सोशल मीडिया: लोकतंत्र को सींच रहा है या उसकी जड़ें खोद रहा है?

अजय बोकिल

इसे संयोग मानें या कुछ और कि दुनिया के सबसे अमीर शख्स एलन मस्क ने सोशल मीडिया प्लेटफार्म ट्विटर को 44 अरब डॉलर में जिस दिन खरीदा, उसके चार दिन पहले ही अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने सनसनीखेज आरोप लगाया कि तमाम सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स लोकतंत्र को ‘कमजोर’ करने के लिए डिजाइन किए गए हैं। उन्होंने कहा कि गलत सूचना (डिसइन्फार्मेशन) हमारे लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा है। उधर ट्विटर को खरीदने के बाद मस्क ने दावा किया कि वो इस प्लेटफार्म पर ‘फ्री स्पीच’ का संरक्षण करेंगे। फेक न्यूज को सख्‍ती से बंद कराएंगे।

ओबामा के वक्तव्य और एलन मस्क के दावों के बीच यह सवाल फिर रेखांकित हो रहा है कि सोशल मीडिया वास्तव में लोकतंत्र के बुनियादी घटक ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ का सशक्त माध्यम है या फिर फर्जी सूचनाएं और एजेंडों के जरिए लोकतंत्र की जड़े हिलाने का सुनियोजित जरिया है? ओबामा के बयान से सोशल मीडिया और लोकतंत्र के परस्पर रिश्तों पर नई बहस छिड़ गई है और वो ये कि सोशल मीडिया ने अपनी बात निर्भीकता से कहने की स्वतंत्रता के स्पेस को किस कदर फेक खबरों, कुत्सित, विवेकशून्य तथा दुष्प्रेरित सूचनाओं से डंप करने की कोशिश की है। यानी व्यक्ति तक सीधी पहुंच का सबसे खतरनाक पहलू यही है कि वो सीधी मिलने वाली गलत सूचना को भी यथार्थ से ज्यादा प्रामाणिक मानने लगा है?

चौदह साल पहले दुनिया में जब सोशल मीडिया का उदय हआ था, तब माना जा रहा था कि कम्प्यूटर और प्रौद्योगिकी द्वारा रचित यह माध्‍यम व्यक्ति को अपनी बात कहने का ऐसा मंच है, जिस में कोई फिल्टर नहीं है। कोई किंतु, परंतु और प्रश्नार्थक भाव नहीं है। आप बेबाकी और बेरहमी से अपने जज्बात व्यक्त कर सकते हैं। भौतिक दूरियों को ऑनलाइन संपर्कों से पाट सकते हैं। अखबार, टीवी, तार, चिट्ठी और संदेशों के परंपरागत तरीकों से अलग यह ऐसा माध्यम था, जो आभासी तरीके से वास्तविक दुनिया को जोड़ता था। लेकिन जैसे-जैसे दुनिया इस मीडियम पर भरोसा करती गई, वैसे-वैसे इन सोशल मीडिया प्लेटफार्मों के ‘खेल’ करने की ताकत भी बढ़ती गई।

आज गूगल, फेसबुक, व्हाट्सएप, ट्विटर, इंस्टाग्राम आदि ऐसे सामाजिक माध्यम हैं, जो न सिर्फ मन से मन की बात का जरिया हैं बल्कि तमाम देशों के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक तं‍त्र को गहरे तक प्रभावित करते हैं। सच और झूठ में रंगी यह ऐसी दुनिया है, जिसका कौन-सा सिरा कहां से शुरू होता है और कहां खत्म होता है, समझना लगभग असंभव है। वर्तमान में दुनिया की आबादी करीब 7 अरब है। इसमें से साढ़े 4 अरब से ज्यादा लोग सोशल मीडिया यूजर्स हैं। यह संख्या बढ़ती ही जा रही है।

लोकतांत्रिक देशों में सियासी पार्टियां इन सोशल मीडिया की लोगों तक सीधी पहुंच को असरदार माध्यम मानकर काम करती हैं, लेकिन हकीकत में वो स्वयं भी एक खास एजेंडे की भागीदार बन जाती हैं। यही कारण है कि इन साइट्स पर की जाने वाली राजनीतिक और व्यक्तिगत टिप्पणियां कई बार लोकतंत्र की मर्यादाओं को न सिर्फ लांघने बल्कि उसे  लोकतंत्र को खारिज करने का आग्रह लिए होती हैं। आप अपनी सुविधा और स्वार्थ से सच को झूठ और झूठ का सच साबित करते हैं।

पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने सोशल मीडिया के बारे में टिप्पणी हालांकि खुद को लोकतंत्र का पहरेदार मानने वाले अमेरिका के बारे में की है, लेकिन कमोबेश यह उन सभी लोकतांत्रिक देशों के लिए हैं, जो खुद सोशल मीडिया की दैत्याकार शक्ति से परेशान हैं। ओबामा ने अमेरिका की प्रतिष्ठित स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी में हाल में दिए अपने भाषण में कहा कि वर्तमान में ‘इतिहास का यह एक और कोलाहलपूर्ण और खतरनाक समय है।‘ गलत सूचना हमारे लोकतंत्र के लिए खतरा है और यह खतरा तब तक जारी रहेगा जब तक कि हम इससे मिलकर नहीं निपटते।

इसी संदर्भ में ओबामा ने अमेरिका में 2016 के राष्ट्रपति चुनाव में रूस की दखलंदाजी और यूक्रेन पर रूसी हमले का जिक्र भी किया। उन्‍होंने कहा कि (सोशल मीडिया के जरिए) आप चाहें तो किसी सार्वजनिक चौराहे को गंदगी से भर दें, चाहें तो तमाम सवाल खड़े कर खूब अफरा तफरी फैला दें, ऐसी साजिशें रचें कि लोग समझ ही न पाएं कि वो आखिर किस बात पर भरोसा करें। हम वो काट रहे हैं, जो सोशल  मीडिया कंपनियों ने बोया है। आज की बहुत सी नई समस्याएं इस नई प्रौद्योगिकी का अनिवार्य बाय प्रॉडक्ट (सह उत्पाद) हैं। यही कंपनियां आज इंटरनेट को डॉमिनेट कर रही हैं।

ओबामा ने कहा कि ‘आज सच और झूठ तथा सहयोग और टकराव के बीच प्रतिस्पर्द्धा चल रही है।‘ उनका आशय यह था कि आप किसी सूचना के एक पक्ष को लेकर ही अभियान छेड़ देते हैं। दूसरा पक्ष (जो सत्य हो सकता है) आपको कभी पता ही नहीं चलेगा या आपके मन मस्तिष्क को इतने कलुष से भर दिया जाएगा कि आप सच सामने आने पर भी उसे खारिज करते रहेंगे।

ओबामा ने जो कुछ कहा उसे अकेले अमेरिका ही नहीं, दुनिया के तमाम देश भी भुगत रहे हैं। लेकिन उसे रोक पाने की ताकत शायद किसी में नहीं है। चीन जैसे कुछेक देशों ने विदेशी सोशल मीडिया पर रोक लगाई है, लेकिन वहां इससे भी ज्यादा बदतर स्थिति इसलिए है, क्योंकि वहां सरकार संचालित सोशल मीडिया ही अभिव्यक्ति का माध्‍यम है। जो वो बताए वही ‘सत्य’ मानना मजबूरी है। ज्यादातर रूसियों को नहीं पता कि उनकी सेना यूक्रेन में कैसा कहर ढा रही है। कुछ ऐसी ही प्रत्यक्ष या परोक्ष कोशिश हमारे यहां भी हो रही है। घटना का एक पक्ष दिखाकर यह अपेक्षा की जाती है कि आप उसी को सौ फीसदी सच मानकर अपने दिमाग पर ताला डाल दें।

वैसे सोशल मीडिया से लोकतंत्र को खतरे की बहस नई नहीं है। असंपादित सूचनाओं के इस विश्व से सूचनाओं की नैसर्गिक और काफी हद तक आजमाई हुई दुनिया को कई तरीको से खतरा है। यहां हमें गलत सूचना (मिसइन्फर्मेशन) और दुष्प्रचार (डिसइन्फर्मेशन) के बारीक अंतर को भी समझना होगा। गलत सूचना वास्तव में असत्य जानकारी होती है। जबकि दुष्प्रचार गढ़ी गई असत्य जानकारी होती है। आम लोग इनके फर्क को नहीं समझते। लिहाजा सोशल मीडिया के माध्यम से जो परोसा जाता है, उसे ही ‘प्रसाद’ मानकर ग्रहण करते जाते हैं। इससे दुष्प्रचारक का मकसद सिद्ध होता रहता है।

