यह बहुत दिलचस्प संयोग है। पिछले दो बार से मैं अपने इस कॉलम में संकेत भाषा को लेकर लिख रहा था और आज अचानक एक प्रसंग ने मुझे वाचिक भाषा या शब्दों पर लिखने के लिए प्रेरित किया है। वैसे हमारे यहां कहा गया है कि मौन या कम से कम शब्दों का इस्तेमाल कई बार बड़े से बड़ा झगड़ा या विवाद निपटाने में बड़ा सहायक होता है।
दूसरी तरफ शब्दों का तेजाबी असर होता है। हमारे प्राचीन ग्रंथ रामायण और महाभारत तो शब्दों की इस मारक क्षमता के सबसे बेहतरीन उदाहरण हैं। चाहे वह भरत को राजा बनाने का सुझाव देने वाले मंथरा के शब्द हों या फिर दुर्योधन को अंधे की संतान बताने वाले द्रौपदी के शब्द। हम कह सकते हैं कि यदि ये शब्द रोके जा सकते होते तो शायद इतिहास कुछ और होता।
सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने भी शब्दों के इसी महत्व को लेकर बहुत अहम बात कही। उसने कहा कि शब्दों का चयन सोच-समझकर करना चाहिए क्योंकि ये तलवार से भी ज्यादा खतरनाक होते हैं और हमारे आसपास के व्यक्तियों का जीवन समाप्त कर सकते हैं। यह टिप्पणी करते हुए कोर्ट ने एक युवती को आत्महत्या के लिए उकसाने की दोषी महिला को पूरी सजा काटने का निर्देश दिया।
किस्सा यह था कि तमिलनाडु में एक महिला ने लड़ाई झगड़े के दौरान एक युवती को वेश्या कह दिया। यह संबोधन उस युवती को इतना अपमानजनक लगा कि उसने आहत होकर खुद पर तेल छिड़क कर आत्मदाह कर लिया। मरने से पहले दिए गए बयान में उसने इस बात की पुष्टि की कि महिला की गाली-गलौच और उसका कहा गया शब्द उससे बर्दाश्त नहीं हुआ।
ट्रायल कोर्ट ने आरोपित महिला को आईपीसी की धारा 306 के तहत तीन साल की सजा दी। लेकिन मद्रास हाईकोर्ट ने उसे घटाकर एक वर्ष कर दिया। दोषी महिला ने उस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। लेकिन जस्टिस आर. भानुमती और विनीत सरन की पीठ ने उसकी दोषसिद्धि को सही ठहराते हुए मृत्यु पूर्व बयान को मान्य किया।
अदालत ने कहा कि मृतक 26 वर्ष की अविवाहित युवती थी जो इस शब्द से बुरी तरह से आहत हो गई और आत्महत्या करने का फैसला कर लिया। हाईकोर्ट ने इस मामले में पहले ही काफी रियायत बरत कर सजा को एक साल कर दिया है। हमें इसमें और उदारता दिखाने कि जरूरत नहीं है। दोषी को आदेश दिया जाता है कि वह चार हफ्ते में सरेंडर कर बची हुई सजा भुगते।
समाज में ऐसी घटनाएं अकसर होती रहती हैं और शब्दों से आहत व्यक्ति कई बार आत्मघाती कदम उठा लेते हैं। ऐसी प्रवृत्ति खासतौर से युवाओं में ज्यादा देखी जाती है। यह खतरा उस समय और भी बढ़ जाता है कि जब कही जाने वाली कटु बात का संबंधित व्यक्ति से दूर दूर तक कोई लेना देना न हो। व्यक्ति उस आरोप को अपने लिए सबसे बड़ा अपमान समझता है और ऐसे में उसकी दो तरह की प्रतिक्रिया होती है, या तो वह गुस्से में आरोप लगाने वाले की जान ले लेता है या फिर ग्लानि में खुद की जान दे देता है।
