भोपाल/ भारत का सामना धार्मिक सैन्यरवाद से हुआ। इस सैन्यवाद ने धार्मिक असहमति के कारण भारतीयों के आस्था स्थलों को जलाया, उन्हें लूटा और स्त्रियों का बलात्कामर किया। कालांतर में यूरोपीय औपनिवेशिकता ने कोई सीधे हमला न करके भारतीय चेतना के आधार को ही बदल दिया।
ये बातें गुरुवार को दत्तोपंत ठेंगड़ी शोध संस्थान की ओर से आयोजित राष्ट्रीय वेबिनार ‘रिविजिटिंग सेंट्रल इंडिया’ के प्रथम सत्र को संबोधित करते हुए लोक संस्कृति एवं भारतीय ज्ञान परंपरा के अध्येता डॉ. कपिल तिवारी ने कही।
इस चार दिवसीय वेबिनार के पहले दिन ‘ भारत के नागर, लोक और आरण्यक समाज तथा उनके अंतरसंबंध’ विषय वाले सत्र में डॉ. तिवारी ने कहा कि भारत त्रि-स्तरीय सामाजिक संरचना का देश है। सामुदायिकता का सच्चा उदाहरण आरण्यक समाज में देखा जा सकता है। वहाँ निजता जैसी कोई चीज नहीं होती। आरण्यक समाज के लोग सामाजिक स्तर पर अनुशासन बनाये रखते हैं। वे राज्य की छाया से अलग रहे हैं लेकिन भारतीय लोक समाज के गहरे सम्पर्क में रहे हैं।
उन्होंने कहा कि वनवासी समाज सम्पूर्ण अरण्य को अपना घर मानते हैं। उन्हें साँप, बिच्छू आदि से डरने की कोई आवश्यकता नहीं होती। जबकि अन्य नगरीय समाज इनसे डरते हैं। आरण्यक समाज हजारों वर्षों से प्रकृति के साथ रह रहे हैं, लेकिन प्रकृति को कभी नुकसान नहीं पहुँचाया। उन्होंने सिद्ध किया है कि मनुष्य प्रकृति के साथ अभिन्नता से रह सकता है। लोक समाज के लिए प्रकृति पावन चीज है। इसी पावनता के बोध से प्रकृति बची रही है। आरण्यक समाज के पास जब भी जाएँ तो उनका होकर जाएं, पर्यटक बनकर न जाएँ।
डॉ. कपिल ने कहा कि आरण्यक समाज धार्मिक आध्यात्मिकता में जीते हैं, लेकिन इनके विरुद्ध षड्यंत्र हुए हैं। भारत के बाहर से आये लोग उनको एहसास कराने में जुट गये कि आपको धर्म दिया जा रहा है, जबकि ऐसा नहीं है। प्रत्येक भारतीय के रक्त में सनातन धड़कता है। सनातन जड़ीभूत नहीं होता वह चेतना, ज्ञान, संस्कृति का जीवन प्रवाह है।
उन्होंने बताया कि आरण्यक समाज परंपरा का शिष्य है। इनके यहाँ गुरु-शिष्य की परंपरा नहीं है। इन समाजों में हजारों नृत्य, गायन, बिना व्याकरण के हैं। उनका उपादान प्रकृति से लिया गया है। वनवासियों में नाट्य में गुरु परंपरा दिखाई पड़ सकती है, किंतु नृत्य में नहीं है।
भारत ने ज्ञान को रस बनाया और उनके अंतरण की विधियां खोजी हैं। इसलिए भारत को अपनी आँख से देखना होगा। हीनता के बोध से बाहर आना होगा। हम लोगों ने प्रकृति को पर्यावरण बना दिया है। प्रकृति को आध्यात्मिकता का आधार बनाने के लिये आरण्यक समाज से सीखा जा सकता है। वनवासी समाज के लिये कोई कुछ करना चाहता है तो इतना कर सकते हैं कि उनका कुपाठ न करें। उनकी चीजों को नष्ट न करें। हम लोग आरण्यक एवं लोक को नागर समाज बनाने की जिद में लगे हैं जो कि घातक प्रवृत्ति है।
वेबिनार का संचालन कर रहे डॉ. मुकेश कुमार मिश्रा ने कहा कि भारत के नागर, लोक व अरण्य के अंतरसंबंध पर लिखा-पढ़ा नहीं गया है। जहाँ लिखा भी गया है, वहाँ षड्यंत्र हुए हैं। इन विषयों पर युवा समेत अन्य सभी नागरिकों को चिंतन-मनन करना चाहिये, तभी भारतीय समाज को सही मायने में समझा जा सकता है।
इस ऑनलाइन वेबिनार में देश भर के विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों, संगठनों से जुड़े लोगों के अलावा विद्यार्थी, शोधार्थियों की उपस्थिति रही। सहभागियों की जिज्ञासाएँ शांत करते हुए डॉ. कपिल तिवारी ने कहा कि कुछ वर्षों पहले सुनामी आई थी लेकिन अंडमान निकोबार में रहने वाले वनवासी 24 घंटे पहले ही गहरे जंगलों में चले गए। दूसरी ओर जिन्हें आधुनिक कहते हैं वे लोग तटों पर ही रहे और उनमें से कई मारे गए। यह दर्शाता है कि वनवासियों का ज्ञान कितना विस्तृत है।
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टीम मध्यमत