इसका सबसे बढि़या उदाहरण है ह्वाट्सएप पर चलने वाली वो पोस्ट है, जिसकी शुरुआत ही इस वाक्य से होती है कि ‘यह ह्वाट्सएप ज्ञान नहीं है…’ इसका निहितार्थ यही है कि ज्ञान देने वाला भी पहले से इस बात को माने बैठा है कि ह्वाट्सएप पर दिया जाने वाला ज्यादातर ज्ञान प्रोपेगंडा या फिर झूठ का पुलिंदा है और वो इसमें अपना नया योगदान दे रहा है।

ऐसे सूचना तंत्र को हवा देने का सर्वाधिक फायदा उन नकारात्मक प्रवृत्तियों को होता है, जो अंतत: लोकतंत्र को गैर जरूरी अथवा अप्रांसगिक सिद्ध करने पर आमादा होती हैं। साम्प्रदायिक नफरत, धार्मिक कट्टरवाद,  नस्लवाद, रंगभेद, जातिवाद, लिंगभेद, अमीर-गरीब के बढ़ती खाई, एकांगी सोच, न्याय की मनमाफिक व्याख्या आदि ऐसी बुराइयां हैं, जो सोशल मीडिया के घोड़े पर सवार होकर अपना असर दिखा रही हैं। इस जबरदस्‍त चढ़ाई से मानवीयता, परस्पर समझ और मनुष्य का एक दूसरे के प्रति आदर भाव लगभग पराजित मुद्रा में है।

हालांकि यह मान लेना कि सोशल मीडिया में सब घटाटोप ही है, सही नहीं है। यदा-कदा आशा की किरणों के रूप में मानवीय करुणा, एक दूसरे के दर्द की शेयरिंग और सकारात्मकता के भाव भी झलक जाते हैं, लेकिन वो क्षणिक ज्यादा होते हैं। इसके विपरीत सत्ता स्वार्थ, जाति या धर्म के वर्चस्व से प्रेरित एकालापी एजेंडे कुलांचे भरते ज्यादा दिखते हैं।

बहरहाल जो ‘ट्विटर’ फेक न्यूज और सुनियोजित एजेंडे को बढ़ाने के लिए बदनाम हो रही थी, आर्थिक रूप से भी घाटे में चल रही थी, उसे एलन मस्क ने खरीद लिया है। इसका अर्थ यह भी है कि सोशल मीडिया भी एक निवेश का प्लेटफार्म है, जिसमें पैसा लगाकर और ज्यादा माल कमाया जा सकता है। उसी प्लेटफार्म के लिए मस्क ने वादा‍ किया है कि वो अब ट्विटर में निहित ‘जबरदस्त क्षमता’ को ‘अनलॉक’ करेंगे। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को जब ट्विटर ने अपने प्लेटफॉर्म से बैन किया था, उसी समय मस्क ने कहा था कि वो इस मंच को ‘सुधारना’ चाहते हैं।

मस्क ने ताजा ट्वीट में कहा कि फ्री-स्पीच’ एक कार्यशील लोकतंत्र का आधार है और ट्विटर डिजिटल की दुनिया का एक टाउन स्क्वायर (चौपाल) है, जहां मानवता के भविष्य के लिए महत्वपूर्ण मामलों पर बहस होती है। लोगों में इस प्लेटफॉर्म को लेकर विश्वास बढ़ाने के लिए एल्गोरिदम को ओपन-सोर्स बनाना, स्पैम बॉट्स को हटाना और सभी लोगों को पहचान को प्रमाणित करना इसमें शामिल होगा।” हो सकता है कि मस्क ने जो कहा है, वैसा करें भी, लेकिन क्या ऐसे प्रयासों को वो ताकतें सफल होने देंगी, जो सोशल मीडिया को अपनी स्वार्थ‍ सिद्धि का माध्‍यम मानती हैं और वाक् स्वातंत्र्य की आड़ में लोकतंत्र का ही गला घोटना चाहती हैं।
(मध्यमत)
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