अजय बोकिल
‘अच्छे दिन’ को इतने लुभावने ढंग से परिभाषित करने वाली इससे अच्छी रिपोर्ट शायद कोई और नहीं हो सकती। गोया हम स्वर्ग की देहरी तक पहुंच ही गए हों। अमेरिकी संस्था ब्रूकिंग्स के ‘फ्यूचर डेवलपमेंट’ (भावी विकास) पर जारी ब्लाॅग में बताया गया है कि भारत की अर्थव्यवस्था जितनी तेजी से आगे बढ़ रही है, उसी रफ्तार से देश में गरीबी भी खत्म हो रही है। इसकी रफ्तार भी राकेट सरीखी है यानी हर एक मिनट में 44 भारतीय भयंकर गरीबी की अंधी सुरंग से बाहर फेंके जा रहे हैं।
इस हिसाब से भारत दुनिया में सबसे तेजी से अति गरीबी को बाय-बाय करने वाला देश बन गया है। ब्लाॅग हमे यह भी बताता है कि भारत अब वो देश नहीं रहा, जहां सबसे अधिक गरीब रहते हों। भारत की इस छोड़ी गई सीट पर अब अफ्रीकी देश नाइजीरिया जम गया है। यह बदलाव इसी साल मई के महीने में हुआ। यह बात दूसरी है कि मोदी सरकार की उपलब्धियों के हो हल्ले में यह इस वैश्विक उपलब्धि की अोर किसी का भी ध्यान नहीं गया।
‘ब्रुकिंग्स’ के बारे में कम से कम भारत के गरीबों को जानकारी शायद नहीं ही होगी। क्योंकि गरीबों को उनकी गरीबी के बारे में बताने वालों की जानकारी गरीबों को अक्सर नहीं होती। ‘ब्रुकिंग्स’ वाशिंगटन स्थित एक गैरलाभकारी लोक नीति संगठन है, जो वैश्विक स्तर समाज की समस्याएं सुलझाने के लिए नए विचारों को बढ़ावा देता है। इस संगठन से तीन सौ सरकारी और अकादमिक विशेषज्ञ जुड़े हुए हैं। यह व्यापक अध्ययन के बाद विभिन्न मुद्दों पर रिपोर्ट तैयार करते हैं।
संगठन हर साल एक रिपोर्ट जारी करता है। भारत के इंडिया में तब्दील होने की सुखद तस्वीर पेंट करने वाली ब्रुकिंग्स की इस रिपोर्ट में ‘एक्स्ट्रीम पावर्टी’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है। यानी अति गरीबी। इस एक्स्ट्रीम पावर्टी से तात्पर्य रोजाना 1.90 डाॅलर से कम में गुजारा करने वाला व्यक्ति। मोटे तौर पर इसे डेढ़ सौ रुपये रोज से कम कमाई मान लें। हालांकि यह कमाई भी दो जून की भी ठीक से न जुटा पाने वाली स्थिति है।
रिपोर्ट का आशय यह है कि भारतीयों की कमाई अब इस मिनिमम इनकम से आगे बढ़ रही है। वैसे भारत में गरीब किसे मानें इसको लेकर विवाद रहा है। मतभेद इस बात पर भी है कि कमाई को गरीबी का आधार मानें, खर्च को अथवा क्रय शक्ति को। वैसे भारत में पीपीपी फार्मूला ज्यादा मान्य है। इसका अर्थ लोगों की क्रय शक्ति से है। अर्थात आप ज्यादा खरीद पा रहे हैं तो मतलब आप ज्यादा कमा रहे हैं।
