अतुल तारे
यह निःसंदेह आश्चर्यजनक नहीं है। प्रत्याशित ही है। पर राष्ट्रीय राजनीति के लिए यह एक पाठ अवश्य है। आम आदमी पार्टी एक आंदोलन के गर्भ से जन्मी है। ‘आप’ अप्रासंगिक होगी यह भविष्यवाणी इस बार के जन्म से ही बार-बार की जाती रही है। पर अब ‘आप’ को एक राजनीतिक विकल्प के रूप में देखा जा रहा है। यह राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की एक तरह से पराजय है।
हालांकि चुनाव नतीजे ‘आप’ के लिए भी सबक लेकर ही आये हैं। पार्टी अपने दिग्गज मनीष सिसोदिया, सत्येंद्र जैन, अमानतुल्ला खान और कैलाश गहलोत के इलाकों में हारी है। उसका वोट शेयर भी गिरा है। पर पहले दिल्ली प्रदेश, फिर पंजाब और अब स्थानीय निकाय में ‘आप’ की विजय नए सिरे से सोचने का अवसर देती है।
‘आप’ ने दिल्ली में मुफ्तखोरी को हथियार बनाया यह सच है। पर क्या इस संस्कृति की शुरुआत ‘आप’ ने की थी? और क्या ‘आप’ की जीत सिर्फ सब कुछ निशुल्क किए जाने के कारण ही है? यह जीत का एक कारण हो सकता है पर सिर्फ इतना विश्लेषण सतही है। अधूरा है। यह मतदाताओं का अपमान भी है। आखिर जो राष्ट्रीय दल दशकों से राज कर रहे हैं, क्या उनको स्वयं को अपने ‘आप’ को देखने का,परखने का यह समय नहीं है?
भाजपा देश के अधिकांश राज्यों में है। दो बार से केंद्र में है। और आज भी दिल्ली के मतदाता यह कह रहे हैं कि केंद्र में मोदी या भाजपा ही विकल्प है। वे ही मतदाता आखिर क्यों दिल्ली में अपना भविष्य ‘आप’ के साथ देख रहे हैं। पंजाब में ‘आप’ विगत विधानसभा चुनाव में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल रही और आज सरकार में है। मध्यप्रदेश के सिंगरौली में उनकी विधायक प्रत्याशी दूसरे नंबर पर रहती है और स्थानीय निकाय में महापौर। यहीं नहीं कई सीटों पर वह समीकरण बिगाड़ने में सफल रही।
भाजपा के लिए, आज से कुछ दशक पहले दिल्ली एक गढ़ था। सर्वश्री विजय कुमार मल्होत्रा, मदनलाल खुराना, साहिब सिंह वर्मा सहित ऐसे कई दिग्गज थे जिन्होंने भाजपा को अपने परिश्रम से खड़ा किया। आज दिल्ली भाजपा में नियमित रूप से प्रयोग हो रहे हैं। केंद्र में जब से भाजपा आई है। या अन्य राज्यों में जहां वह सत्ता में है, प्रदेश भाजपा के नेता सुबह कलफ लगाकर कुर्ता पजामा पहनते हैं और केंद्रीय भाजपा कार्यालय की प्रदक्षिणा को ही अपना कार्य मान रहे हैं। जमीनी संघर्ष, दिल्ली में भाजपा भूल चुकी है। स्थानीय निकाय भ्रष्टाचार के केंद्र बन गए हैं। कार्यकर्ता से संवाद टूट चुका है। परिणाम पहले दिल्ली प्रदेश से भाजपा साफ हुई, अब ‘आप’ ने निकाय में झाड़ू लगा दी।
कांग्रेस तो सम्भवतः तय ही कर चुकी है कि वह हारने के लिए ही है। यूँ भी कांग्रेस दो बार लगातार सत्ता से बेदखल होती है तो वह लगभग मृतप्राय हो चुकी होती है। परिणाम इसका प्रमाण दे रहे हैं।
कल गुजरात और हिमाचल के नतीजे आ रहे हैं। सर्वे आंकड़ों के लिहाज से ‘आप’ के लिए उत्साहजनक नहीं है। पर ‘आप’ को वोट कितना मिलता है यह देखना महत्वपूर्ण होगा। भाजपा के लिए भी गुजरात में चिंता कांग्रेस से अधिक ‘आप’ की ही थी। कारण ‘आप’ अगर गुजरात में जगह जमाने मे सफल होती है तो 2027 में वह विकल्प के रूप में सामने आ सकती है।
‘आप’ का यह उदय एक खतरनाक राजनीतिक परिवर्तन है। दिल्ली में इसका असर मात्र आर्थिक मोर्चे पर दिखा, पर पंजाब जैसे संवेदनशील राज्य में ‘आप’ की सरकार के चिंताजनक परिणाम सामने आ रहे हैं। स्वयं को अराजक कहने में संकोच न करने वाले अरविंद केजरीवाल सत्ता के लिए कुछ भी कर सकते हैं। सीमावर्ती राज्य में आतंक का फन सिर उठा रहा है और यह राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए।
कांग्रेस के युवराज कौन सा भारत जोड़ रहे हैं, यह यात्रा के साथ जुड़े टुकड़े-टुकड़े गैंग के चेहरे स्पष्ट हो रहा है। एक क्षुद्र राजनीतिक लाभ के लिए ‘आप’ को खाली मैदान जिस प्रकार कांग्रेस दे रही है, वह अपराध की श्रेणी में है। वहीं भाजपा को भी चाहिए कि कांग्रेस को हराने की जिद में ऐसे अराजक प्रयोग सफल न हों, इसके लिए वह सचेत रहे।
भाजपा को विशेषकर चाहिए कि वह ‘आप’ की कार्य प्रणाली को समझे। यह मानना होगा कि ‘आप’ जन सरोकार के प्रति संवेदनशील है। वह जमीन से जुड़ी है। आम आदमी से उसका संवाद है जो भाजपा में अब कम हो रहा है। कांग्रेस मैदान से गायब है। भाजपा सत्ता विकृति के रोग से ग्रस्त है। जाहिर है एक शून्य आकार ले रहा है। ‘आप’ उसी शून्य को भरने का काम कर रही है। वह कितना भर पाएगी, यह कहना मुश्किल है। पर यह रिक्तता पैदा तो भाजपा ही कर रही है।
ये नतीजे मतदाताओं के लिए भी एक संदेश हैं। सूचना क्रांति के इस युग में भी वह कई बार भ्रमित हो सकता है। झूठ कई बार सिर चढ़ कर बोलता है। आम आदमी पार्टी का विस्तार भी ऐसा ही है। कहीं कहीं सफल होता दिखता यह प्रयोग जनता जनार्दन की भी भविष्य में कड़ी परीक्षा लेगा। क्षणिक लाभ या तात्कालिक नाराजगी के लिए उसका यह मोह उसे भी संकट में डालेगा, यह तय है।
पर बहरहाल, दिशाविहीन ‘आप’ का प्रयोग आगे बढ़ रहा है, यह एक वास्तविकता है।
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