सियासत के बाजार में रद्दी के भाव वाले लोग

जयराम शुक्ल

इस साल वसंत के बाद की गरमियों का पतझड़ पेड़ों में आने की बजाय कांग्रेस में आ गया। सावन की इस हरियारी में भी डाली-डाली, पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा सब झड़ने को बेताब दिख रहे हैं। जब सोए तब कांग्रेसी थे, जागते ही भाजपाई हो गए। सत्ता की हरियारी कौन नहीं चरना चाहेगा।

वैसे अब वहां बचा ही क्या..? खूँटे में बंधे-बंधे सूखा भूसा खाने और गोबर करने के सिवाय। 1984 में कांग्रेस को जब पहाड़ जैसा बहुमत मिला तो उसके नेता डर गए थे। इतने सारे साँड कैसे और किसके बाँधे बधेंगे। चुनांचे उन्हें नाथने के लिए दलबदल रोको कानून आ गया।

उन्हें जमीनी हकीकत नहीं मालूम थी कि ताकत साँडों के पुट्ठों में नहीं नाक में होती है। घ्राणशक्ति ही प्रेरित करती कि कहाँ भरपूर हरियारी, खली-भूसा, गुड़-चने का इंतजाम है। यह लालसा इतनी प्रबल होती है कि साँड खूँटे को उखाड़कर समूचे तबेले को तबाह कर देता है। 88 में वही हुआ। बहुमत को नाथने का कानून धरा रह गया, सांड एक-एक करके खूंटे समेत निकल लिए और भेड़, बकरियों, सियार, लोमडि़यों के साथ मिलकर नई सरकार बना ली। तब से जो निकलना शुरू हुआ सो आज भी जारी है, कानून धरा का धरा, जस का तस।

कानून आदमी के लिए होते हैं, नेता आदमी नहीं कुछ और होते हैं। देव-असुर-मनुष्य-नाग-किन्नर से हटकर कोई अलग प्रजाति के। इन पर किसी का कोई बस नहीं होता और न ही इन्हें कोई कानून बाँध सकता। कानून बना कि दलबदल वालों की सदन की सदस्यता चली जाएगी। कौन इसकी परवाह करता है, सदस्यता जाए तो जाए, चूल्हे-भाड़ में।

जब छह महीने के मंत्रियाने में छह साल की भरपाई हो तब फिकर किस बात की। फिर इस जिंदगी का क्या, आज है कल कोरोना जैसा कोई विषाणु खा ले तो..! वहां यमराज को क्या मुँह दिखाएंगे, विधायक-सांसद क्या खाक छानने और खूँटे से बंधे-बंधे गोबर करने के लिए बने थे। सो आज सधे तो साध ले, कल की जाने कौन..?

कानून बना कि अपराधी किस्म के लोग संसद-विधानसभा न पहुंच पाएं। क्या हुआ..? जिस साल ये कानून बना तब से सदनों में अपराधी और बढ़ गए। अब कुल में सैतीस प्रतिशत हैं। यानी कि हर तीसरे ‘माननीय’ के सफेद कुर्ते का गिरेबां काला। जिनने कानून बनाया उन्हीं ने इससे बच निकलने का रास्ता सुझाया। यानी कि तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना।

पशु-पक्षियों का ऋतुकाल होता है। वनस्पतियों के फलने-फूलने, पल्लवित होने, झड़ने का मौसम होता है। लेकिन सियासत का हर मौसम उसका अपना होता है। कहीं भी, कभी भी यहां संसर्ग हो सकता है, उन्मुक्त। सियासत बेहया है। वह श्मशान में भी भँगड़ा कर सकती है। किसी त्योहार में उसके मातम की तुरही बज सकती है। सियासत वायरस है। उसका संक्रमण विषाणुओं से भी घातक। जनता कोरोना से संक्रमित है तो सरकारें सियासत के वायरस से।

