राकेश अचल
जैसा कि मैं हर समय कहता आया हूँ कि हमारे देश में मुद्दों और उन्माद की कोई कमी नहीं है। एक मुद्दा समाप्त नहीं होता कि दूसरा सर उठाकर खड़ा हो जाता है। देश बहुत दिनों से सुशांत की आत्महत्या को लेकर हलकान था इसलिए नए मुद्दे की जरूरत थी। देश कि ये जरूरत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय पक्षी मोर के साथ अपनी कुछ तस्वीरें जारी कर पूरी कर दी। अब पूरा देश ‘मोर-मोर’ करते नहीं थक रहा।
देश की जनता भावुक और सहृदय है, मोर और सत्ता के रिश्ते को नहीं जानती इसलिए आंदोलित नहीं होती बल्कि उसके मन में भक्तिभाव और प्रगाढ़ होने लगता है। दरअसल आम जनता मोर नहीं पाल सकती, क्योंकि ये विधि सम्मत नहीं है लेकिन सरकार मोर पाल सकती है क्योंकि सरकार ही विधियां, उपविधियां बनाती है। मोर को मारने पर सजा है लेकिन उसे दाना चुगाने पर कोई सजा नहीं है, हाँ आप मोर को पिंजरे में बंद नहीं कर सकते, बहरहाल प्रधानमंत्री जी का आवास किसी अभयारण्य से कम तो है नहीं इसलिए यहां वे सब नियम लागू हो सकते हैं जो किसी अभयारण्य के लिए बनाये गए हैं।
कायदे से मोर राष्ट्रीय पक्षी है इसलिए उसे कोई भी राष्ट्रवादी रख सकता है, लेकिन कानून की कहें तो मोर पक्षी वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट-1972 के तहत शेड्यूल-1 में हैं। कानूनन जिसके पास भी यह पक्षी होता है उसके खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है। ऐसे व्यक्ति को सात साल तक की सजा या 25, 000 रुपये जुर्माना या फिर दोनों ही हो सकता है। एक जमाने में लालू प्रसाद यादव ने भी मोर पाले थे, तब बड़ा हल्ला हुआ था लेकिन लालू जी का कुछ नहीं बिगड़ा, वे जेल में हैं लेकिन मोर पालने के कारण नहीं बल्कि चारा घोटाले की वजह से।
इस लिहाज से मुझे मोर के साथ प्रधानमंत्री जी के दर्शन करना बड़ा अच्छा लगा। मैं जहां रहता हूँ वो ग्रामीण इलाका है, यहां कोई अभयारण्य भी नहीं है किन्तु दर्जनों मोर पाए जाते हैं। इन्हें कोई दाना भी नहीं डालता, बेचारे बीमार गायों की तरह बहुमंजिला इमारतों से फेंके जाने वाले बासे-कूसे खाने से अपना पेट पाल लेते हैं। मोर के प्रति आम जनता से ज्यादा सत्ता प्रतिष्ठान का आकर्षण पुराना है। मुगल बादशाह शाहजहाँ जिस तख्त पर बैठते थे, उसकी संरचना मोर जैसी थी। उसे तख्ते ताउस कहते थे। फ़ारसी में ताउस का अर्थ मोर ही होता है।
मोर का जिक्र चला तो तख्ते ताउस की कहानी भी सुनते चलिए। कहते हैं कि बादशाह शाहजहाँ ने ताज-पोशी के बाद अपने लिए इस बेशकीमती सिंहासन को तैयार करवाया था। इस सिंहासन की लंबाई तेरह गज, चौड़ाई ढाई गज और ऊंचाई पांच गज थी। यह छह पायों पर स्थापित था जो सोने के बने थे। सिंहासन तक पहुंचने के लिए तीन छोटी सीढ़ियाँ बनाई गयी थी, जिनमें दूरदराज के देशों से मंगवाए गए कई कीमती जवाहर जुड़े थे। दोनों बाजुओं पर दो खूबसूरत मोर, चोंच में मोतियों की लड़ी लिये, पंख पसारे, छाया करते नज़र आते थे और दोनों मोरों के सीने पर लाल माणिक जुड़े हुए थे।
