26 दिसंबर को मुझे एक पुस्तक मेले के सिलसिले में कटनी जाने का अवसर मिला। जानकर आश्चर्य हुआ कि कटनी में स्थानीय लोगों के प्रयास से यह पुस्तक मेला लगातार आठ सालों से लग रहा है और इसका निरंतर विस्तार हो रहा है। आज जब किताबों के लिए समाज की ओर से किए जाने वाले प्रयासों में लगातार कमी आ रही है, उस स्थिति में विश्व संवाद केंद्र से संबद्ध कटनी की राष्ट्रीय साहित्य पुस्तक मेला समिति इस आयोजन को निरंतर रखने के लिए बधाई की पात्र है।
जिस समय पुस्तकों के संसार को सीमित करने की साजिश चल रही हो, उस समय पुस्तकों के प्रचार और प्रसार का यह प्रयास जारी रखना अपने आप में बहुत बड़ी बात है। दरअसल किताबें हमारी सभ्यता, संस्कृति और इतिहास से लेकर हमारी सामाजिक संरचना और मनोभावों से जुड़े ज्ञान का ऐसा दस्तावेज हैं जो हमारे साथ भी होती हैं और हमारे बाद भी। इस लिहाज से किताबों की दुनिया में जाना अपने भीतर की दुनिया में झांकना है।
किताबें हमारी जिंदगी की इबारत भी लिखती हैं और हमारी जिंदगी की प्रूफ रीडिंग भी करती हैं। वे हमें बताती हैं कि हमारी जिंदगी के कौनसे हिज्जे गलत हैं या हमने कहां कहां गलत मात्राएं लगा रखी हैं। किताबें ऐसी हमसफर हैं जो मंजिल के आखिरी छोर तक हमारा साथ देती हैं उनके साथ हम पूरी जिंदगी काट सकते हैं।
मनुष्य ने जो सबसे बड़ा आविष्कार किया वो भाषा का है। भाषा है तो संवाद है, संवाद है तो मनुष्य जगत या समाज जीवंत है। भाषा जब लिपि में बदलती है और लिपि क्रमबद्ध होकर रचना में और रचना समूहबद्ध होकर पुस्तक में परिवर्तित होती है तो शब्दों की वह सृष्टि हमें अपने आप से संवाद का धरातल दे देती है। किताब पढ़ते समय हम अपने आप से संवाद करते हैं। कभी न खत्म होने वाली आपाधापी के इस समय में जब हम स्वयं से भी संवाद करना भूलते जा रहे हैं, किताबों से बेहतर संवाद का कोई जरिया नहीं हो सकता।
दुनिया में पुस्तक मेलों का लंबा इतिहास रहा है। भारत में बड़े स्तर पर पुस्तक मेले सत्तर के दशक में लगने शुरू हुए। दिल्ली के अलावा पटना और कलकत्ता के पुस्तक मेले काफी मशहूर रहे हैं। नेशनल बुक ट्रस्ट की स्थापना 1956 में हुई और ट्रस्ट ने ही 1972 में पहले विश्व पुस्तक मेले का आयोजन किया, जो चर्च गेट, मुम्बई के क्रॉस मैदान में लगा था। दिल्ली का विश्व पुस्तक मेला फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेले और लंदन बुक फेयर के बाद सबसे ज़्यादा प्रतिष्ठित माना जाता है।
लेकिन देखने में आ रहा है कि भारत में पुस्तक मेलों का उद्देश्य और स्वरूप कुछ और ही होता जा रहा है। ये मेले अपने उद्देश्यों से भटककर बाजार के उत्सवों में तब्दील हो गए हैं। यहां अब पुस्तकों, ज्ञान और साहित्य के बजाय व्यक्ति और संस्थाओं के प्रचार की बात अधिक होती है। बाजार प्रेरित ऐसे प्रचार मंचों पर सार्थक संवाद की गुंजाइश खत्म होने लगी है।
पुस्तक मेलों के घटते आकर्षण के कारण अब जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल, गोवा लिट फेस्ट, चेन्नई लिटरेचर फेस्टिवल जैसी गतिविधियों का विस्तार हो रहा है। कुछ निजी संस्थाओं ने मिलकर दो साल से हमारे इंदौर में भी इसी तरह का लिटरेचर फेस्टिवल आयोजित करना शुरू किया है। हमें यह भी सोचना होगा कि क्या पुस्तक मेलों में पाठक-लेखक संवाद के अभाव के चलते ऐसे लिटरेचर फेस्टिवल लोगों को अपनी ओर खींच रहे हैं?
