तो क्‍या नौकरशाही सरकार का साथ नहीं दे रही?

रविवार को दोपहर बाद से एक खबर मीडिया में छाई रही। खबर यह थी कि मोदी सरकार ने अब शीर्ष नौकरशाही में सीधे भरती करने का फैसला कर लिया है। अब तक विभिन्‍न मंत्रालयों में नौकरशाही के शीर्ष पद अखिल भारतीय सेवाओं जैसे आईएएस, आईपीएस और आईएफएस में से भरे जाते रहे हैं।
सरकार के ताजा फैसले के तहत अब केवल यूपीएससी से चयनित होने वाले ही नहीं, बल्कि प्राइवेट कंपनी में काम करने वाले सीनियर अधिकारी भी सरकार का हिस्सा बन सकते हैं। सरकार ने लैटरल एंट्री की अधिसूचना जारी करते हुए 10 विभागों में जॉइंट सेक्रेटरी पद के लिए आवेदन मंगाए हैं।
शुरुआती तौर पर जिन विभागों के लिए आवेदन मंगाए गए हैं उनमें फाइनेंस सर्विस, इकानॉमिक अफेयर्स, कृषि, सड़क परिवहन, शिपिंग, पर्यावरण, रिन्यूएबल एनर्जी, सिविल एविएशन और कॉमर्स शामिल हैं। इन मंत्रालयों और विभागों में नियुक्ति उम्‍मीदवार की विशेषज्ञता के हिसाब से होगी।
जॉइंट सेक्रेटरी पद पर इस तरह नियुक्‍त किए जाने वाले व्‍यक्तियों का कार्यकाल तीन साल का होगा और काम की सफलता को देखते हुए उसे दो साल और बढ़ाया जा सकेगा। इसमें आवेदक की न्‍यूनतम आयु 40 वर्ष रखी गई है लेकिन महत्‍वपूर्ण बात यह है कि अधिकतम आयु का कोई जिक्र नहीं है।
दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शुरू से ही नौकरशाही में लैटरल एंट्री के हिमायती रहे हैं। पीएमओ में राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह ने कहा कि ‘यह उपलब्ध स्रोतों में से सर्वश्रेष्ठ को चुनने का एक प्रयत्न है। यह हर भारतीय नागरिक को अपनी प्रतिभा और क्षमता के हिसाब से अपना विकास सुनिश्चित करने के लिए अवसर देता है।’
इस फैसले को लेकर जानने वाली एक जरूरी बात यह है कि केंद्र सरकार के किसी भी मंत्रालय या विभाग में जॉइंट सेक्रेटरी का पद काफी अहम होता है। तमाम बड़ी नीतियों को तैयार करने, उन्‍हें अंतिम रूप देने या उनके अमल में इनका महत्‍वपूर्ण योगदान होता है।
सरकार के इस फैसले को देश की नौकरशाही के सेटअप में क्रांतिकारी बदलाव की शुरुआत के रूप में देखा जा सकता है। हालांकि ब्यूरोक्रेसी में लैटरल एंट्री का पहला प्रस्ताव 2005 में आया था, जब प्रशासनिक सुधार पर पहली रिपोर्ट प्रस्‍तुत हुई थी। लेकिन तब इसे खारिज कर दिया गया।
2010 में दूसरी प्रशासनिक सुधार रिपोर्ट में भी इसकी सिफारिश की गई। पर मामला एक तरह से ठंडे बस्‍ते में ही रहा। इस मुद्दे पर पहली गंभीर पहल 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद हुई। मोदी ने 2016 में इसके लिए एक कमेटी बनाई, जिसने इस प्रस्ताव पर आगे बढ़ने की सिफारिश की।
कमेटी का मूल प्रस्‍ताव तो सेक्रेटरी पद पर भी लेटरल एंट्री से नियुक्ति का था, लेकिन शीर्ष नौकरशाही में इसे लेकर विरोध को देखते हुए फिलहाल जॉइंट सेक्रेटरी स्‍तर पर ही ऐसी नियुक्तियां करने का फैसला किया गया। सरकार का मानना है कि विशेषज्ञ व्‍यक्तियों के आने से विभागों के कामकाज को अधिक दक्षतापूर्वक संपन्‍न कराया जा सकेगा।
यह पहला मौका नहीं है जब नरेंद्र मोदी सरकार ने नौकरशाही के स्‍वरूप को बदलने के लिए कदम उठाए हों। समानांतर नौकरशाही खड़ी करने की पहल पिछले साल से ही हो गई थी जब अक्‍टूबर में जामनगर स्थित गुजरात आयुर्वेद विश्वविद्यालय के पूर्व वाइस चांसलर राजेश कोटेचा को आयुष मंत्रालय में स्पेशल सेक्रेटरी के रूप नियुक्‍त किया गया था।
