दहेज नहीं है तो दूल्‍हे की गर्दन पकड़ लो

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अजय बोकिल

इसे संयोग मानें कि इधर ज्योतिष के अनुसार इस साल फरवरी के पहले सप्ताह में शुक्र ग्रह के उदय के साथ विवाह की शहनाइयों के मुंह फिर खुले, उधर बिहार में पकडुवा विवाह का पिछले साल का डाटा सार्वजनिक हुआ। इस महीने विवाह मुहूर्तों की इफरात पर झूमने वाले लोग बिहार के डाटा से इसलिए हैरत में पड़े कि बीते साल राज्य में 3 हजार 405 दूल्हों का पकडुवा विवाह हुआ।

पकड़ुवा यानी जबरिया विवाह। बिहार में ऐसे विवाह लगातार ‘लोकप्रिय’ हो रहे हैं, इसका सबूत बिहार पुलिस के आंकड़े हैं। मसलन 2016 में पकडुवा विवाहों की संख्या 3016 थी तो उसके अगले साल इसमें 4 सौ से ज्यादा का इजाफा हुआ। एक अनुमान के मुताबिक बिहार में शादी के सीजन में औसतन हर‍ दिन 9 पकडुवा विवाह हो रहे हैं। विवाह की इस पद्धति में मनचाहे व्यक्ति को बंदूक की नोंक पर अगवा कर उसे दूल्हा बनाकर उसकी जबरन शादी करा दी जाती है। बिहार पुलिस की ड्यूटी में ऐसे पकड़ुवा विवाह के अपराधियों को पकड़ना भी शामिल है।

बिहार में कई ऐसे इलाके हैं, जहां पकडुवा शादियों को सामाजिक मान्यता मिल चुकी है। राज्य में पकडुवा शादी कराना एक संगठित उद्योग बन चुका है। जरूरी नहीं कि अगवा किया गया लड़का बालिग ही हो। कई बार नाबालिगों का भी अपहरण कर उनके किसी लड़की से फेरे डलवा दिए जाते हैं। पिछले साल ‍राज्य में ऐसे करीब 8 सौ मामले दर्ज किए गए थे। एक मामले में तो तीन सगे भाइयों को अगवा कर उनका तीन लड़कियों के साथ ब्याह रचा दिया गया था।

सवाल यह है कि ऐसे विवाह बिहार में ही क्यों होते हैं? इसके पीछे कौन सी सामाजिक सोच और मजबूरियां हैं? बिहार की प्रखर राजनीतिक चेतना इसके खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठाती? समाजशास्त्रियों की नजर में बिहार की इस दबंगई से भरी अजीब विवाह प्रथा के पीछे आर्थिक और सामाजिक मजबूरियां हैं। बेटी की शादी के लिए मुंहमांगा दहेज न दे पाने वाला बाप विवश होकर पकडुवा गैंग की शरण लेता है।

यह गैंग पैसे लेकर वांछित व्यक्ति को जबरन पकड़ कर शादी के मंडप तक पहुंचाकर फेरे डलवा देती है। बताते हैं कि बिहार में ऊंची जातियों में इस विवाह का चलन ज्यादा है, क्योंकि दहेज का सेंसेक्स वहां हर साल कुलांचे भरता हैं। यह बुराई तो अन्य राज्यों और दूसरे समाजों में भी है, लेकिन अगवा कर वरमाला पहनवाने को वहां अभी स्वीकार नहीं किया जाता।

बिहार का पकडुवा विवाह इस मायने में भी अनोखा है, क्योंकि यह प्रथा हिंदुओं में मान्य अष्ट विवाह पद्धतियों में नहीं आती। अष्ट विवाह पद्धतियों में एक ‘राक्षस विवाह’ भी है, लेकिन इसमें कन्या का अपहरण कर उसके साथ विवाह किया जाता है। लेकिन इसका बिहारी वर्जन बिल्कुल उलटा है, यहां दूल्हे को ही किडनैप कर दुल्हन के साथ सात फेरे डलवा दिए जाते हैं।

पकडुवा गैंग वांछित दूल्हे को पकड़कर कर कन्या पक्ष को मैसेज देती है कि ‘लड़का किडनैप कर लिए हैं। सर, बियाह का तैयारी कीजिए।‘ खास बात यह है कि ‘बियाह की इस तैयारी’ पर कोई कानूनी रोक नहीं है। यानी दहेज प्रथा और अपहरण के खिलाफ तो कानून है, लेकिन पकडुवा विवाह पर अंकुश के लिए कोई कायदा नहीं है। इस पर ज्यादा हल्ला इसलिए भी नहीं होता, क्योंकि जबरिया ही सही, शादी हो जाने के बाद प्राय: इसका अंत हिंदी फिल्मों की तरह सुखांत ही होता है। यानी कि अंत भला तो सब भला। भले ही वह मजबूरी की आड़ में हो।

हैरत की बात है कि अगर विवाह का यह आपराधिक तरीका है तो फिर लोग इसे अपना क्यों रहे हैं? इसका जवाब यही है कि ऐसे विवाह स्थायी सिद्ध हो रहे हैं। यानी जितने विवाह इस प्रथा से हो रहे हैं, उनके टूटने का ग्राफ तुलनात्मक रूप से बहुत कम है। दूसरे, इसमें दहेज के पैसे की बचत हो जाती है, क्योंकि महंगाई के इस दौर में शादी करना वधू पक्ष की कमर तोड़ देता है। सबसे अजब बात इस आपराधिक तरीके से अंजाम दी गई शादी को भी ‘किस्मत का लेखा’ मान लेने की प्रवृत्ति है।

कथाकार सच्चिदानंद सिंह की कहानी है- ‘पकडुवा।‘ इसमें वर के पिता को मनमाफिक दहेज न दे पाने पर वधू का पिता पकडुवा गैंग की शरण लेता है। गैंग वांछित वर के बजाए गलतफहमी में उसके दोस्त को पकड़ लाती है। दोस्त पिछड़ी जाति का होता है जबकि वांछित वर और वधू ब्राह्मण होते हैं। दोस्त बार-बार कहता है कि मैं वो नहीं। लेकिन कोई नहीं सुनता। आखिर जबरन उसे ब्राह्मण कन्या का पाणिग्रहण करना पड़ता है।

बाद में गैंग को पता चलता है कि वह किसी गलत व्यक्ति को पकड़ लाए हैं तो उसकी हत्या की योजना बनती है। दोस्त अपनी पत्नी को सच-सच बता देता है कि वह उसका वांछित पति नहीं हैं। लेकिन भारतीय संस्कारों से बंधी उसकी पत्नी अपने पति से कहती है कि मैंने अग्नि की साक्षी में आपके साथ सात फेरे लिए हैं। अब आप ही मेरे पति हैं। अंत में वह पति की जान के दुश्मनों से अपने पति को बचाकर दूर सुरक्षित जगह ले जाती है।

हालांकि इस कहानी का अंत ‘पति परमेश्वर’ थ्योरी में भरोसा करता है। लेकिन हर पकडुवा विवाह का अंत ऐसा ही हो, जरूरी नहीं है, क्योंकि अपराध से जन्मे रिश्ते हरसिंगार की तरह सदा महकें यह ‍अनिवार्य नहीं है। अलबत्ता ‘पकडुवा विवाह’ हमारे समाज की महामारी दहेज प्रथा का एक नकारात्मक तोड़ है और विवाह की मंडी में कुंवारी बेटियों के हाथ पीले करने का खांटी बिहारी अंदाज भी।

(सुबह सवेरे से साभार)

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