भोपाल में 31 अक्टूबर को एक छात्रा के साथ हुए सामूहिक दुष्कर्म के सभी चार आरोपियों को फास्ट ट्रैक कोर्ट द्वारा उम्रकैद की सजा सुनाए जाने पर अपेक्षित प्रतिक्रिया ही हुई है। पीडि़त परिवार से लेकर समाज के सभी वर्गों ने इस फैसले का स्वागत किया है। माना जाना चाहिए कि आने वाले दिनों में दुष्कर्म जैसे अपराधों के मामले में यह फैसला नजीर साबित होगा।
दरअसल अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में जाने के लिए यूपीएससी परीक्षा की तैयारी कर रही इस युवती के साथ हुआ हादसा कई उतार चढ़ाव के बाद अंजाम तक पहुंचा है। घटना के दिन छात्रा कोचिंग क्लास से लौट रही थी और रास्ते में हबीबगंज रेलवे स्टेशन के नजदीक पटरियों के किनारे सुनसान जगह पर चारों आरोपियों ने उसके साथ ज्यादती की थी।
गैंगरेप की शिकार युवती के माता पिता दोनों ही पुलिस में हैं। लेकिन उसके बावजूद उसे अपने साथ हुई घटना की रिपोर्ट लिखवाने के लिए एक थाने से दूसरे थाने भटकना पड़ा था। इस दौरान उसने जो सहा वह किसी भी सभ्य समाज के माथे पर कलंक है। उसकी पीड़ा को समझने और उसकी मदद करने के बजाय उसकी आपबीती पर ही तरह तरह के कमेंट किए गए।
लेकिन मानना होगा उस लड़की के जीवट को कि उसने हिम्मत नहीं हारी और तमाम मुश्किलों को झेलने के बावजूद रिपोर्ट लिखवा कर ही दम लिया। घटना का दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह रहा कि ऐन राजधानी में एक लड़की के साथ हुई इस बर्बर घटना की रिपोर्ट भी पुलिस ने 24 घंटे बाद जाकर लिखी। पुलिस, प्रशासन और सरकार उस समय जागे जब मीडिया ने पूरी घटना पर हल्ला मचाया।
दुर्भाग्य देखिए कि इतना कुछ होने के बाद भी घटना पर लीपापोती की कोशिशें जारी रहीं। अफसरों ने अपनी जिम्मेदारी को एक दूसरे पर टालना चाहा। जिम्मेदार अफसर मीडिया से बात करते समय भी ठहाके लगाते रहे। मेडिकल जांच के दौरान डॉक्टरों ने पूरी घटना को लड़की की सहमति से हुआ बता दिया। वह रिपोर्ट भी बवाल मचने के बाद बदली गई।
यानी इस घटना में वे सारे तत्व मौजूद हैं जो पुलिस व प्रशासनिक तंत्र के ढर्रे को बेनकाब करते हैं। दोषियों को सजा सुनाते समय अदालत का यह कमेंट सर्वथा उचित है कि इस मामले में जो कुछ भी किया लड़की ने किया, उसने यदि हिम्मत नहीं दिखाई होती तो, पुलिस ने तो मामले को ठंडा करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी।
कोर्ट का यह कमेंट स्वागत योग्य है कि लड़की ने साहसपूर्वक सारी परिस्थितियों का सामना किया है। पुलिस के उदासीन रवैये के बावजूद लड़की और उसके माता-पिता ने साहस दिखाया और आरोपियों के खिलाफ मामला दर्ज करने के लिए पुलिस को मजबूर किया। कोर्ट ने तल्ख लहजे में पुलिस को नसीहत देते हुए कहा कि जहां महिलाओं का सम्मान होता है, वहां देवता निवास करते हैं और जहां महिलाएं पीड़ित होती है वहां कुल का नाश होता है।
घटना के बाद सरकार को भी जागना पड़ा। मामले की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट में करवाने का ऐलान किया गया। इसके साथ ही मध्यप्रदेश विधानसभा ने वो ऐतिहासिक बिल सर्वसम्मति से पारित किया जिसमें 12 साल से कम उम्र की लड़कियों के साथ दुष्कर्म और गैंगरेप जैसे अपराधों पर फांसी की सजा का प्रावधान है। यह बिल केंद्र को मंजूरी के लिए भेजा गया है।
लेकिन इस पूरे प्रकरण में कई बिंदु विचारणीय हैं। सबसे बड़ा सवाल तो अपराधों पर नियंत्रण के लिए जिम्मेदार और अपराधों से निपटने वाले तंत्र की संवेदनशीलता का है। जरा कल्पना कीजिए कि यदि उस लड़की ने हिम्मत नहीं दिखाई होती और मीडिया में घटना को लेकर हल्ला नहीं मचा होता तो क्या यह घटना इस अंजाम तक पहुंच सकती थी?
