राकेश दुबे
भारत के भविष्य की यह तस्वीर क्षुब्ध करने वाली है। देश में मन्दिर- मस्जिद का जोड़ घटाव चल रहा है और स्कूल बंद हो रहे हैं। इण्डिया समृद्ध हो रहा है और भारत को पीछे धकेला जा रहा है। देश में एक साल के भीतर कोई 20000 सरकारी स्कूल बंद कर दिए गये हैं। ये वे स्कूल हैं, जिनमें ज्यादातर निम्न आय वर्ग व वंचित समाज के बच्चे उम्मीदों से पहुंचते हैं। इशारा साफ है कि देश का शैक्षिक ढांचा लगातार इंडिया और भारत में विभाजित होता जाता रहा है। एक तरफ संपन्न तबके, पूंजीपतियों, नेताओं व नौकरशाहों के बच्चे महंगे स्कूलों में शिक्षित व प्रशिक्षित हो रहे हैं, वहीं सरकारी स्कूलों की बदहाली का विस्तार जारी है। राजनीतिक भ्रष्टाचार की तपिश शिक्षा की कोंपलें जला रही है।
शिक्षा मंत्रालय की स्कूल शिक्षा पर ताज़ा रिपोर्ट तो कम से कम यही बताती है। पिछले दिनों शिक्षा मंत्रालय के यूनीफाइड डिस्ट्रिक्ट इनफोर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन प्लस यानी यूडीआईएसई+ की 2021-22 की वार्षिक रिपोर्ट के आंकड़े कहते हैं कि एक साल में बीस हजार स्कूल बंद हुए हैं, यह गंभीर चिंता का विषय है। निस्संदेह, यह स्थिति सत्ताधीशों की लोक-कल्याणकारी दायित्वों से मुक्त होने की कहानी भी कहती है। इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह कि इस दौरान निजी स्कूलों के एक लाख शिक्षकों ने नौकरी गंवाई है। यदि इस सर्वेक्षण के आंकड़ों को सही मान लिया जाये तो भी शैक्षिक जगत की गंभीर विसंगति उजागर होती है।
वैसे तो कोरोना दुष्काल ने पूरी दुनिया के शैक्षिक ढांचे की चूलें हिला दी हैं। पूरी दुनिया में गरीब तबके के करोड़ों विद्यार्थी, खासकर ज्यादातर लड़कियां अब फिर से स्कूलों का मुंह नहीं देख पाएंगी। अनेक परिवारों पर दुष्काल के दौरान जीविका का संकट कहर बनकर बरपा है। प्राथमिकता पहले रोटी हमेशा रही है, शिक्षा गौण विषय रहा है। इस रिपोर्ट में भारतीय शैक्षिक ढांचे की हकीकत भी उजागर हुई है। रिपोर्ट बताती है कि सर्वेक्षण में शामिल देश के करीब 53 प्रतिशत स्कूलों में कंप्यूटर की सुविधा नहीं थी। वहीं 66 प्रतिशत स्कूलों में इंटरनेट नहीं पहुंचा। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि कोरोना दुष्काल के दौरान ऑनलाइन पढ़ाई के दावे कितने खोखले थे? इन बच्चों की पढ़ाई का इस दुष्काल काल में कितना नुकसान हुआ होगा? क्या ये बच्चे कभी भविष्य में निजी स्कूलों के छात्रों से मुकाबला कर पायेंगे?
रिपोर्ट के अन्य कई आंकड़े शैक्षिक जगत में विशाल खाई की असलियत खोल देते हैं। रिपोर्ट बताती है कि जैसे बिहार के 89 प्रतिशत स्कूलों में इंटरनेट की सुविधा नहीं है। करीब 83 प्रतिशत स्कूलों में प्रोजेक्टर से पढ़ाई की व्यवस्था नहीं है। देश के 23 प्रतिशत स्कूलों में खेल के मैदान नहीं हैं। करीब 83.3 प्रतिशत स्कूलों में लाइब्रेरी नहीं है।
आधुनिक शिक्षा से कोसों दूर इन स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों का भविष्य क्या होगा? जहां दस प्रतिशत से अधिक स्कूलों में बिजली नहीं पहुंची है। वहीं करीब ढाई प्रतिशत स्कूलों में छात्राओं के लिये शौचालय नहीं हैं। शिक्षा की इन बुनियादी जरूरतों के बिना बच्चे किन हालात में पढ़-लिख रहे हैं और क्या पढ़-लिख रहे हैं, उसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।
हकीकत में ये स्कूल बीमार भविष्य के वाहक बन गये हैं। ऐसे में इस कथन का क्या औचित्य है कि यह ज्ञान की सदी है? यह भी कि नई शिक्षा नीति धरातल पर कितनी प्रभावी रही है? कोरोना दुष्काल के बाद पुरानी स्थिति बहाल करना सत्ताधीशों की प्राथमिकता में क्यों नहीं है?
यहां यह सवाल भी स्वाभाविक है कि क्यों देश में शिक्षा प्रणाली में एकरूपता लाने और उसे समय की जरूरतों के अनुरूप ढालने के ईमानदार प्रयास नहीं होते हैं? क्यों शिक्षकों की नियुक्ति का जिम्मा भ्रष्ट व्यवस्था के हवाले किया गया है? सवाल यह भी है कि क्या हम लार्ड मैकाले के अभिशाप से मुक्त हो पाये हैं? सरकारें शिक्षा व्यवस्था में सुधार की जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकतीं, उसे अपना प्राथमिक कर्तव्य समझना चाहिए।
(लेखक की सोशल मीडिया पोस्ट से साभार)
(मध्यमत)
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