पूरा देश इस समय असम में नैशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस (एनआरसी) का फाइनल ड्राफ्ट जारी होने के बाद शुरू हुए विवाद में उलझा है। या यूं कहें कि उलझा दिया गया है। 40 लाख घुसपैठियों से जुड़े इस विवाद का गणित चूंकि राजनीतिक फायदे नुकसान से भी वास्ता रखता है इसलिए चारों ओर से इसे हवा देने का काम चल रहा है। इसके चलते और दूसरे कई महत्वपूर्ण मामले लोगों के ध्यान में ही नहीं आ पा रहे।
ऐसा ही एक मामला अनुसूचित जाति-जनजाति कानून में बदलाव का है। मोदी कैबिनेट ने हाल ही में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम में संशोधन को मंजूरी दे दी है। संकेत हैं कि इस संशोधित बिल को सरकार संसद के मौजूदा सत्र में ही पेश करेगी। इस मामले की प्रकृति ही ऐसी है कि संसद में कोई इसका विरोध करेगा इसकी संभावना नगण्य है।
दरअसल एससी/एसटी एक्ट के दुरुपयोग के अनेक मामले सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे थे और गत मार्च में कोर्ट ने इनका निपटारा करते हुए कहा था कि कई मामलों में निर्दोष नागरिकों को आरोपी बना दिया जाता है। सरकारी कर्मचारी इस कानून के शिकंजे में फंसने के डर से अपने कर्तव्यों को अंजाम नहीं दे पाते। जबकि यह कानून बनाते समय विधि निर्माताओं की मंशा ऐसी नहीं रही होगी।
कोर्ट ने इस कानून के तहत मामला दर्ज करने और आरोपित की गिरफ्तारी को लेकर कुछ दिशानिर्देश भी जारी किए थे। उसने कहा था कि न्यायिक समीक्षा में प्रथम दृष्ट्या मामला यदि झूठा लगता है तो अग्रिम जमानत दी जा सकती है। ऐसे मामलों में कानून का उल्लंघन करने वाले सरकारी कर्मचारी को उसके नियोक्ता और सामान्य नागरिक को एसएसपी की मंजूरी के बाद ही गिरफ्तार किया जाएगा।
कोर्ट के इन दिशानिर्देशों के बाद से ही देशभर में राजनीति शुरू हो गई थी। अनेक राजनीतिक दलों ने इसे एससी/एसटी कानून को कमजोर करने वाला आदेश बताया था। आदेश के विरोध में आरक्षित वर्गों से जुड़े संगठनों के समर्थन से अप्रैल में आयोजित भारत बंद के दौरान भारी हिंसा हुई थी जिसमें कई लोग मारे गए थे।
उसके बाद से सरकार पर लगातार दबाव बना हुआ है कि वह कोर्ट के कदम को प्रभावहीन करे। यह दबाव न सिर्फ विपक्षी दलों की तरफ से है बल्कि एनडीए के घटक दलों यानी सरकार के समर्थक दलों की ओर से भी बनाया गया है। लोक जनशाक्ति पार्टी के नेता और केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान का रवैया इस मुद्दे पर काफी मुखर था।
पासवान ने इस संबंध में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र भी लिखा था। उनका कहना था कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद मोदी सरकार की छवि दलित विरोधी बन रही है। जिस तरह कोर्ट के फैसले के बाद भारत बंद का नारा दिया गया था वैसे ही आरक्षित वर्गों के हितों के संरक्षण के लिए विपक्षी दलों और दलित संगठनों ने 9 अगस्त को फिर से भारत बंद का नारा दिया है।
विरोध और दबाव की हालत यह है कि हाल ही में जब सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस ए.के. गोयल को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का अध्यक्ष नियुक्त किया गया तो लोक जनशक्ति पार्टी ने उसका पुरजोर विरोध किया। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट की जिस पीठ ने एससी/एसटी एक्ट के कुछ प्रावधानों की पुनर्व्याख्या की थी, उस पीठ में ए.के. गोयल भी शामिल थे।
एससी/एसटी एक्ट के मामले पर सरकार ने जिस तरह से कदम पीछे खींचते हुए कानून में बदलाव कर, उसे जस का तस रखने का फैसला किया है, उसके दूरगामी परिणाम होंगे। जब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया था तो सरकार की ओर से दलील दी गई थी कि कोर्ट कानून बनाने का काम नही कर सकती। इस पर कोर्ट का जवाब था कि उसने कानून में कोई बदलाव नहीं किया सिर्फ उसकी व्याख्या करते हुए उसके प्रावधानों से पीडि़त होने वाले निर्दोष लोगों को बचाने का प्रयास किया है।
दरअसल एससी/एसटी एक्ट पर सरकार जो करने जा रही है उसने चार दशक पुराने शाहबानो केस की याद दिला दी है। मध्य प्रदेश के इंदौर की निवासी 62 वर्षीय शाहबानो ने 1978 में पति द्वारा तलाक दिए जाने के बाद अपने गुजारा भत्ते को लेकर सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाई लड़ी थी।
पांच बच्चों की मां शाहबानो को लंबे कानूनी संघर्ष के बाद जीत हासिल हुई थी। कोर्ट ने कहा था कि अपराध दंड संहिता की धारा 125 हर किसी पर लागू होती है चाहे वो किसी भी धर्म, जाति या संप्रदाय का हो। शाहबानो के पति मोहम्मद खान को आदेश दिया गया था कि वह पत्नी को गुजारा भत्ता दे।
लेकिन ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पुरजोर विरोध किया था। तलाक भत्ते पर देशभर में राजनीतिक बवाल मच गया। नतीजा यह हुआ कि राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम महिलाओं को मिलने वाले मुआवजे को निरस्त करते हुए एक साल के भीतर मुस्लिम महिला (तलाक में संरक्षण का अधिकार) अधिनियम, (1986) पारित कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया।
एससी/एसटी एक्ट को लेकर भी वैसा ही होने जा रहा है। भारत की सरकार एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को राजनीतिक कारणों से, कानून बनाकर, पलटने जा रही है। जो काम राजीव गांधी सरकार ने किया था, वैसा ही काम मोदी सरकार भी कर रही है।
हो सकता है चुनाव के मौसम में ऐसा करना सरकार की मजबूरी हो। लेकिन मोदी सरकार तो अपनी ‘दृढ़ता’ के लिए जानी जाती रही है। ऐसे में यदि कोर्ट के फैसले को शून्य करने के लिए एससी/एसटी कानून में बदलाव कर उसे यथावत रखा जाता है तो यह न सिर्फ प्रतिगामी कदम होगा बल्कि देश की सर्वोच्च अदालत की साख को भी धक्का पहुंचाएगा।
कोर्ट ने एक कानून के दुरुपयोग को रोकने के लिए ही कुछ दिशानिर्देश दिए हैं, उसने साफ किया है कि एससी/एसटी कानून में वह कोई बदलाव नहीं कर रहा। फिर भी यदि कानून को संशोधित किया जाता है तो माना जाएगा कि सरकार के फैसले गुण दोषों के आधार पर नहीं, जाति और वर्ग के आधार पर हो रहे हैं…