पुराने भोपाल के गरम गड्ढा कब्रिस्तान में 15 नवंबर को दोपहर जब मैं सुपुर्दे खाक किए जा रहे जब्बार भाई की अंतिम क्रिया के दौरान उनके पार्थिव शरीर पर मिट्टी डाल रहा था तो अपने भीतर एक गरम गड्ढा महसूस कर रहा था। जब्बार भाई यानी भोपाल गैस त्रासदी से पीडि़त लोगों के बीच काम करने वाले अब्दुल जब्बार। एक ऐसा शख्स जिसने उस हादसे के बाद अपना पूरा जीवन ही गैस पीडि़तों के हकों की लड़ाई के लिए झोंक दिया था। जब्बार भाई का 14 नवंबर की रात इंतकाल हो गया। वे रहते भी पुराने भोपाल में ही थे, ऐन उसी इलाके में जो गैस कांड से सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ था और उन्हें दफनाया भी उसी इलाके में गया।
यह सूचना मुझे गुरुवार रात को ही मिल गई थी कि जब्बार भाई को जुमे के दिन दोपहर बाद गरम गड्ढा कब्रिस्तान में सुपुर्दे खाक किया जाएगा। लेकिन इसी बीच विकास संवाद के सचिन जैन का फारवर्डेड संदेश आया कि जब्बार भाई के साथी अंतिम यात्रा से पहले उनके राजेंद्र नगर स्थित घर पर जुटेंगे। मैं समय रहते उनके घर नहीं पहुंच पाया तो ढूंढते ढांढते सीधे कब्रिस्तान पहुंचा। घर से चलते समय कब्रिस्तान के माहौल को लेकर मेरे मन में जो छवियां बन रही थीं उनमें एक पत्रकार के नाते जब्बार भाई के साथ गुजारे लमहों के साथ साथ, एक छवि यह भी थी कि आज कब्रिस्तान में पैर रखने की जगह नहीं होगी। जिन हजारों लाखों गैस पीडि़तों के लिए जब्बार भाई ने पूरा जीवन दे दिया, वे अपने रहनुमा को ऐसे ही कैसे जाने देंगे?
लेकिन कब्रिस्तान में मुझे वो भोपाल नजर नहीं आया। लोग थे जरूर लेकिन न तो वहां वैसा जन सैलाब उमड़ा था और न ही उन लोगों की तादाद दिखाई दी जिन्हें जब्बार भाई के संघर्ष की वजह से जाने कितनी तरह के हक और राहतें मिली थीं। वहां थे तो उनके कुछ पुराने साथी, कुछ पुराने पत्रकार जिन्होंने गैस कांड को कवर करने से लेकर उसके बाद के संघर्ष को देखा और रिपोर्ट किया था और स्वयंसेवी संगठनों से जुड़े लोग जिनके लिए जब्बार भाई आदर्श थे। मन इस बात पर भी कसैला हुआ कि जब्बार भाई के लिए न तो वहां कैमरों की कतार थी और न ही कोई पीटीसी कर रहा था। शायद समाज के लिए काम करते हुए मर जाने वालों की आखिरी विदाई ऐसे ही होती है।
जब्बार भाई की तबियत बहुत खराब है और वे बहुत संकट के दौर से गुजर रहे हैं यह बात हमें 9,10,11 नवंबर को ग्वालियर में हुए विकास संवाद के मीडिया कॉन्क्लेव में ही पता चल गई थी। सचिन भाई (सचिन जैन) ने जब जानकारी शेयर की थी तभी यह विचार बन गया था कि उनके लिए हमीं लोगों को मिलकर कुछ करना चाहिए। और इसीके तहत व्यक्तिगत योगदान के लिए एक अपील भी जारी की गई थी। लेकिन जिंदगी भर खुद्दारी से जिये जब्बार भाई को शायद ऐसी कोई ‘खैरात’ मंजूर नहीं थी जो इस दुनिया से जाते-जाते उनके नाम पर ‘बट्टा’ लगा दे। इससे पहले कि कोई राशि जुटती और उससे उनके बेहतर इलाज की व्यवस्था हो पाती, उन्होंने चले जाना ही बेहतर समझा। अब वह अपील उनके परिवार की मदद की अपील में तब्दील की गई है।