यहां हर कोई मौका देखकर चौका मारने को बेताब सा दिख रहा है। विधायकजी बीस साल तक कांग्रेस में खेलते रहे, जैसे ही मैच की सीटी बजी वे भाजपा के पाले में कूद गए। कांग्रेस ने बड़ी उम्मीद के साथ उन्हें उम्मीदवार बनाया था, गाढ़े वक्त में दगा दे गए। किसी कवि ने लिखा है- ये सियासत एक तवायफ का दुपट्टा है, जो किसी के आँसुओं से तर नहीं होता। सियासत बड़ी बेरहम, जब तक मजा आए भोगो, संकट में फँसने से पहले भागो।

अभी एक खबर पढ़ी। प्रेमालाप करते हुए प्रेमिका कुएं में गिर गई, प्रेमी बचाने की बजाय वहां से नौ-दो ग्यारह हो गया। सियासत का असर तो चौतरफा पड़ता है न। कहते हैं कि जब जहाज डूबने को होता है तो सब से पहले चूहे भागते हैं। यहां जिस तरह विधायकों की झड़ी लगी है उससे लगता है कि चूहों के पहले खेवनहार ही भाग रहे हैं।

महाबली ने जब ऐलान किया था कि वे कांग्रेस मुक्त भारत देखना चाहते हैं तब हम जैसे अज्ञानी लोग इसका मतलब निकाल रहे थे कि वे इस पार्टी को किसी प्लेन की तरह क्रैश कराकर हिंद महासागर में विसर्जित करने जैसा कोई उपक्रम करने जा रहे हैं। अब समझ में आया कि उनकी पार्टी अपनी सेहत के वास्ते इनकी पार्टी को वैसे ही उदरस्थ कर हजम करेगी जैसे शार्क कमजोर मछलियों को करती है। गीता में कहा गया है कि न कोई जन्मता है, न मरता है, वह इस मायालोक में सिर्फ रूप बदलता है। जो उस पार्टी में थे वे इस पार्टी का चोला ओढ़ लेंगे।

लोकतंत्र में राजनीति आत्मा की तरह अजर-अमर है। उसे न जनता के आक्रोश की आग जला सकती है, न ही कोई कानूनी हथियार काट सकता है। वह बदल-बदलकर पार्टियों की काया में प्रवेश करती रहती है। कांग्रेसयुक्त होकर भाजपा देश को कांग्रेस मुक्त कर रही है। कांग्रेस से रूप बदलकर आने वालों के स्वागत के लिए बंदनवार सजाए गए हैं। कांग्रेसी करें भी क्या? अब राजनीति मिशन ही कहां रही, वह तो कब की कमीशन में बदल चुकी है। हारी हुई पार्टी के जीते हुए सांसद-विधायक उस पार्टी में रहते हुए सियासत के पूंजी बाजार में रद्दी के भाव बराबर होते हैं।

कांग्रेस में रहकर क्यों कबाड़ के माफिक कोने में पड़े रहें, सो पलटीमार-पाला बदल। रही बात विचारधारा की तो वो गई तेल लेने। विचारधारा होती भी क्या है। यह तो घोषणा पत्रों में छपने वाली फालतू की इबारत है। चुनाव बाद यही साहित्य नेताओं-कार्यकर्ताओं के घर में बच्चों की पोटी पोछने के काम आता है। इस मामले में सभी दल एक हैं। पार्टी विद डिफरेंस भी। हर कुएं में भांग घुली है और दल-दल में धंसे लोकतंत्र के पेड़ की हर शाख पर उल्लू बैठे हैं।

और अंत में- कांग्रेस की फीकी दूकान में बासी पकवान सजाए बैठे एक संस्कारी नेता के दुआ-सलाम के अंदाज को नजरअंदाज न करते हुए मित्र ने एक कविता टॉच मारी, आप भी पढ़िए-

हारे हुए का दर्प बेबस का ज्यों सलाम,
त्योहार में विधवा की उदास भरी शाम।
ये जिंदगी भी खाक कोई जिंदगी हुई,
उधार के मकान पर जैसे हमारा नाम।

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