पीछे की तख्ती पर कीमती हीरे जड़े हुए थे जिनकी कीमत लाखों रुपये थी। सिंहासन का वज़न 31 मन 20 सेर था। उस समय का मन आजकल के हिसाब से 14 सेर होता था। उसे कई हज़ार कारीगरों ने 7 वर्ष में बना कर तैयार किया था। सिंहासन की निर्माण लागत उस समय लगभग 2 करोड़, 14 लाख, 50 हज़ार रुपये थी। उसके प्रधान निर्माता का नाम बेदख़ल ख़ाँ बतलाया गया था। ऐसा अद्भुत तख्त न तो शाहजहाँ से पहले और न बाद के किसी राजा−महाराजा या बादशाह ने बनवाया। टैवर्नियर की अभिकल्पना के अनुसार, मुग़ल सम्राट शाहजहाँ ने कोहिनूर को अपने प्रसिद्ध ‘मयूर सिंहासन’ (‘तख़्त-ए-ताउस’) में जड़वाया था।मुझे जोधपुर के महल में भी मोर की खूबसूरत कृतियां दिखाई दीं।
लोकतंत्र में तख्ते ताउस बनवाना नामुमकिन है लेकिन जीवित मोर पालना कठिन नहीं। जरूरत पड़े तो नियमानुसार अनुमति ले लीजिये। सरकार को कोई अनुमति न दे ये तो नामुमकिन है। प्रधानमंत्री जी मोर पालते हैं, उन्हें दाना चुगाते हैं और मोर निर्भय होकर दाना चुगते हैं, ये सब देखकर मुझे लगता है कि हम लोगों को प्रधानमंत्री जी से डरना नहीं चाहिए। वे डरावने लगते भी नहीं हैं। अब तो उनकी दाढ़ी भी दार्शनिकों जैसी हो गयी है। परधानजी खुद दार्शनिक हैं भी। उनका दर्शन ही है-‘सबका साथ, सका विकास’। फिर जब मोर नहीं डरता तो आप क्यों डर रहे हैं भाई?
मोर को लेकर शोर ठीक नहीं, किसी भी तौर ठीक नहीं, मैं तो कह सकता हूँ कि- ‘मोरों को सारे नजर आते हैं मोर’। आप मेरी बात को किसी और रंग में न देखें, मैं तो साफ़-साफ़ कहने का आदी हूँ। आप मोर का आहार क्यों देखते हैं, क्यों उसके कुरूप पंजे देखते हैं। आप उसकी ग्रीवा देखिये, पंख देखिये, पंखों के रंग विन्यास को देखिये। मोर पंख ऐसे ही योगिराज श्रीकृष्ण के मुकुट का हिस्सा नहीं बन गए। आने वाले दिनों में मोरपंख कमल के फूल को विस्थापित कर भाजपा का चुनाव चिन्ह भी बनने की हैसियत रखता है।
मोर प्रेम को लेकर प्रधानमंत्री जी की आलोचना कूढ़मगज लोगों का काम है। हम तो ऐसा कह नहीं करते। हमें तो सफेद कबूतर उड़ाते पंडित जी भी भाते थे और बकरी पालते बापू भी। एक जमाने में हर घर में कोई न कोई पशु-पक्षी होता ही था। लेकिन बुरा हो वन्यप्राणी अधिनियम का कि उसने सब पर रोक लगा दी। अब घरों में कुत्ते-बिल्ली और ज्यादा से ज्यादा रंग-बिरंगी चिड़ियाँ और मछलियां ही पाली जाती हैं। हमारे पिता जी का एक चपरासी था रामदास, वो तो हिरन पालता था। तीतर-बटेर पालने वालों की तो कोई कमी ही न थी लेकिन पशु-पक्षियों को मारकर खाने वालों ने पालने वालों का शौक भी मार डाला।
बहरहाल इन दिनों जब तक कोई नया मुद्दा जन्म नहीं लेता तब तक देश में मोर ही मोर का शोर सुनाई देगा, कोई इसे परधानजी का नाटक कहेगा तो कोई वन्यप्राणी अधिनियम का उल्लंघन। कोई इसे बंगाल में चुनाव की तैयारी की रणनीति का अंग बताएगा तो कोई कुछ। मर्जी आपकी है कि आप किसे क्या मानते हैं? ‘जाकी रही धारणा जैसी’ का मामला है ये मोर। मोर की गर्दन उपमा भी है और मोर के आकार का तख्त किंवदंती भी। गोस्वामी तुलसीदास को भगवान राम की गर्दन मोर की गर्दन जैसी लगती है। स्वयं श्रीराम मोर के बहाने अपने अनुज लक्ष्मण को भक्त की परिभाषा से अवगत करा देते हैं। मैं जब भी रामचरित मानस का पारायण करते हुए किष्किंधा काण्ड में पहुंचता हूँ, मुझे ये चौपाई बरबस याद आ जाती है-
‘लछिमन देखु मोर गन, नाचत बारिद पेखि।
गृही बिरति रत हरष जस, बिष्नुभगत कहुँ देखि’
चलिए आज का मोर पुराण यहीं समाप्त करता हूँ, मुझे दूसरे काम भी तो करना है आलोचना के अलावा।