सरकार की संवेदनाएं भी तभी जागीं जब उसे लगा कि मामला राजनीतिक और सामाजिक रूप से उसके खिलाफ जा सकता है। सरकार के अधीन काम करने वाले तंत्र ने लड़की के साथ जो बर्ताव किया था उसके चलते भी सरकार को ऐसा कुछ तो करना ही था जिससे उसके मुंह पर पुतने वाली कालिख कम हो। और यही कारण रहा कि मामले को आनन फानन में फास्ट ट्रैक कोर्ट के हवाले करने और दुष्कर्म के अपराध पर फांसी की सजा वाला बिल लाने जैसे कदम उठाए गए।
पर प्रदेश में बलात्कार का यह अकेला मामला नहीं है। नैशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की वर्ष 2016 की रिपोर्ट के अनुसार मध्यप्रदेश, बलात्कार के 4882 मामलों के साथ देश में टॉप पर रहा है। क्या ये जो मामले रिपोर्ट हुए हैं, उनकी शिकार महिलाओं को भी इसी तरह जल्द न्याय की उम्मीद नहीं करनी चाहिए? रेप के मामले में दोषियों को सजा दिलवाने में तंत्र की सक्रियता और संवेदनशीलता तो तभी मानी जाएगी जब हर मामले में फैसला इतनी ही तेजी से हो।
केवल राजधानी में हुए एक मामले में रिकार्ड समय में फैसला करवाकर सरकार या पुलिस तंत्र वाहवाही लूटने की कोशिश न करे। यह समाज और मीडिया का दबाव था जिसने सरकार और पुलिस एवं न्याय तंत्र को इतनी जल्दी फैसला सुनाने पर मजबूर किया। वरना आज भी अदालतों में और पुलिस थानों में ऐसे हजारों केस लंबित हैं और उनके भुक्तभोगी बरसों से चक्कर लगा रहे हैं।
निश्चित रूप से ताजा मामले ने एक बात साबित कर दी है कि तंत्र यदि चाहे तो फैसला जल्दी हो सकता है, दोषियों को सख्त सजा मिल सकती है, लेकिन सवाल वही है कि अपराध और न्याय तंत्र ऐसा चाहे तो? एक मुद्दा पीडि़तों के खुलकर सामने आने का भी है। भोपाल के केस में पीडि़ता ने जो साहस दिखाया वह बेमिसाल है। लेकिन हर बार ऐसा नहीं होता। एक बार को पीडि़त यदि दोषी को सजा दिलवाना भी चाहे तो खुद तंत्र में बैठे लोग ही उसे हतोत्साहित करते हैं।
घटनाएं गवाह हैं कि पीडि़ताओं को कभी कानून कचहरी की झंझट का हवाला देकर, तो कभी सामाजिक बदनामी का डर दिखाकर चुप रहने को मजबूर किया जाता है। ऐसे में भोपाल कांड का सबसे बड़ा संदेश और सबक यही है कि सबसे पहले तो ऐसे अपराध का शिकार हुई महिलाएं खुद हिम्मत करके आगे आएं। दूसरे, सरकार केवल एक केस में कार्रवाई करवाकर अपनी पीठ ठोकने के बजाय बलात्कार का हर मामला फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुने जाने की व्यवस्था करे।
इसके लिए पुलिस मुख्यालय में जांच और अभियोजन पर सतत निगरानी का पुख्ता इंतजाम करने के साथ ही हर जिले में महिला अत्याचार के ऐसे मामले सुने जाने हेतु अलग फास्ट ट्रैक कोर्ट की व्यवस्था की जानी चाहिए।