहारा ले रही हैं तो ये अच्छी बात है। मान लें कि राजनीतिक कारणों से ही सही, पत्र अब भी शिकायतें करने और शिकवे दूर करने का सबसे विश्वसनीय और टिकाऊ माध्यम हैं। ई-मेल से तो उस शिद्दत से लड़ा भी नहीं जा सकता। कोई कह सकता है कि यह पत्र संवाद (या विवाद) भी इसलिए है क्योंकि राज्यपाल और मुख्यमंत्री दोनों ही सत्तर पार के हैं। पोस्टकार्ड युग के हैं। भीतर से जज्बाती हैं। सियासत और रियासत के मर्म को समझते हैं। लिहाजा संवैधानिक लड़ाई भी पत्र के माध्यम से लड़ रहे हैं। मान लिया। फिर भी इस विवाद में पत्र संवाद तो छिपा ही है न!