गिरीश उपाध्याय
हाल ही में मोदी सरकार के दो साल को लेकर चल रही चर्चा के दौरान एक मित्र ने सवाल उठाया कि- क्या मीडिया सरकारों को तानाशाही के लिए नहीं उकसाता? सवाल पेचीदा था, लंबी बहस का समय भी नहीं था इसलिए उस समय मैंने वो बात हंसकर टाल दी। लेकिन जैसाकि आमतौर पर होता है, किसी पत्रकार के दिमाग में सवाल या विचार का कोई कीड़ा घुस जाए, तो वह उसे चैन से नहीं रहने देता। मित्र का वह सवाल भी कीड़ा बनकर घुस गया था। सोच विचार के बाद मोटे तौर पर इस सवाल का जो जवाब बना वह हां और ना दोनों में था। लेकिन एक वाक्य में उत्तर यह आया कि- हां, मीडिया भी सरकारों को तानाशाही के लिए उकसाता है।
सवाल और जवाब में केवल एक शब्द ही बदला है। सवाल था ‘मीडिया ही’ और जवाब है ‘मीडिया भी।‘
आप कहेंगे, वो कैसे? तो सुनिए…
आज मीडिया का परिदृश्य बहुत बदल गया है। एक समय मीडिया की बुनियादी सोच सकारात्मक होती थी, इसलिए वह हिन्दी फिल्मों की तरह ‘‘अंत भला तो सब भला’’ के सिद्धांत पर चलता था। लेकिन आज मीडिया की मूल सोच नकारात्मक है, इसलिए मीडिया- ‘’अंत बुरा तो सब भला’’ के हाई-वे पर दौड़ रहा है। मीडिया की रुचि किसी समस्या का समाधान करने में नहीं, बल्कि बात का बतंगड़ बनाने में है। विवाद को ठंडा करने में नहीं, समस्या को बनाए रखने में है। एक जमाने में जमाखोर और कालाबाजारिए यही किया करते थे। अच्छा और सस्ता माल होने के बावजूद वे उसे जनता तक नहीं पहुंचने देते थे। उनका धंधा ही किल्लत पर चलता था। किल्लत बनी रहे तो मुनाफा भी मोटा होगा, इसी का नाम कारोबार था। आज भी कुछ कुछ वैसा ही है। विवाद या समस्या बनी रहे तो मुद्दा भी जिंदा रहेगा। मुर्दा खबरों के इस संसार में खबरें सनसनी के वेंटीलेटर पर जिंदा रखी जाती हैं।
मित्र का मूल प्रश्न व्यवस्था या खासतौर से शासन व्यवस्था की तानाशाही से था। शासक का तानाशाही स्वरूप तो बहुत देर से या बाद में देखने को मिलता है, लेकिन मीडिया की तानाशाही तो पिछले कुछ सालों से सतत जारी है। और ताज्जुब देखिए कि लोग इसे लोकतंत्र की आजादी के वंदनवार के रूप में अपने घरों पर सजाए हुए हैं। मेरी राय से बहुत से लोग असहमत होंगे, मेरे हमपेशा लोग तो मुझ पर लानत भेजेंगे। लेकिन भीतर से मैं महसूस करता हूं कि हमने अपने आपको राजनीति या शासन तंत्र के मुकाबले कहीं अधिक तानाशाह बना लिया है।
सवाल यह उठता है कि जब मीडिया तानाशाही में लट्टपट्ट है, तो फिर वह लोकतांत्रिक या लोकतंत्र का रखवाला कैसे नजर आता है। दरअसल यह एक भ्रमजाल या इल्यूशन है, जो समाज ने खुद बुना है। राजनीतिक दलों से ज्यादा राजनीतिक तो हम या हमारा समाज हो गया है। इसलिए हमारा मानस भी पार्टीबाजों की तरह ही रिएक्ट करता है। मीडिया यदि हमारी मनचाही कहे तो वह हमें लोकतांत्रिक नजर आता है और यदि हमारी ठकुरसुहाती न हो तो विलेन या तानाशाह। मीडिया वही है, बस चोले या पाले का रंग बदलता रहता है और उसके हिसाब से उसके प्रति बनाई जाने वाली धारणा भी। चूंकि विवाद या सनसनी की तलाश में मीडिया को कभी इधर तो कभी उधर मुंह मारना होता है, इसलिए कभी वह इसका समर्थक और उसका विरोधी प्रतीत होता है, तो कभी उसका समर्थक और इसका विरोधी।
समाचारों की इस मंडी में खबरों के नाम पर खोटे सिक्के चलाए जा रहे हैं और चूंकि बाजार के स्वभाव के विपरीत इस कारोबार में खोटे सिक्के लोग खुशी खुशी स्वीकार कर रहे हैं, इसलिए उनका चलन बना हुआ है। आज यदि किसी को खबर के नाम पर कोई खोटा सिक्का दे जाए, तो वह सिक्का दे जाने वाले को खरी खोटी सुनाने के बजाय इस इंतजार में बैठा रहता है कि कब यह व्यापारी उसके विरोधी के हाथ में भी खोटा सिक्का धर कर आता है। यहां संतुलन दोनों पलड़ों में खरे माल से नहीं बल्कि दोनों पलड़ों में खोटे माल से तय होता है।
मीडिया जब जब भी खोटगिरी का यह संतुलन नहीं बैठा पाता तो वह शासन व्यवस्था में अजीब तरह की खीज पैदा करता है। पहले यह झुंझलाहट के रूप में होती है और फिर धीरे धीरे तानाशाही में बदलने लगती है। खबरों से खेलता हुआ मीडिया ‘ऑब्जेक्टिव’ के बजाय ‘सब्जेक्टिव’ हो जाता है। ऐसे में शासन तंत्र उससे यह अपेक्षा नहीं करता कि वह उसके और सामने वाले के गुणों की तुलना करे। अपेक्षा यह होती है कि हमारा जो भी, जैसा भी है उसे गुण के रूप में या सफेद रंग में दिखाया जाए और विरोधी का जो भी, जैसा भी है वह सिर्फ और सिर्फ अवगुण अथवा काले रंग में ही दिखाया जाए। जब मीडिया ऐसा करने में असमर्थ होता है (और वह होता ही है), तो चरम अवस्था में यह स्थिति शासक को तानाशाही की ओर ले जाती है।
चूंकि मीडिया अभिव्यक्ति का वाहक है और तानाशाही में सबसे पहला प्रहार अभिव्यक्ति के गले पर ही होता है, तो खांडा भी मीडिया पर ही चलता है। शासक समझता है कि यदि इसका खात्मा कर दिया जाए तो विरोधियों का कोई नामलेवा नहीं रहेगा। शासक के इस व्यवहार पर मीडिया जोर-जोर से चिल्लाता है कि अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंटा जा रहा है। लेकिन चिल्लाते समय वह यह भूल जाता है कि इस काली रस्सी को तो खुद उसने ही बुना है और गर्दन के इर्दगिर्द लपेटा भी उसी ने है। और तो और इस फंदे को कसने के लिए सामने वाले को उकसाया भी उसी ने है। यदि उसने ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाया होता तो तानाशाही का तानाबाना बुना ही नहीं जा सकता था।
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