खबर आई है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने छत्तीसगढ़ के सुकमा में नक्सलियों द्वारा की गई सीआरपीएफ के 25 जवानों की हत्या के बाद, नक्सली मामलों से निपटने की जिम्मेदारी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल को सौंपी है। डोभाल के नेतृत्व में सभी पहलुओं पर विचार के लिए एक कमेटी बनेगी, इसके साथ ही संयुक्त रणनीति को अंजाम देने के लिए एकीकृत कमांड बनाने की भी तैयारी है।
नक्सलियों द्वारा किए गए नरसंहार के बाद चौतरफा दबाव के चलते सरकार ने आनन फानन में सीआरपीएफ के डीजी की भी नियुक्ति कर दी है। मीडिया में आने वाली तरह तरह की रिपोर्ट्स के कारण गृह मंत्रालय ने बुधवार रात एक स्पष्टीकरण भी जारी किया जिसमें कहा गया कि न तो नक्सलियों से निपटने के लिए फंड की कोई कमी है और न ही पुलिस व सीआरपीएफ में तालमेल की कोई समस्या है।
सरकार का यह भी कहना है कि नक्सलियों पर दबाव लगातार बन रहा है और वे हताशा में आकर इस तरह की वारदातें कर रहे हैं। गृह मंत्रालय ने दावा किया है कि 2013 से लेकर अब तक नक्सली हिंसा में 7 फीसदी की कमी आई है। हाल ही में 750 जवानों के बल वाली एक स्पेशल ‘बस्तरिया बटालियन’ के गठन को भी मंजूरी दी गई है।
नक्सली हिंसा से निपटने के केंद्र व राज्य सरकार के ये तमाम दावे अपनी जगह सही हो सकते हैं। सरकार का यह दावा भी सही ही होने की उम्मीद की जानी चाहिए कि नक्सली समस्या से निपटने के लिए फंड की कोई कमी नहीं है। क्योंकि उसका कहना है कि सुरक्षा इंतजामों को लेकर राज्य सरकार को 2011 से 2014 के बीच जहां 575 करोड़ रुपए की मदद मुहैया कराई गई थी वहीं 2014 से 2017 के बीच 675 करोड़ रुपए की मदद दी गई है।
लेकिन जब इतना सब हो रहा है और सभी का सभी के साथ बेहतर तालमेल है तो फिर सवाल उठता है कि वे कौनसी वजहें हैं जिनके चलते हमारे जवान लगातार मारे जा रहे हैं। क्या कारण है कि कश्मीर हो या बस्तर, इस तरह के आतंकी गिरोहों को स्थानीय लोगों का भी समर्थन मिल रहा है। केवल आतंकियों की बंदूक का डर ही वह कारण नहीं हो सकता जिसकी वजह से स्थानीय लोग उनकी मदद करते हों।
इस मामले में पुलिस या सुरक्षा बलों के द्वारा की जाने वाली जवाबी कार्रवाई या सर्जिकल स्ट्राइक टाइप किसी एक्शन के साथ साथ दो और मोर्चों पर पुख्ता काम किए जाने की आवश्यकता है। पहला मोर्चा है सरकारी फंड का उचित लाभ जरूरतमंदों तक पहुंचाना। और दूसरा है विचारधारा के स्तर पर काम करते हुए जनता को नक्सलियों अथवा कश्मीरी आतंकवादियों से अलग करना।
जहां तक सरकारी फंड की स्वीकृति का प्रश्न है, चाहे बस्तर हो या कश्मीर। अलग अलग कारणों से दोनों जगह केंद्र व राज्य सरकारें अन्य इलाकों की तुलना में काफी इफरात से पैसा बहाती आई हैं। आजादी के बाद से इन इलाकों में हजारों करोड़ रुपए खर्च कर दिए गए होंगे। लेकिन इसके बावजूद स्थानीय लोगों का चुनी हुई सरकारों के प्रति भरोसा न जमना और उनका अतिवादी विचार के प्रभाव में आ जाना चिंताजनक है।
इसका एक बड़ा कारण सरकारी योजनाओं के लिए आने वाले धन में होने वाला भ्रष्टाचार है। पिछले दिनों केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी ‘शौचालय योजना’ को लेकर ही छत्तीसगढ़ में बड़ा घोटाला सामने आया था। शौचालय या तो कागज पर बने थे या फिर उनका केवल दिखावटी ढांचा खड़ा कर दिया गया था। मीडिया में इनकी तसवीरें सामने आने के बाद केंद्र सरकार ने विशेष जांच दल छत्तीसगढ़ भेजा था, जिसने खुद आरोपों को सही पाया था।
जब इस तरह की घटनाएं होती हैं, और वे होती ही हैं, तो व्यवस्था विरोधी अतिवादी संगठनों को, लोगों को बहकाने और उनमें व्यवस्था के प्रति जबरदस्त नाराजी पैदा करने का मौका मिल जाता है। चाहे राजनीतिक नेतृत्व हो या प्रशासनिक तंत्र, दोनों को स्थानीय लोगों के सामने शोषक की तरह प्रस्तुत किया जाता है। ऐसी कोशिशों का प्रभावी काउंटर न हो पाना और कई सारे आरोपों का आंखों के सामने सच दिखना, गुस्से की आग को और भड़का देता है।
इसलिए जरूरी है कि प्रतिरोधात्मक कार्रवाई के साथ साथ वैचारिक स्तर पर भी ऐसे तत्वों का प्रभावी मुकाबला किया जाए। इसके लिए नक्सल प्रभावित इलाकों में जाने वाले और स्थानीय लोगों के साथ काम करने वाले ऐसे लोग या समूह तैयार करने होंगे जो उनका भरोसा अर्जित करते हुए उनमें लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति भी भरोसा पैदा करें। यह काम जोखिम भरा जरूर है, लेकिन ऐसी कोशिशों को लगातार जारी रखना होगा। हथियार के मुकाबले हथियार से निपटने की रणनीति के साथ साथ, विचार के मुकाबले विचार या भ्रामक प्रचार के मुकाबले सही सूचनाएं लोगों तक पहुंचाने के लिए भी कोई ‘बस्तरिया बटालियन’ होनी चाहिए।
याद रखना होगा कि बंदूक के बजाय विचार, नक्सली इलाकों में ज्यादा घातक सिद्ध हो रहा है। आखिर क्या कारण है कि न सिर्फ स्थानीय नक्सली बल्कि सैकड़ों किलोमीटर दूर दिल्ली के विश्वविद्यालयों से आने वाले प्रोफेसर भी बस्तर के आदिवासियों में में घुसपैठ बना लेते हैं, पर वहीं बैठा सरकारी तंत्र यह नहीं कर पाता?