छत्तीसवीं बरसी पर भोपाल गैस कांड को कैसे याद करें?

अजय बोकिल

विश्व की भीषणतम औद्योगिक त्रासदी की छत्तीसवीं बरसी पर यह सवाल मन में कौंध रहा है कि भोपाल गैस कांड को हम किस तरह याद करें? विश्व की भीषणतम औद्योगिक त्रासदी के रूप में गैस पीडि़तों की अंतहीन तकलीफों के रूप में या अतीत में हुए ऐसे भयंकर हादसे के रूप में, जिसमें हजारों बेगुनाह जहरीली गैस का शिकार बने, या फिर एक भयावह त्रासदी की बरसी की रस्म अदायगी के रूप में, जिसके बारे में हमारी युवा पीढ़ी को कुछ खास पता नहीं है और भोपाल जिनके लिए अब ताल, तफरीह और मॉल का शहर है।

भोपाल गैस त्रासदी को दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना इसलिए कहा जाता है कि इसमें यूनियन कार्बाइड कारखाने के टैंक क्रंमाक 610 से आधी रात के बाद रिसी जहरीली मिक (मिथाइल आइसोसाइनेट) गैस से रात भर में हजारों लोग मौत की नींद सो गए थे। कई तो गैस से बचने के चक्कर में दौड़ते-दौड़ते मौत का शिकार हुए। उस वक्त भोपाल लाशों के शहर में तब्दील हो चुका था और उसे ठीक से यह भी पता नहीं था कि इसके पीछे शैतान कौन है।

इस भयंकर हादसे से यह संदेश गया कि औद्योगिक संस्कृति में इंसान की कोई जगह नहीं है। वैसे कई लोग विश्व की भीषणतम मानवीय त्रासदी 1975 में चीन के हन्नान प्रांत में बेन कियाओ बांध फूटने को मानते हैं, जिसमें ढाई लाख से ज्यादा लोग मरे थे। लेकिन उसकी बहुत ज्यादा प्रामाणिक जानकारियां नहीं है। इसलिए भोपाल गैस त्रासदी को ही भीषणतम औद्योगिक त्रासदी माना जाता है।

यह सही है कि अतीव आनंद या दुख के लमहों से समय जैसे-जैसे आपको दूर ले जाता है, उस घटना से जुड़ी पीड़ाएं, संवेदनाएं धीरे-धीरे इतिहास के संदूक में बंद होने लगती हैं। अतीत के उन लमहों को याद करना भी एक रस्म अदायगी में सिमटने लगता है, जो कभी आंखों के सामने घटा था, वह किस्सों और किताबों का हिस्सा बनता जाता है। ‘हां, यही हुआ था’, का भाव ‘क्या ऐसा भी हुआ था’, में तब्दील होने लगता है। तमाम गुस्से और संवेदनाओं के बावजूद यह हकीकत है कि आज गैस कांड का दर्द शहर के गैस पीडि़त इलाकों तक सिमट कर रह गया है। वो तड़प, वो जुनून और वो जुझारूपन अब खत्म सा है, जो कभी गैस पीडि़तों को न्याय दिलाने के लिए हुआ करता था।

1990 के बाद जन्मी पीढ़ी ने तो गैस कांड को 3 दिसंबर के रस्मी प्रदर्शनों, औपचारिक श्रद्धांजलि सभाओं और सरकारी छुट्टी के तौर पर ही देखा है। ऐसी छुट्टी जो देश में सिर्फ भोपाल वासियों को ही मिलती है। बीते 36 सालों में भोपाल में काफी कुछ बदला है। इसकी सामाजिक और राजनीतिक तासीर बदली है। अजनबियत और रिश्तों की डिस्टेंसिंग बढ़ी है। सीमेंट के जंगल उगते जा रहे हैं। शहर का तीन गुना विस्तार हुआ है। 1984 में गैस कांड के वक्त भोपाल की आबादी साढ़े 8 लाख थी, जो अब करीब 24 लाख है।

यानी वो गैस पीडि़त अब कुल जनसंख्‍या का पांचवा हिस्सा भी नहीं रह गए हैं, जिन्होंने 3 दिसंबर की रात मौत का मंजर अपनी आंखों से देखा, भोगा। उनमें से कई इस दुनिया में नहीं हैं और जो हैं, वो किसी तरह जिंदगी को किसी तरह अपने कंधे पर ढो रहे हैं। जिन्होंने बचपन में मौत की वो काली रात देखी, वो अब अधेड़ावस्था में हैं। पुराने भोपाल से परे चौतरफा फैल रहे भोपाल में अब ज्यादातर वो लोग बसते हैं, जो गैस कांड के बहुत बाद आए हैं और जिनके लिए भोपाल गैस त्रासदी से लहूलुहान शहर कम, मेट्रो की शक्ल में उभरता भोपाल ज्यादा है।

