राकेश दुबे

आंकड़े गंभीर नहीं डरावने हैं, विश्व भर में लगभग 12 करोड़ लोग कोरोना दुष्काल में भुखमरी की चपेट में आ चुके हैं।  वैश्विक खाद्य संकट के कारण यह संख्या बढ़कर 80 करोड़ से भी अधिक हो गयी है। भारत में लगभग 8 करोड़ डायबिटीज के मरीज हैं, प्रतिवर्ष 1.7 करोड़ लोग हृदय रोग के कारण दम तोड़ देते है, 33 लाख से अधिक बच्चे कुपोषित हैं। आधे से ज्यादा महिलाएं और बच्चे तथा हर पांच में से एक पुरुष एनीमिक है। यह सारा संकट अनाज के कारण है। कहीं अनाज उपलब्ध नहीं होता तो कहीं वो गुणकारी नहीं होता।  सारा विश्व इस संकट से निपटने के उपाय खोज रहा है।

पिछले दिनों उज्बेकिस्तान के समरकंद में आयोजित हुए एससीओ सम्मेलन में विश्व खाद्य संकट से निपटने के लिए सुपर फूड (मोटा अनाज) को हर थाली का हिस्सा बनाये जाने की अपील तक की गयी है। कोविड, जलवायु संकट, यूक्रेन युद्ध आदि कारणों से विश्व आज खाद्य संकट जैसी बड़ी चुनौती का सामना कर रहा है। ऐसे में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए मोटे अनाज की खेती और उपभोग को बढ़ावा देने की जरूरत है।

मोटा अनाज ऐसा सुपर फूड है, जो खाद्य संकट से निपटने के लिए एक पारंपरिक पोषक और कम लागत वाला विकल्प है। मोटे अनाज के अंतर्गत अनेक फसलों को शामिल किया जाता है, जैसे-बाजरा, ज्वार, रागी, कोदो, कुटकी, कुट्टू, चौलाई आदि। इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण फसल ज्वार और बाजरा है।

आज आवश्यकता है कि मोटे अनाज को प्रत्येक थाली का हिस्सा बनाया जाये। कहने को भारत सरकार भी पौष्टिक आहार उपलब्ध करवाने के प्रति गंभीर है। ऐसे में बाजरा को मिड डे मील के साथ सार्वजनिक वितरण प्रणाली का हिस्सा बनाया जा रहा है। मोटे अनाज के सर्वोत्तम स्वास्थ्य लाभों में हृदय को स्वस्थ रखने, मधुमेह से बचाव, पाचन तंत्र मजबूत करने की क्षमता शामिल है।

सीजीआईएआर के अनुमान के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाले दशक में गेहूं, चावल और मक्का का वैश्विक उत्पादन 15 से 20 प्रतिशत तक घट सकता है। ऐसे में धरती के बढ़ते तापमान के साथ अनुकूलन कर सकने वाला मोटा अनाज भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए अपरिहार्य बनता जा रहा है। छोटे किसानों के लिए भी यह लाभदायक है क्योंकि यह फसल कम पानी और कम समय में उत्पादित होती है।

हमारे देश की प्राचीन खाद्य संस्कृति भी इन मोटे अनाजों के साथ जुड़ी हुई थी, लेकिन हरित क्रान्ति के बाद खाद्य संस्कृति में बदलाव के साथ ही मोटा अनाज थाली से बाहर होता गया। इंडिया स्पेंड की अगस्त 2016 की रिपोर्ट के अनुसार, 1960 के दशक के बाद औसत भारतीय की थाली से ज्वार और बाजरा को गेहूं और चावल द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया था।

मोटे अनाज की मांग घटने एवं उचित मूल्य न मिलने से इसे उगाने के प्रति किसानों का मोह भंग होने लगा। साल 1970 में मोटे अनाज का उत्पादन 12.17 मिलियन टन था जो 2007 में 40.75 मिलियन टन एवं 2019 में 47.48 मिलियन टन हुआ है। उत्पादन में होने वाली यह वृद्धि नाममात्र ही है। अंतर्राष्ट्रीय फसल अनुसंधान संस्थान द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, 1962 से 2019 के बीच, भारत में बाजरा की प्रति व्यक्ति खपत 32.9 किलोग्राम से घटकर 2.8 किलोग्राम प्रति वर्ष ही रह गई है।

मोटे अनाज के प्रति लोगों में जागरूकता लाने एवं इसकी मांग में वृद्धि के लिए ही संयुक्त राष्ट्र के साथ-साथ भारत सरकार ने भी वर्ष 2023 को मोटा अनाज वर्ष के रूप में घोषित किया है। वहीं कोरोना के बाद स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से लोगों में मोटे अनाज के प्रति रुझान बढ़ा है। आयरन, फाइबर, विभिन्न खनिज, विटामिन आदि सूक्ष्म पोषक तत्वों से भरपूर मोटे अनाज को आज इम्यूनिटी बूस्टर के रूप में मान्यता मिल चुकी है।

राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मोटे अनाज की बढ़ती मांग की पूर्ति हेतु सभी राज्यों को मिलकर एक बड़ी तैयारी करनी होगी। वैश्विक स्तर पर 41 प्रतिशत के योगदान के साथ भारत मोटे अनाज का सबसे बड़ा उत्पादक देश है, परन्तु वैश्विक निर्यात में पांचवें नम्बर पर है। 2025 तक वैश्विक बाजरा बाजार 12 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक होने का अनुमान है।

इंडोनेशिया, जर्मनी, ईरान, बेल्जियम और दक्षिण कोरिया, एशिया प्रशांत, मध्य पूर्व, यूरोपीय संघ आदि देशों में बाजरे की बढ़ती मांग की आपूर्ति के लिए रणनीतिक पहल करनी होगी। मोटे अनाजों विशेष रूप से ज्वार और बाजरा के उचित प्रसंस्करण द्वारा भारत वैश्विक बाजार की बढ़ती मांग और बाजार अवसरों का लाभ ले सकता है।

देश के सभी राज्य अपने परंपरागत ज्ञान में नवीन प्रौद्योगिकी एवं नवाचार के समन्वय द्वारा मोटे अनाजों के उत्पादन में रिकार्ड स्थापित कर सकते हैं। इसके लिए गुणवत्तापूर्ण बीजों की उपलब्धता पर विशेष ध्यान देना होगा। मोटे अनाज को खाद्य श्रृंखला की मुख्यधारा में पुनः लाने के लिए लोगों में जागरूकता के साथ-साथ इसके व्यावसायिक मॉडल हेतु एक बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाना होगा।
(मध्यमत)
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