आरक्षण का मुद्दा आज राज्य सरकारों के लिए साँप–छछूँदर की तरह हो गया है, न निगलते बन रहा है न उगलते! आज सरकारें हों या राजनीतिक दल, उनकी तमाम घोषणाएँ व तमाम फैसले राजनीतिक लाभ को देखकर किए जा रहे हैं। हर दल को यह भय है कि अगर अमुक घोषणा उन्होंने न की तो कहीं दूसरा दल उसे हथिया न ले। याद करें मोहन भागवत का वह बयान जिसमें उन्होंने सिर्फ आरक्षण की समीक्षा की बात कही थी जिस पर सभी दलों को सहमत हो जाना था। मगर इस एक बयान को नीतीश-लालू गठबंधन ने आरक्षण के विरोध में बताकर एक किस्म की ’अनैतिक’ बढ़त प्राप्त कर ली थी। चुनाव परिणाम को भी इसने कुछ हद तक प्रभावित किया।
पहले अगर किसी को दलित जातिसूचक शब्द या किसी अर्थ में ‘पिछड़ा’ कह दिया जाता था तो वह उसे गाली या अपमान के तौर पर लेता था। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आंबेडकर ने जाति तोड़ने के लिए संघर्ष किया था। उन्होंने अपना निबंध ‘जातिभेद के बीजनाश’ 1935 में लाहौर के ‘जाति-पाँति तोरक मण्डल’ में पढ़ने के लिए मुंबई में छपाया था जो कार्यक्रम निरस्त हो जाने की कारण नहीं पढ़ा जा सका था। मगर अब कई अगड़े समाजों द्वारा स्वयं को पिछड़ा वर्ग में शामिल कर आरक्षण का लाभ दिए जाने की मांग की जाने लगी है। पहले राजस्थान,फिर गुजरात और अब हरियाणा में तीन समाजों ने इस ‘पुनीत’ उद्देश्य के लिए अरबों रुपए की राष्ट्रीय संपत्ति का नुकसान किया है। चुनावी दल जब अपने घोषणा पत्रों में लालीपॉप का झुनझुना पकड़ा चुके थे, तो यह होना ही था। जानमाल की इतनी हानि के बाद जब राज्य सरकारें इन अपेक्षाकृत उन्नत व सक्षम समाजों की माँगे मान गईं तो दूसरे समाजों को अपना भविष्य ‘अंधकारमय’ दिखाई देने लगा। समाज में एक घातक संदेश इससे यह जा रहा है कि हिंसात्मक आंदोलन कर देश की संपत्ति को नुकसान पहुंचा कर हम किसी भी सरकार से मनचाही माँगे मनवा सकते हैं। परिणामस्वरूप गुर्जरों से शुरू हुए इस उग्र आंदोलन की आग में बाद में जाट और अब राजस्थान के ब्राह्मण और राजपूत भी कूदने की तैयारी कर रहे हैं। अगले चुनाव से पहले या तो राजनीतिक दल इनके लिए कोई लोकलुभावन घोषणा कर देंगे या देश फिर किसी नए हिंसात्मक आंदोलन का सामना कर रहा होगा।
अब समय आ गया है कि सभी राजनीतिक दल अपनी स्वार्थगत मनोवृत्ति को त्यागें व सभी समाज अपने स्वाभिमान को बचाते हुए वर्तमान आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा की माँग करें। आज जरूरत इस बात की है कि वर्तमान आरक्षण व्यवस्था में जारी पीढ़ी दर पीढ़ी आरक्षण, एक बार नौकरी मिलने के बाद पदोन्नतियों में आरक्षण और आर्थिक रूप से संपन्न परिवार को भी जाति विशेष से संबंधित होने के कारण मिल रहे आरक्षण जैसी विसंगतियों पर राजनीति को परे रखकर विचार किया जाना चाहिए। जिस तरह मोदी जी ने सक्षम लोगों से गैस सबसिडी छोडने की अपील की और कई लोगों ने उसे मान कर छोड़ा भी, ऐसे ही क्या वे सक्षम लोगों से जातिगत आरक्षण छोड़ने की अपील कर सकते हैं? उल्लेखनीय है कि बिहार के पूर्व सीएम व हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (एचएएम) के राष्ट्रीय अध्यक्ष जीतनराम मांझी ने इसकी शुरुआत कर दी है। इसी वर्ष इक्कीस मार्च को वे घोषणा कर चुके हैं कि उनका पूरा परिवार अगले चुनाव में आरक्षण का लाभ नहीं लेगा। उन्होंने अपने बड़े बेटे संतोष सुमन से कह दिया है कि परिवार का कोई भी सदस्य अगला लोकसभा या विधानसभा चुनाव आरक्षित नहीं बल्कि सामान्य सीट से लड़े। बिहार जैसे राज्य में जहाँ वर्ण संघर्ष एक कड़वी सचाई है और जहाँ चुनावों में जातीय समीकरण ही निर्णायक भूमिका निभाते आए हैं, वहाँ से इसकी शुरुआत एक नई क्रांति की शुरुआत हो सकती है। आज मांझी ने चुनावी सीट पर आरक्षण का मोह त्यागा है, उम्मीद करें कि कल कोई सक्षम दलित नौकरी या पदोन्नति में इसके परित्याग की घोषणा भी करेगा।