हिंदी पट्टी में, खासकर छोटे शहरों में पुस्तक मेलों की बड़ी अहमियत है। ऐसे में कटनी जैसे शहर में इतने सालों से पुस्तक मेला आयोजित करना बड़ी बात है। पुस्तक संस्कृति को बचाने के लिए हमें छोटे छोटे शहरों में न सिर्फ ऐसे पुस्तक मेलों का आयोजन करना होगा, बल्कि वहां चल रहे पुस्तक मेलों के अस्तित्व को बचाने का प्रयास भी करना होगा।
एक और बात भाषाई पुस्तकों की है। देखने में आ रहा है कि पुस्तक मेलों में अंग्रेजी पुस्तकों का वर्चस्व लगातार बढ़ता जा रहा है। ऐसे में हिन्दी और उर्दू भाषा की पुस्तकों को बढ़ावा देने के साथ ही हमें अनुवाद आधारित किताबों को ज्यादा से ज्यादा स्थान देने पर विचार करना होगा। आज हमारे यहां मराठी, बांग्ला, पंजाबी के साथ साथ दक्षिण भारतीय भाषाओं में भी बहुत अच्छा साहित्य रचा जा रहा है, लेकिन उसके समुचित अनुवाद और उस अनुवाद के प्रकाशन की पर्याप्त व्यवस्थाएं नहीं हैं।
दूसरी बात स्थानीय बोलियों को संरक्षण देने की है। कटनी पुस्तक मेले में एक और अच्छी बात यह दिखी कि वहां बघेली और बुंदेलखंडी बोलियों पर आधारित पुस्तकों और उससे जुड़े रचनाकारों को लेकर अलग सत्र आयोजित हुए। बघेली या रिमही से जुड़े ऐसे ही एक सत्र में रचनाकारों को सुनकर एक बार तो मुझे यकीन ही नहीं हुआ कि स्थानयी बोलियों में, स्थापित भाषाओं से भी ज्यादा सार्थक और ज्यादा मारक साहित्य लिखा जा रहा है।
आज संचार के नए नए संसाधनों ने, टूल्स ने, पुस्तक और लिखित संसार के दायरे को या तो कम किया है या फिर उसके आयाम बदले हैं। पहले हम अखबार बाहें फैलाकर पढ़ते थे आज उसे अंगूठे के दायरे में संकुचित करके पढ़ते हैं। आज पुस्तक के बजाय मोबाइल के स्क्रीन को पढ़ा जा रहा है। वहां आने वाले सामग्री पर किसी तरह का कोई क्वालिटी कंट्रोल नहीं है।
जिस तरह गूगल जैसे माध्यमों पर हमारी निर्भरता बढ़ती जा रही है, उसे लेकर मुझे कई बार चिंता होती है। यह निर्भरता हमें और हमारी ज्ञान व साहित्य परंपरा को पता नहीं कहां ले जाएगी? नेट पर उपलब्ध सामग्री ने छपी हुई पुस्तकों के महत्व को तो कम किया ही है, भ्रामक जानकारी के प्रचार प्रसार में भी भारी बढ़ोतरी की है। आज कुछ भी जानकारी नेट पर अपलोड कर दी जाती है और ‘पहुंच की सुविधा’ के चलते वही इस्तेमाल हो रही है, भले ही वह सही हो या नहीं।
खतरा यह लगता है कि यदि ऐसा ही चलता रहा तो एक न एक दिन गूगल जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का ही समूचे ज्ञान पर कब्जा होगा। फिर वे जो चाहेगें वही जानकारी देंगे, जैसी चाहेंगे वैसी जानकारी देंगे। कोई भी जानकारी लेने के लिए आज जिस तरह से गूगल पर निर्भरता हो गई है,उसके चलते यह खतरा सामने आता दिखता है कि भविष्य में सूचना और ज्ञान का वही एकमात्र सोर्स होगा और इस एकाधिकार के दुष्परिणाम क्या होंगे कोई नहीं जानता।