नौकरशाही की तासीर बदलने का यह मामला पिछले दिनों उस समय भी उठा था जब सरकार की यह मंशा सामने आई थी कि अखिल भारतीय सेवाओं में चयनित होने वाले उम्‍मीदवारों को एक फाउंडेशन कोर्स पास करने के बाद ही कैडर आवंटित किया जाए। इसमें अन्‍य बातों के अलावा उम्‍मीदवार के व्यक्तित्व, सूझबूझ, निष्‍ठा, मानवीय संवेदना आदि के परीक्षण की भी बात थी।
सरकारें जब भी इस तरह के कोई फैसले लेती हैं तो उसके सकारात्‍मक और नकारात्‍मक दोनों पहलू होते हैं। ताजा फैसले का सकारात्‍मक पहलू यह कहा जा सकता है कि इसके तहत संबंधित क्षेत्र के विशेषज्ञों की पहचान कर उन्‍हें टॉस्‍क सौंपा जाएगा और उनके अनुभव का लाभ लेते हुए बेहतर परिणाम पाए जा सकेंगे।
लेकिन इसका दूसरा पहलू थोड़ा गंभीर है। राजनीतिक तौर पर निश्चित ही इस फैसले की यह कहते हुए आलोचना होगी कि सरकार इसके जरिए अपने (यहां भाजपा और आरएसएस का अर्थ लें) लोगों की शीर्ष नौकरशाही में घुसपैठ कराना चाहती है, ताकि उसके मनमाने फैसलों के क्रियान्‍वयन में कोई रुकावट न आए।
कुछ कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया नौकरशाही के अंदर से भी हो सकती है। यह भी देखना होगा कि यदि वर्तमान प्रशासनिक तंत्र पर काबिज नौकरशाही ने अंदरूनी तौर पर इस फैसले का विरोध करने की ठान ली तो कहीं यह कदम देश की प्रशासनिक व्‍यवस्‍था में ही आंतरिक संघर्ष का कारण न बन जाए।
उदाहरण तो बहुत से दिए जा सकते हैं लेकिन एक ही उदाहरण पर्याप्‍त होगा कि उस स्थिति से निपटने की क्‍या रणनीति होगी जब ऐसी सीधी नियुक्ति वाले जॉइंट सेक्रेटरी के किसी प्रस्‍ताव को सेक्रेटरी अमान्‍य कर दे या फिर सेक्रेटरी के किसी आदेश को ‘अनप्रोफेशनल’ मानते हुए जॉइंट सेक्रेटरी उसका विरोध करे। ऐसे में टकराव होना तय है।
एक सवाल यह भी है कि आखिर सरकार के सामने यह फैसला करने की नौबत क्‍यों आई। क्‍या वर्तमान नौकरशाही सरकार की नीतियों को क्रियान्वित करने में अक्षम पाई गई है या फिर वर्तमान नौकरशाह सरकार के साथ सहयोग नहीं कर रहे हैं?
आपको याद होगा कि मोदी सरकार के आने के बाद कई दिनों तक यह बात चर्चा में रही थी कि वरिष्‍ठ नौकरशाही के पर कतर दिए गए हैं और उन पर कड़ा अनुशासन लागू किया गया है। खुद प्रधानमंत्री अपनी सभाओं में इस बात का हवाला दिया करते थे कि अफसर अब समय पर दफ्तर आने लगे हैं।
अब जब सरकार को काम करते हुए चार साल बीत चुके हैं, तब इस तरह का फैसला लेने का एक अर्थ क्‍या यह नहीं है कि सरकार और नौकरशाही के बीच तालमेल में कहीं तो कुछ लोचा है। एक आरोप अकसर लगता है कि सरकार अपने विचार को मानने वाले लोगों को शीर्ष पदों पर काबिज करवाना चाहती है।
लेकिन विचार अथवा विचारधारा के क्रियान्‍वयन की बात भी उन्‍हीं विभागों या मंत्रालयों से संबद्ध हो सकती है जहां इस दिशा में कुछ करने की गुंजाइश हो जैसे शिक्षा, संस्‍कृति, सूचना एवं प्रसारण आदि। पर शौचालय बनवाने में तो विचार आदि का कोई लेना देना नहीं होता। यदि वहां भी काम ठीक से न हो पा रहा हो तो इसका सीधा मतलब है कि मामला गड़बड़ है…

 

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