इस देश में आदिवासी ‘हिंदू’ नहीं हैं तो क्या हैं?

अजय बोकिल

इस देश में आदिवासियों का धर्म क्या है? अगर वो हिंदू नहीं हैं तो फिर क्या हैं? ये सवाल फिर इसलिए उठ रहे हैं कि झारखंड के आदिवासी मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने अमेरिका के हावर्ड विवि द्वारा आयोजित एक वर्चुअल सेमिनार में कहा कि आदिवासी हिंदू नहीं है। आदिवासी न तो कभी हिंदू थे और न ही कभी होंगे। हमारे राज्य (झारखंड) में 32 आदिवासी समुदाय हैं, लेकिन हम अपनी भाषा और संस्कृति को बढ़ावा नहीं दे पा रहे हैं। सोरेन के इस कथन पर विश्व हिंदू परिषद ने कड़ी प्रतिक्रिया दी है। परिषद के केन्द्रीय महासचिव मिलिंद परांडे ने बयान जारी कर कहा ‍कि हेमंत सोरेन ईसाई मिशनरियों के दबाव में भोले-भाले वनवासियों को भ्रमित करने का प्रयास कर रहे हैं। आदिवासी भगवान बिरसा मुंडा भी रामायण महाभारत के मूल्यों को मानते थे।

सोरेन के कथन को इस साल होने वाली जनगणना में आदिवासियों के सरना धर्म को मान्यता दिलाने की पुरानी मांग से जोड़कर भी देखा जा रहा है। तीन माह पहले झारखंड विधानसभा ने सर्वसम्मति से संकल्प पारित कर केन्द्र सरकार को भेजा था कि जिस प्रकार जनगणना फार्म में अन्य मान्य धर्मों के अलग कोड हैं, उसी तरह सरना धर्म को मानने वाले आदिवासियों के लिए अलग कोड का प्रावधान किया जाए। केन्द्र सरकार ने इस पर अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। इसका अर्थ यही है कि सरकार ऐसा कोई प्रावधान करने पर शायद ही राजी हो।

जहां तक हेमंत सोरेन की बात है तो वो स्वयं इंजीनियर हैं और झारखंड मुक्ति मोर्चा पार्टी के प्रमुख हैं। जिस वर्चुअल सेमिनार में वो बोले, उसका आयोजन हार्वर्ड कैनेडी स्कूल ने 18 वीं एन्युअल इंडिया कांफ्रेंस के रूप में किया था। इस सत्र का संयोजन हार्वर्ड कैनेडी स्कूल के सीनियर फेलो और दलित स्‍कॉलर डॉ. सूरज येंगडे ने किया था। सूरज भारत में जाति व्यवस्था के खिलाफ काफी लिखते रहे हैं और उन्होंने बाबा साहब आम्बेडकर पर भी काफी काम किया है। सोरेन ने वह बात सेमिनार में पूछे गए एक सवाल के जवाब में कही थी।

सोरेन ने कहा कि आदिवासी समुदाय हमेशा प्रकृति का उपासक रहा है। इसीलिए उन्हें देशज समुदाय कहा जाता है। लेकिन आदिवासी हिंदू नहीं हैं। इस बारे में किसी को भ्रम नहीं रहना चाहिए। इसीलिए हम जनगणना में अपने धर्म के लिए अलग से कॉलम चाहते हैं। गौरतलब है कि 2011 तक जनगणना फार्म में नागरिकों के धर्म की जानकारी भरते समय एक कॉलम ‘अन्य’ का भी होता था। यानी जो लोग अपने को किसी भी मान्य धर्म का अनुयायी नहीं लिखवाना चाहते थे, वो ‘अन्य’ का विकल्प चुनते थे। मोदी सरकार ने यह कॉलम ही हटा दिया है। ऐसे में आदिवासियों के सामने यही विकल्प है कि वो या तो खुद को हिंदू लिखवाएं या फिर ईसाईयत अथवा किसी धर्म का अनुयायी लिखवाएं।

झारखंड में सरना धर्म को मानने वाले आदिवासियों की संख्या राज्य में कुल आबादी का 12.52 फीसदी है। आदिवासी समुदायों में भी सरना कोड को लेकर सबसे ज्यादा मुखर कुडमी महतो समुदाय है। इस मांग के समर्थन में अब पर्यावरण राष्ट्रवाद (ईको नेशनलिज्म) का नारा भी दिया जा रहा है।

सवाल यह है कि सरना धर्म है क्या? सरना शब्द संथाली भाषा के ‘सर’ और ‘ना’ शब्दों से मिलकर बना है। जिसका शाब्दिक अर्थ है- यह तीर। सरना अनुयायी वृक्ष कुंज की पूजा करते हैं, जो अमूमन साल का होता है। मान्यता है कि इसी कुंज में ग्राम देवती (देवी) भी वास करती हैं, जो पूरे गांव की रक्षा करती हैं। इसे मांरग बुरू अथवा माता भी कहा जाता है। आदिवासी इस ग्राम देवी को साल में दो बार बलि चढ़ाते हैं तथा सरना स्थल पर एकत्र होकर पूर्वजों को स्मरण करते हैं।