भारत में गरीब बढ़ रहे हैं या घट रहे हैं, इसको लेकर आंकड़े अलग-अलग हैं। सत्ता पक्ष के आंकड़े गरीबी को घटता हुआ और विपक्ष के आंकड़े गरीब को और गरीब होता हुआ बताते हैं। वैसे रंगराजन कमेटी ने हमे बताया था कि वर्ष 2011-12 के दौरान भारत में गरीबों की संख्या 36.3 करोड़ थी, जो इसके पूर्ववर्ती वर्ष में 45.4 करोड़ की तुलना में 10 करोड़ कम थी। इसका अर्थ हुआ कि एक साल में देश में 10 करोड़ गरीब कम हो गए।
दरअसल ब्रुकिंग्स की यह रिपोर्ट हमे उम्मीदों के चांद पर ले जाती है। ब्लाॅग कहता है कि भारत इसी तरह तरक्की की राह पर बढ़ता रहा, तो सबसे गरीब देशों की सूची में हम इस साल के अंत तक तीसरे पायदान पर पहुंच जाएंगे। यानी वर्ष 2022 तक सिर्फ तीन प्रतिशत भारतीयों के नसीब में गरीबी होगी और 2030 आते आते तो गरीबी को इस देश में मुफलिस के चिराग की तरह ढूंढना पड़ेगा।
फाकों में भी बेहतर जिंदगी जीने की काबिलियत में हम नाइजीरिया से आगे हैं। मसलन मई 2018 तक नाइजीरिया में 8.7 करोड़ लोग भयावह गरीबी मेंं किसी तरह दिन काट रहे थे, जबकि भारत में इसी अवधि में यह आंकड़ा 7.3 करोड़ रहा है। मजे की बात यह है कि दुनिया और खासकर भारत की आबादी लगातार बढ़ रही है, जबकि देश में गरीबी निरतंर घट रही है। ऐसा क्यों और कैसे हो रहा है, समझना मुश्किल है।
याने खाने वाले मुंह बढ़ रहे हैं, लेकिन कमाने वाले हाथ घट रहे हैं। जब तमाम मुहों को भरपेट खाना नहीं मिल रहा है तो गरीबी घट कैसे रही है, इसे केवल अर्थशास्त्री ही समझ और बता सकते हैं। उनका तर्क यह है कि भारत की अर्थव्यवस्था लगातार तेजी से बढ़ रही है, उसी अनुपात में आय इत्यादि बढ़ रही है और अति गरीबी अपने आप बेदखल हो रही है।
तो क्या भारत सचमुच ‘गरीबी मुक्त’ हो रहा है? कम से कम ब्रुकिंग्स की रिपोर्ट तो यही कहती है।
यह बात दूसरी है कि गरीबी का घटना और गरीब का गरीबी लिस्ट से हटना राजनीति को रास नहीं आता। भारत जैसे देशों में तो सियासत मूलत: गरीबी के आसपास ही घूमती है। क्योंकि गरीब के भले के जुमले ही वोट दिलाने की गुंजाइश पैदा करते हैं। मोदी सरकार भी गरीबी हटाने और गरीब को कम गरीब बनाने के एजेंडे पर काम कर रही है। अब जब ब्रुकिंग्स की ‘मन की बात’ को फलीभूत करने वाली रिपोर्ट आ गई है तो जल्द ही भारत को ‘गरीबी मुक्त देश’ घोषित करने का नया एजेंडा सेट हो सकता है। इसमें दिक्कत में वो लोग हो सकते हैं, जिनका फायदा गरीबों के गरीब रहने में है।
बहरहाल ब्रुकिंग्स की रिपोर्ट गरीबों के गरीबी से मुक्ति और उनके ‘अच्छे दिन’ आने का पूर्व संकेत है। हालांकि यह साफ नहीं है कि बाद में गरीब या गरीबी में से कौन बचेगा? और अगर गरीबी पूरी तरह मिट ही गई तो फिर सियासत करने के लिए इतना व्यापक मुद्दा और कौन सा होगा? फिलहाल यह रिपोर्ट उस गरीब को खुश करने के लिए काफी है, जो हर पांच साल बाद भी खाली कटोरा हाथ में लिए घूमते रहने को अभिशप्त है।
(सुबह सवेरे से साभर)