जब्बार भाई दिल की बीमारी से लेकर गंभीर डायबिटीज के मरीज थे। इन बीमारियों ने उनके शरीर को खोखला कर दिया था। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की एक कमेटी में उनके साथ मैं भी था और कमेटी की संयोजक रोली शिवहरे से एक दिन जब्बार भाई ने कहा भी था कि सेहत ठीक न होने के कारण वे बैठकों में आ नहीं पाएंगे। हाल ही में सचिन भाई ने जब यह जानकारी दी कि जब्बार भाई को पैर में गैंगरीन हो गया है तभी से मैं यह जानने की कोशिश कर रहा था कि आखिर यह हुआ कैसे होगा? अंतिम संस्कार हो जाने के बाद शुक्रवार को जब्बार भाई के बेटे साहिल से मेरी बात हुई तो उसने बताया कि पापा का जूता फटा हुआ था और उसी वजह से पैर में चोट लगने से घाव हो गया था जो बाद में बढ़ता बढ़ता गैंगरीन तक जा पहुंचा।
कब्रिस्तान के माहौल से लेकर गैंगरीन के पीछे की कहानी ने जो सवाल खड़े किए हैं वे सोचने पर मजबूर करते हैं। पहला सवाल तो यही कि क्या समाज के लिए काम करने और अपना जीवन खपा देने वालों का ऐसा ही अंत होना चाहिए? क्या उनके सुख-दुख व जरूरतों के प्रति समाज के लोगों का कोई दायित्व नहीं बनता? क्या हम ऐसा ‘कृतघ्न’ समाज तैयार कर रहे हैं जो सिर्फ लेना ही जानता है, देना नहीं।
मैंने भोपाल गैस त्रासदी को एक पत्रकार के नाते कवर किया है। मैं जानता हूं कि इस त्रासदी के नाम पर बहुत सारे लोग क्या से क्या हो गए, लेकिन जब्बार भाई ने अपनी मुहिम को कभी पैसा कमाने का जरिया नहीं बनाया। इससे बड़ा सबूत और क्या हो सकता है कि जो व्यक्ति दूसरों के इलाज के लिए जिंदगी भर लड़ा, अपने अंतिम समय में उसके पास खुद का बेहतर इलाज कराने का इंतजाम नहीं था।
इसके साथ ही मुझे लगता है कि सार्वजनिक जीवन में काम करने वालों को आदर्शवादी होने के साथ साथ थोड़ा व्यावहारिक भी होना चाहिए। यदि वे समाज के लिए काम कर रहे हैं तो भी खुद को काम करने के लायक बनाए रखना, खुद की सेहत का ध्यान रखना भी उनकी सामाजिक जिम्मेदारी का ही हिस्सा है। इसके प्रति लापरवाही न सिर्फ खुद उनके लिए बल्कि उस समाज के लिए भी अच्छी नहीं, जिसकी चिंता में वे अपना जीवन होम कर देते हैं।
दूसरी बात नैतिकता की है। हमने सार्वजनिक जीवन में काम करने वाले लोगों पर ‘अतिशय नैतिकता’ की अपेक्षा का एक ऐसा दबाव बना दिया है जो संवेदनशील कार्यकर्ताओं का जीना दूभर कर देता है। समाज सेवा के नाम पर खुली डकैती करने वालों को तो कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन पूरी संवेदना और समर्पण के साथ काम करने वाले लोग इसका शिकार होकर रह जाते हैं। भूख-प्यास उन्हें और उनके परिवार को भी लगती है लेकिन खुद की बात करना उनमें एक अपराधबोध पैदा करता है। उन्हें लगता है कि अपने सुख-दुख या जरूरतों की बात की तो पता नहीं लोग क्या सोचेंगे? शायद यही कारण रहा होगा कि जब्बार भाई ने अपने फटे जूतों से लेकर अपनी बीमारियों तक को जाहिर करने में संकोच किया होगा।
उम्मीद की जानी चाहिए कि समाज के लिए काम करने वाले लोगों के सुख-दुख और जरूरतों को भी समाज उसी शिद्दत से समझेगा जितनी शिद्दत से वो उनसे अपनी समस्याओं के निराकरण की अपेक्षा रखता है। जब्बार भाई को श्रद्धांजलि देने के साथ हम कोशिश करें, कि अब किसी जब्बार को इस तरह न मरना पड़े।