जाहिर है कि सनातन हिंदू धर्म के देवी-देवताओं को सरना नहीं मानते। लेकिन उनकी ग्राम देवती की संकल्पना हिंदू शक्ति पूजा से कुछ मेल खाती है। आदिवासियों की इसी आस्था के मद्देनजर ईसाइयों ने भी धर्म प्रचार में ‘माता मरियम’ को प्रस्तुत करना शुरू दिया है। इसमें दो राय नहीं कि आदिवासी पूरी तरह हिंदू (जिन्हें संघ और भाजपा वनवासी कहते हैं) धर्म के सबसे ज्यादा करीब हैं बजाए किसी और धर्म के। कई राज्यों में ठाकुरों और आदिवासियों में रोटी-बेटी का रिश्ता होता आया है। लेकिन तब भी यह सवाल कभी नहीं उठा कि आदिवासी हिंदुओं से अलग हैं।

दरअसल आदिवासियों की असली लड़ाई अपनी स्वतंत्र पहचान की है। वो अगर आधुनिकता की दौड़ में शामिल होते हैं तो उन्हें अपनी परंपराएं और विश्वासों को दरकिनार करना पड़ता है। समाज की मुख्य धारा में वो या तो हिंदू हैं या फिर कुछ और। इसीलिए यह नरेटिव बनाया जा रहा है कि आदिवासी हिंदू नहीं हैं या फिर ‍आदिवासी हिंदू ही हैं। जहां तक सामाजिक विषमता या उपेक्षा की बात है तो यह बात उन आदिवासी समुदायों पर भी लागू  होती है, जिन्होंने हिंदू इतर धर्म अपना लिए, लेकिन हमेशा आदिवासी, कबाइली या ट्राइबल के रूप में ही जाना गया।

इस बारे में आरएसएस का मानना है कि अलग धर्म कोड की यह मांग आदिवासियों के भीतर से नहीं आई है, उन्हें यह कहकर बरगलाया जा रहा है कि वो हिंदू नहीं हैं। इसके पीछे ईसाई मिशनरियां, कम्युनिस्ट और नक्सलवादी हैं। जो आदिवासियों को हिंदू समुदाय से अलग करना चाहते हैं। हालांकि कुछ लोग सरना धर्म को ‘आदि धर्म’ भी कहने लगे हैं। अब अगर आदिवासियों का धर्म ‘आदि’ है तो हिंदू धर्म को उसके बाद का माना जाएगा। हिंदूवादियों को यह कभी मंजूर नहीं होगा।

दरअसल धर्म की इस लड़ाई का असर कई आदिवासी परिवारों पर गहरे तक पड़ रहा है। एक ही परिवार धर्म के आधार पर बंट रहा है। पढ़-लिख जाने पर आदिवासी बच्चों को या तो हिंदू जीवन शैली अपनानी होती है या फिर ईसाई। वो अपनी मूल संस्कृति, भाषा के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानते। क्योंकि शहरी सभ्य समाज की बनावट में वो फिट नहीं होता। मानो जंगल में रहना और उस जीवन शैली की स्मृतियां भी अभिशाप हैं। सोरेन ने जो बोला, उसमें आदिवासियों के सामाजिक अंतर्द्वंद्व के साथ-साथ राजनीति भी है। क्यों‍कि 2014 के विधानसभा चुनाव में जीत के बाद भाजपा ने एक आत्मघाती प्रयोग किया। उन्होंने एक अनजान से चेहरे रघुबर दास को मुख्य मंत्री बना दिया।

इस फैसले से प्रदेश के आदिवासियों में यह संदेश गया कि भाजपा हिंदू के रूप में आदिवासियों के वोट तो चाहती है, लेकिन सत्ता की कमान उन्‍हें नहीं सौंपना चाहती। सोरेन इसी दरार को चौड़ा करना चाहते हैं ताकि आदिवासी एक अलग धर्म और पहचान के साथ लामबंद हों। यह लड़ाई लंबी चलने वाली है। अगर केन्द्र सरकार जनगणना में ‘सरना धर्म कोड’ की मांग मान लेती है तो इस कॉलम में जो आबादी शामिल होगी, वह मुख्य रूप से हिंदुओं की संख्या में से ही माइनस होगी। सरकार अगर यह मांग नहीं मानती तो आदिवासियों में अलगाव की भावना और तेज होगी।

अभी सरना धर्म कोड की मांग मुख्य रूप से झारखंड और पड़ोसी राज्यों के कुछ आदिवासी समुदायों की है। लेकिन इसका विस्तार अन्य राज्यों में भी हो सकता है। जबकि पूरे देश में समूचा आदिवासी समुदाय अलग-अलग जनजातियों में बंटा है और स्थानीय परिस्थिति और पर्यावरण के अनुसार उनका दूसरे धार्मिक समुदायों के साथ रिश्ता और व्यवहार तय होता है। पूरे देश में 645 आदिवासी समुदाय हैं। जंगलों पर आश्रित होने का एक समान तत्व अलग रखें तो हर जनजातीय समुदाय की भाषा, रूप-रंग, रीति-रिवाज, परंपराएं, संस्कृति और खान-पान अलग है। स्थानीय गैर आदिवासी समुदायों से उनके रिश्ते भी अलग-अलग तरह के हैं और तमाम शोषण के बाद भी यह काफी हद तक परस्पर आश्रित हैं। इसलिए सारे आदिवासी समुदाय ‘सरना’ धर्म को अपना धर्म मान लेंगे, कहना मुश्किल है।

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