मुझे नहीं मालूम था कि दो युवा पत्रकारों की बात को लेकर मेरी ओर से कुछ लिखे जाने पर इतनी सारी प्रतिक्रिया होगी। कल मैंने दो युवा पत्रकारों मनोज जोशी और शैलेंद्र तिवारी की फेसबुक पोस्ट को आधार बनाकर अपनी बात रखी थी। उस पर बुजुर्ग पत्रकारों से लेकर युवा पत्रकारों तक ने अलग अलग ढंग से प्रतिक्रियाएं दी हैं। कुछ ने फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया पर तो कुछ ने फोन पर।
मुझे लगा था कि इन दो युवा पत्रकारों ने जो बात कही है उस पर अपनी टिप्पणी लिखकर मेरा काम खत्म हो जाएगा। क्योंकि मेरा उद्देश्य केवल उनके द्वारा व्यक्त की गई भावनाओं और उनके बहाने भविष्य की चिंताओं पर बात करने तक ही सीमित था। लेकिन अब मुझे लगता है कि कल जो बात शुरू हुई थी वह बहुत दूर तक चली गई है, इसलिए इस पर और बात करना जरूरी है।
सबसे पहले उन्हीं दो फेसबुक पोस्ट की बात। कई लोगों ने मुझसे पूछा कि आखिर कर्नाटक का विकल्प क्या है। हम सब लोग सिर्फ उपदेश या बौद्धिक देते हैं उपाय कोई नहीं सुझाता। तो मेरा कहना है कि कर्नाटक का विकल्प खोजने या वहां किसकी सरकार बने या किसकी न बने इसका आकलन करना मेरा उद्देश्य था ही नहीं।
जिन लोगों ने मेरे कल के कॉलम पर इस तरह की प्रतिक्रियाएं दी हैं मेरा उनसे अनुरोध है कि वे उसे दुबारा पढ़ें। मैंने अपने कॉलम में मूल रूप से जो चिंता जाहिर की है वह इस बात को लेकर है कि आज की युवा पीढ़ी यदि कर्नाटक की घटनाओं से यह महसूस कर रही है कि यह भारतीय राजनीति में नैतिकता और आदर्श के पतन का प्रतीक है तो हमें उनकी भावनाओं की चिंता, उनकी परवाह करनी चाहिए।
मेरा मानना है कि 90 के दशक के बाद की पीढ़ी ने जिस भारतीय जनता पार्टी को देखा व जाना था वह पीढ़ी इस पार्टी के अपेक्षाकृत अधिक नैतिक और शुचितापूर्ण आचरण से आकर्षित होकर इससे जुड़ी थी। उसे लगा था कि जिस कांग्रेस के अनैतिक आचरणों के इतने सारे किस्से चारों ओर फैले हुए हैं उसके मुकाबले राजनीति में कोई तो पार्टी है जो मूल्यों की राजनीति करती है।
आप यकीन मानिए कुछ साल पहले तक तमाम शिकवे शिकायतों के बावजूद भाजपा को लोग उसके अपेक्षाकृत अधिक ईमानदार और अधिक नैतिक होने के कारण ही पसंद करते थे। फेसबुक या बाकी सोशल मीडिया पर अपने नंबर बढ़वाने के चक्कर में की जाने वाली टिप्पणियों को छोड़ दें और ईमानदारी से दिल पर हाथ रखकर किसी से पूछें तो क्या वह यकीन के साथ कह सकता है कि आज की भाजपा भी उतनी ही ईमानदार और नैतिक है जितनी वह डेढ़ दो दशक पहले थी।
निजी बातचीत में खुद इसी पार्टी के नेता दबी जुबान से यह बात स्वीकार करते हैं कि इसमें मूल्यों का पतन बहुत तेजी से हुआ है। और यदि ऐसा है तो मेरा मानना है कि हमें उस पीढी की या उस जमात की और अधिक चिंता करनी चाहिए या उन्हें और अधिक सुनना चाहिए जो हमारे नैतिक पक्ष के छोर को अभी तक पकड़े हुए हैं।
आप दूर क्यों जाते हैं, इसी पार्टी में एक अटलबिहारी वाजपेयी नाम के नेता भी थे जिन्होंने सिर्फ और सिर्फ एक वोट के लिए अपनी सरकार का गिरना मंजूर किया लेकिन जोड़तोड़ की राजनीति नहीं की। आज मुंह चलाने वाले नेता और समर्थक पूछ सकते हैं कि, तो क्या हम सिर्फ हारने के लिए राजनीति में आए हैं?
जी नहीं, बिलकुल नहीं, राजनीति में हारने के लिए कोई नहीं आता, आप भी नहीं, लेकिन कुछ लोग होते हैं जो अपनी हार को जीत की बुनियाद बना लेते हैं (जैसा अटलजी ने किया था) और दूसरे ऐसे भी होते हैं जो अपनी हर जीत के जरिए भविष्य में न जाने किन किन मोर्चों पर अपनी हार सुनिश्चित कराते चलते हैं।
जहां तक इस आरोप का सवाल है कि बातें सब करते हैं, उपदेश सब देते हैं लेकिन उपाय कोई नहीं सुझाता। तो किसी बाहरी आदमी को उपाय सुझाने की जरूरत ही कहां है। यदि अटलबिहारी वाजपेयी को आपने इतिहास के कूड़ेदान में न डाल दिया हो और आप उन्हें गलती से ही सही आज भी अपना आदर्श नेता मानते हों तो उपाय तो 1996 और 1999 में लोकसभा में उनके आचरण ने ही सुझा रखा है।
लेकिन दिक्कत यह है कि हम हर हाल में, हर कीमत पर और हर मूल्य की बलि देकर सिर्फ और सिर्फ जीत चाहते हैं। आज एक क्या सौ वोट भी कम हो तो हम कोशिश करेंगे कि जोड़ जुगाड़ से, किसी भी तरह से जीत मेरी मुट्ठी में होना चाहिए। लेकिन यहां हम भूल जाते हैं कि आज हम जिस सत्ता में बैठे हैं, उसकी बुनियाद उस एक वोट के कारण गिरी सरकार ने ही रखी थी।
वाजपेयीजी के उस कदम ने ही लोगों के मन में यह भरोसा पैदा किया था कि यही है वो पार्टी जिसे हम चाहते हैं, जिसके पास आदर्श हैं,नैतिकता की पूंजी है और जो कांग्रेस की तरह सत्ता की भूखी नहीं है। आज हमने अपने किए धरे को भले ही ‘धर्मयुद्ध’ नाम दे दिया हो लेकिन वास्तव में इसका धर्म से कोई लेना देना नहीं है।
ऐसे में जब कोई भी युवा यह कहता है कि मैंने उस कांग्रेस को तो नहीं देखा पर आज इस भाजपा को जरूर देख रहा हूं, तो मुझे चिंता होती है। और मेरी यह चिंता सिर्फ भाजपा को लेकर नहीं है, पूरी भारतीय राजनीति को लेकर है कि अब हम उसमें मूल्यों के बने रहने की गुंजाइश छोड़ भी रहे हैं या नहीं।
आप मेरी इस चिंता को किसी भी एंगल से देखने, उसकी व्याख्या और मेरी आलोचना करने के लिए स्वतंत्र हैं। लेकिन अंधरे कोने में ही सही इस पर सोचिएगा जरूर कि क्या मैं राजनीति में शुचिता और नैतिकता की बात उठाकर कोई गलती कर रहा हूं? फिर आपका दिल जो भी गवाही दे, उसे मुझसे पूरी साफगोई के साथ शेयर जरूर करिएगा…