मगर इसके लिए सवर्ण समाज को भी आगे आना होगा। आज भी जब स्कूल में किसी दलित बच्चे को सार्वजनिक हैंडपंप से पानी लेने से रोका जाता हो और जिसकी कीमत उसे कुएं में पानी भरते हुए अपनी जान देकर चुकानी पड़ती हो और आज भी जब हम विद्यार्थियों को निबंध के लिए ‘आरक्षण एक अभिशाप’ जैसा विषय देंगे तो दलित वर्ग कैसे मान लेगा कि उसे समाज में बराबरी का स्थान मिल गया है? ये वो घटनाएँ हैं जो दलित वर्ग की इस आशंका के आगे हमें निरुत्तर कर देती हैं कि आंबेडकर जी के ‘तालाब प्रकरण’ और आज के बीच में आखिर क्या बदला है? क्यों छोड़ें वो आरक्षण? मेरी नजर में इसका एकमात्र हल है ‘अंतरजातीय विवाह’। अपनी जाति की श्रेष्ठता का सबको अभिमान होता है। ऐसे में यह किया जा सकता है कि ऐसे ‘विषम विवाह’ जिसमें वर-वधू में एक सवर्ण व एक दलित हो, उसकी पुरस्कार राशि में और वृद्धि की जाए। ऐसे उम्मीदवारों के लिए नौकरी से लेकर पदोन्नति तक में आरक्षण का नया कोटा निर्धारित किया जाए। बेरोजगारी के बढ़ते दबाव को देखते हुए जातीयता को तोड़ने की दिशा में यह एक सार्थक पहल साबित हो सकती है। इसमें यह शर्त भी रखी जा सकती है कि विवाह विच्छेद की स्थिति में आरक्षण अपने आप निरस्त हो जाएगा।
यह देश का दुर्भाग्य है कि नए उभरते नेता भी ‘जातिवाद से आजादी’ का नारा तो गला फाड़ फाड़ कर लगाते हैं पर उनके मुँह से ’आरक्षण से आजादी’ की बात कभी नहीं निकलती! हमारे प्रतिभावान बच्चे जो नौकरी के लिए विदेश जाना पसंद करते हैं तो उसका एक कारण देश की वर्तमान आरक्षण व्यवस्था भी है। विशेषकर न्यायालय के इस फैसले के बाद कि “प्रमोशन में आरक्षण नहीं दिया जा सकता”, अजाक्स जिस तरह से आंदोलन कर रहा है और अनारक्षित वर्ग जिस तरह से विरोध कर रहा है तथा शिवराजसिंह चौहान आरक्षण जारी रखने के लिए ‘कुछ भी करने’ को तैयार बैठे हों, समाज में अराजकता व वर्ग संघर्ष बढ़ने के आसार पैदा हो गए हैं। आरक्षित वर्ग को भी यह समझना चाहिए कि एक बार आरक्षण प्राप्त कर लेने के बाद दुबारा प्राप्त करना प्रतिभा के साथ अन्याय भी है व देश व समाज की प्रगति के लिए घातक भी। उल्लेखनीय है कि हाल ही में स्विट्जरलैंड जैसे देश में जहाँ युवाओं को बेरोजगारी भत्त्ते के नाम पर भारी पैकेज दिया जा रहा था, उसे स्वयं जनता ने आगे बढ़कर स्वीकारने से इनकार कर दिया है। क्या हमारे देश में एक बार आरक्षण का लाभ उठा चुके वर्ग का इस दिशा में स्वाभिमान जागेगा?
आरक्षण तो उनके द्वारा छोड़ा जाना चाहिए जिन्होंने ले लिया पर कल को जिसने ले लिया उनके दो बेटों में से एक सक्षम ना हो पाए और ग़रीब ही रहे तो उसकी जाति की वजह से क्या स्थिति रहेगी????
और क्या BPL का लाभ अमीर लोग ज़्यादा नहीं उठा रहे????
क्या आर्थिक आधार पर करने पर उसका फ़ायदा सिर्फ़ ग़रीब ही उठा पाएँगे अमीर नहीं उठाएँगे??
इनटरकासट मैरिड कमयुटी (रजि) यानी अँतरजातीय विवाहित समाज सँसथा एक सामाजिक संसथा है। यह संस्था अंतरजातीय विवाह कराती नही है लेकिन जो अँतरजातीय विवाहित है उनहे समाज अलग थलग कर देता है यह सँसथा उनहे सगँठित करने का प़यास कर रही है आप सब का समथॅन व सहयोग अपेक्षित है। जाति विहीन समाज की सथापना करने के लिए संस्था से जुड़े। अनिल तिवारी स॓पकॅ 8765888903
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