याद रहे कि भोपाल गैस पीडि़तों के लिए इंसाफ की लड़ाई बुनियादी तौर पर शहर की उस मिली-जुली संस्कृति के जनरेटर से लड़ी गई थी, जो अब लगभग बिखर चुका है। शहर कई खांचों में बंट चुका है। ये खांचे मजहब के हैं, नए-पुराने के हैं, बर्रूकाट भोपाली और बाहरी भोपाली के हैं, अमीर-गरीब के हैं साथ ही तरतीब और बेतरतीबी के भी हैं। नया या आधुनिक भोपाल अपनी पहचान यूनियन कार्बाइड के कारखाने से उस रात निकले मौत के धुएं से ज्यादा शहर की प्रदूषित हवा में खोजता सा लगता है। कहने को इस शहर में गैस हादसे को लेकर दुख आज भी है, लेकिन वैसा दर्द नहीं है।

यूं तो भोपाल क्या, पूरी दुनिया ही बदल रही है। लेकिन नहीं बदली हैं तो भोपाल गैस पीडि़तों की तकलीफें। पहले जहरीली एमआईसी (मिक) गैस ने फेफड़ों में घुसकर गैस पीडि़तों की जान ली थी, अब 36 साल बाद कोरोना वायरस गैस पीडि़तों के प्राण ले रहा है। भोपाल में अब तक कोविड 19 संक्रमण से कुल 518 मौतें हो चुकी हैं। गैस पीडि़तों के लिए काम करने वाले ‘भोपाल ग्रुप फॉर इन्फॉर्मेशन एंड एक्शन’ की रचना ढींगरा का कहना है कि 18 अक्टूबर तक भोपाल में 450 लोग कोरोना की वजह से अपनी जान गंवा चुके थे, उनमें से आधे यानी 254 गैस पीड़ित थे।

इसका सीधा अर्थ यह है कि तुलनात्मक रूप से गैस पीडि़त कोरोना के शिकार ज्यादा हो रहे हैं। गैस पीड़ितों की आबादी शहर की कुल जनसंख्या का 17 प्रतिशत है, जबकि कोरोना से शहर में हुई कुल मौतों में उनकी हिस्सेदारी 56 प्रतिशत है। कोरोना से गैस पीडि़तों की ज्यादा मौतों का मुख्य कारण उनकी प्रतिरोधक क्षमता पहले ही क्षीण हो जाना है। जहरीली गैस के दुष्प्रभावों के कारण वे पहले ही कई गंभीर बीमारियों से ग्रस्त हैं। उनमे से कई का इलाज भी अब ठीक से नहीं होता।

गैस पीडि़तों की दूसरी लड़ाई बेहतर मुआवजे की है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भोपाल गैस त्रासदी में 3787 लोगों की मौत हुई, जबकि दावा 16 हजार से अधिक लोगों के मरने का है। इस हादसे के लिए जिम्मेदार यूनियन कार्बाइड कंपनी ने कोर्ट के फैसले के मुताबिक मुआवजे के तौर पर 715 करोड़ रुपये दिए थे। ये रकम गैस पीडि़तों में बांटी जा चुकी है। लेकिन अब सवाल उठ रहा है कि मुआवजा राशि में भी यह भेदभाव क्यों? यानी एक भारतीय को मौत का मुआवजा 10 लाख रुपये तो एक अमेरिकी की मौत का मुआवजा 58 करोड़ रुपये क्यों?

क्या इ‍सलिए कि हम गरीब मुल्क वाले हैं? मगर जानें तो दोनों की एकसी हैं। इसी के चलते अब यूनियन कार्बाइड (अब इसकी मालिक डाव केमिकल्स कंपनी है) से गैस पीडि़तों को 7 हजार 844 करोड़ का अतिरिक्त मुआवजे दिलाने का मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। ये अतिरिक्त मुआवजा कितना और कब मिलेगा, मिलेगा भी या नहीं कहना मुश्किल है, क्योंकि यूनियन कार्बाइड की उत्तराधिकारी डाव कंपनी ऐसे दायित्वों से मुकर रही है।

खुद राज्य सरकार भी गैस पीडि़तों को 1 हजार रुपये मासिक पेंशन देने के मामले में बहुत गंभीर नहीं दिखती। हालांकि गैस राहत मंत्री विश्वास सारंग ने यह पेंशन शुरू करने का भरोसा दिलाया है, लेकिन सरकार की माली हालत इतनी खस्ता है कि वह अपने रिटायर्ड कर्मचारियों को ही ठीक से पेंशन देने की स्थिति में नहीं है, गैस पीडि़तों की पेंशन तो दूर की बात है। गैस पीडि़तों के लिए रोजगार का भी संकट है।

कुल मिलाकर गैस त्रासदी के 36 साल बाद जीवित गैस पीडि़तों की आंखों में अभी भी आस की उदास लौ टिमटिमा रही है। इनमे कुछ बदनसीब ऐसे भी हैं, जिनके बुढ़ापे की लाठी भी कोरोना ने छीन ली है। वो क्या करें, कहां जाएं। लगता है कि एमआईसी से किसी तरह बची जिंदगियों पर अब कोरोना की कातिल नजर है।

एक गहरा फर्क और भी है। तब जहरीली गैस ने लोगों को करीब ला दिया था। बुरे हालात में भी लोग एक दूसरे की मदद के लिए जुट पड़े थे, लेकिन कोरोना की सोशल डिस्टेंसिंग तो इसे भी रोक रही है। यानी पहले हवा ने भरोसा तोड़ा था, अब भरोसे की भी हवा निकल रही है। जहरीली गैस से रात में एक शहर ढहा था, अब परस्पर भरोसा भी ढहाया जा रहा है।

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