इसलिए नीची रहती हैं निगाहें

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एक संत जितने बड़े कवि थे उतने ही दानवीर भी।

लेकिन उनकी एक खास बात थी कि जब वे दान देने के लिए हाथ आगे बढ़ाते तो अपनी नज़रें नीचे झुका लेते थे।

ये बात सभी को अजीब लगती थी। लोग सोचते, ये संत कैसे दानवीर है, दान भी देते है और इन्हें शर्म भी आती है  ।

ये बात जब दूसरे संत तक पहुंची तो उन्‍होंने दानवीर संत को चार पंक्तिया लिख कर भेजीं। उन्‍होंने लिखा-

ऐसी देनी देन जू, कित सीखे हो सेन

ज्यों ज्यों कर ऊंचो करें, त्यों त्यों नीचे नैन ।

यानी, हे संत! तुम ऐसा दान देना कहाँ से सीखे हो। जैसे-जैसे तुम्हारे हाथ ऊपर उठते है वैसे-वैसे तुम्हारी नजरें नीचे झुक जाती हैं, ऐसा क्‍यों?

उन संत ने इस सवाल का जो जवाब दिया वो अपने आप में पूरा दर्शन है। जवाब इतना सुंदर और सटीक था कि उसने सभी को निरुत्‍तर कर दिया। वो जवाब जिसने भी सुना उन संत का भक्‍त हो गया। संत ने जवाब में लिखा-

देन हार कोई और है, भेजत जो दिन रैन

लोग भरम हम पर करें, तासो नीचे नैन

मतलब देने वाला तो कोई और है। वो मालिक है, वो परमात्मा है, वही दिन रात भेज रहा है। लेकिन लोग ये समझते है कि मैं दे रहा हूं। यह विचार आते ही मुझे शर्म आ जाती है और मेरी आँखे नीचे झुक जाती है।

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यह प्रेरक कथा हमें हमारे एक पाठक श्री हरमंदरसिंह होरा ने भेजी है।

2 COMMENTS

  1. बहुत ही बढ़िया प्रेरक कथा।
    पोस्ट के लिए धन्यवाद्।

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