शीर्षक पढ़कर आप चौंक जरूर गए होंगे। चौंकने वाली बात ही है। कहां कांग्रेस के नेता दिग्विजयसिंह और कहां भाजपा की जीत? दोनों में दूर दूर तक कोई वास्ता नजर नहीं आता। लेकिन राजनीति बड़ी अजीब चीज है, वहां जो होता है वह नजर नहीं आता और जो नहीं होता वह चारों तरफ पसरा दिखाई देता है। इसलिए भाजपा के कट्टर विरोधी दिग्विजयसिंह के ‘फार्मूले’ को जब मैं गुजरात में भाजपा की जीत से जोड़ रहा हूं तो उसे भी इस ‘राजनीतिक फलसफे’ के संदर्भ में ही देखिएगा…
अब सवाल उठेगा कि आखिर यह ‘दिग्विजय फार्मूला’ है क्या और भाजपा का उससे क्या लेना देना है? इसका जवाब पाने के लिए आपको चौदह साल पीछे जाना होगा। यह वो वक्त था जब मध्यप्रदेश में दिग्विजयसिंह को राज करते पूरे दस साल हो गए थे। 2003 में साध्वी उमाश्री भारती ने दिग्विजय राज को मैदानी चुनौती दी थी और सड़क, बिजली, पानी को आधार बनाते हुए दिग्गी सरकार को जबरदस्त तरीके से घेरा था। यह वही समय था जब भाजपा की मैदानी रणनीति तैयार करते हुए अनिल माधव दवे की टीम ने दिग्विजयसिंह के लिए ‘मिस्टर बंटाढार’ जैसा जुमला गढ़ा था।
कुल मिलाकर उस चुनाव में भाजपा ने प्रदेश की दुर्दशा की तसवीर जनता के सामने खींचते हुए दिग्विजयसिंह को कठघरे में खड़ा किया था। बाद में क्या हुआ इसकी तफसील में न जाएं, लेकिन उस समय भाजपा ने सड़क, बिजली और पानी जैसे विकास के बुनियादी मानकों को मुद्दा बनाते हुए चुनाव लड़ा था। उस चुनाव में जब दिग्विजयसिंह से पूछा गया था कि भाजपा विकास को मुद्दा बनाकर लड़ रही है, आप कैसे मुकाबला करेंगे तो जवाब में उनका वह मशहूर और सार्वकालिक बयान आया था कि ‘’चुनाव तो चुनावी प्रबंधन के कौशल से जीते जाते हैं,विकास तो बाद की बात है।( elections are won through management skills, development is secondary)
दिग्विजयसिंह के उस बयान की काफी आलोचना हुई थी और लोगों ने इसी आधार पर उन्हें विकास विरोधी और जाने क्या क्या कह दिया था। वह बयान दिग्विजय के राजनीतिक कॅरियर पर ऐसा चिपका कि आज तक छूटने का नाम नहीं ले रहा। गाहे-बगाहे जब भी चुनाव और विकास के रिश्तों की बात होती है, तो उनके इस बयान का जिक्र जरूर होता है।
यह तो थी ‘दिग्विजय के फार्मूले’ की बात… अब गुजरात पर आ जाइए। 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने नरेंद्र मोदी को अपना चेहरा किस आधार पर बनाया? निश्चित ही एक सफल मुख्यमंत्री के रूप में उनकी छवि को पेश किया गया। भाजपा और खुद नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव के दौरान जनता के सामने विकास के ‘गुजरात मॉडल’ की सुनहरी तसवीर रखते हुए भरोसा दिलाया था कि वे ही ऐसे नेता हैं जिनके पास विकास का विजन है और विजन भी ऐसा जो गुजरात में वे जमीन पर उतार चुके हैं। यानी वह विजन ‘प्रूव्ड’ है।
इस लिहाज से गुजरात के वर्तमान विधानसभा चुनाव में क्या होना चाहिए था? निश्चित ही वहां भाजपा के एजेंडे में सिर्फ और सिर्फ विकास ही दिखना चाहिए था। वो राज्य जिस पर मोदी ने 13 साल राज कर उसे देश के सामने मॉडल बनाया, ऐसा मॉडल जिसके बूते उन्होंने अपनी छवि गढ़ते हुए प्रधानमंत्री जैसा पद प्राप्त किया। उसी राज्य में भाजपा को भी और खुद मोदी को भी केवल विकास के अपने काम गिना भर देने थे। बस, हो जाता काम…
राजनीति की बारहखड़ी भी तो यही कहती है कि लोग विकास चाहते हैं। इसीलिए वे ऐसे व्यक्ति या ऐसी पार्टी को चुनना पसंद करते हैं जो उनका और प्रदेश अथवा देश का विकास कर सके। ऐसे में भाजपा के सामने न तो कोई दुविधा होनी चाहिए थी और न ही कोई और मुद्दा। कोई कुछ भी कहता रहता, चाहे जो आरोप लगाता रहता, आप तो हर सवाल और हर आरोप के जवाब में अपने विकास को खड़ा कर देते। लोग अपने आप ठंडे पड़ जाते।
लेकिन क्या ऐसा हो रहा है? गुजरात में भाजपा के शीर्ष रणनीतिकारों से लेकर मैदानी कार्यकर्ता तक और पार्टी अध्यक्ष से लेकर प्रधानमंत्री तक, व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप की राजनीति में लगे हैं। गुजरात का बेटा होने की दुहाई देते हुए वोट मांगे जा रहे हैं। अब इसमें किसको शुबहा होगा कि मोदी जब गुजरात की धरती पर जन्मे हैं तो वहां के बेटे तो वे हुए ही। इसमें नई बात क्या है?
कहते रहें राहुल गांधी राफेल की बात, पूछते रहें शाह-जादे के बारे में सवाल, उठाते रहें हार्दिक पटेल पाटीदार आरक्षण का मुद्दा, करते रहें जिग्नेश मेवानी दलितों के अत्याचार की बात, सरकार को और भाजपा को तो छाती ठोककर विकास की बात करते हुए, उसके प्रमाण गिनाते हुए, उन्हीं तीरों से सभी के मुंह बंद कर देने चाहिए थे।यदि विकास हुआ है और विकास करना ही राजनीति का लक्ष्य है तो फिर गुजरात वाले तो उसके बारे में अच्छी तरह जानते होंगे, वे अपनी आंखों के सामने खड़ी सचाई को कैसे झुठला सकते हैं, उन्हें कोई कैसे बरगला सकता है?
लेकिन गुजरात का चुनाव साबित कर रहा है कि राजनीति की बारहखड़ी भले ही विकास के सहारे आकार लेती हो, पर राजनीति का व्याकरण तो चुनाव प्रबंधन से ही तैयार होता है। उसके सारे गद्य और पद्य, सारे छल-छंद उसी वैयाकरणिक मीटर के आधार पर तैयार होते हैं।
इसीलिए मैंने कहा कि जिस पार्टी ने विकास का हवाला देकर 2003 में दिग्विजय के उस बयान की खिल्ली उड़ाई थी कि चुनाव प्रबंधन के कौशल से जीते जाते हैं, वही पार्टी अब उसी ‘प्रबंधन के फार्मूले’ का सहारा लेकर अपनी चुनावी रणनीति को अंजाम दे रही है।
कल इसी पर थोड़ी और बात करेंगे…