कोर्ट का यह ऑब्जर्वेशन बिलकुल सही है कि बड़े से बड़े विवाद की स्थिति में भी हमें ऐसी कोई भी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए जो सामने वाले के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाए। चोर को यदि आप चोर कहें तो एक बार उसकी प्रतिक्रिया हिंसात्मक नहीं होगी,लेकिन किसी ईमानदार को यदि चोर कह दें तो उसकी प्रतिक्रिया हिंसात्मक या आत्मघाती हो सकती है। ज्यादा अच्छा है कि हम चुप रहें…
यहां मौन के महत्व को लेकर मुझे बरसों पहले सुनी गई एक कहानी याद आ गई। एक पति-पत्नी में अकसर झगड़ा होता रहता था। उनके झगड़े को लेकर परिवार वाले तो परेशान रहते ही, पास-पड़ोस और मोहल्ले वाले भी तंग आ चुके थे। एक बार उनके गांव में एक महात्मा आए। उस झगड़ालू दंपति के पड़ोसी ने महात्मा जी को पूरी बात सुनाई और दोनों को शांत करने का उपाय पूछा।
महात्मा ने कहा, तुम कल दोनों को मेरे पास लेकर आओ। अगले दिन पड़ोसी पति पत्नी को लेकर महात्मा के पास पहुंचा। महात्मा ने दोनों को अलग अलग बुलाकर उनकी बात सुनी और बाद में पति से कहा कि मैं तुम्हें एक दवाई देता हूं। जब भी तुम दोनों के बीच झगड़ा या विवाद हो, तो तुम यह दवाई अपने मुंह में भरकर रख लेना। ध्यान रहे यह दवाई सिर्फ मुंह में भरकर रखनी है उसे पीना नहीं है।
कुछ दिन बाद महात्मा गांव से चले गए। इधर दवा का चमत्कारिक असर हुआ और पास पड़ोसियों के अलावा बस्तीवालों ने भी महसूस किया कि उस घर से अब लड़ाई झगड़े की आवाज बिलकुल नहीं आती, हमेशा शांति बनी रहती है। लंबे समय बाद एक बार फिर वे महात्मा गांव में आए। वे ही दंपति उनसे मिलने पहुंचे।
कुशलक्षेम पूछने के बाद दंपति ने महात्मा का आभार जताया, दोनों ने कहा कि उनकी दवाई तो रामबाण साबित हुई। उसके असर से घर का झगड़ा बंद हो गया। जब वे महात्मा के पास से जाने लगे तो जाते जाते पति ने कहा, महाराज, वो दवाई खत्म हो गई है यदि एक बोतल और दे जाते तो ठीक रहता। घर में अमन-चैन बना रहता…
पति की बात सुनकर महात्मा को हंसी आ गई। वे बोले, अरे भाई वो दवाई तो तुम्हारे घर की रसोई में हमेशा मौजूद रहती है। पति ने हैरानी से महात्मा की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा। महात्मा ने उसकी जिज्ञासा शांत करते हुए कहा- बेटा वह कोई दवाई नहीं थी, दरअसल मैंने तुम्हें बोतल में सामान्य पानी भरकर दिया था।
महात्मा बोलते जा रहे थे- लेकिन याद करो, मैंने तुमसे कहा था इसे पीना नहीं, सिर्फ मुंह में भरकर रखना… विवाद की स्थिति में तुम जितनी देर उसे मुंह में भरकर रखते, तुम्हारे मुंह से एक शब्द भी नहीं निकलता और इस तरह वाद विवाद की स्थिति ही नहीं बनती, लिहाजा न बात बढ़ती न झगड़ा होता… अब जब भी तुम्हें लगे कि कोई विवाद हो सकता है तो बस अपना मुंह बंद रखना…
इस कहानी को मैं जब जब भी याद करता हूं, मुझे लगता है काश, कोई महात्मा हमारे राजनेताओं को भी ऐसी कोई दवा थमा देता… लेकिन फिर सोचता हूं, आज जो हालात हैं, उनके चलते तो कोई भी मुंह में पानी भरकर नहीं रखता, गाली देने का रोग इतना बढ़ चला है कि लोग मुंह का कुल्ला दूसरे पर थूक कर चालू हो जाते…