‘सोनू’ का ‘सूद’ भी नहीं चुका सकेगा समाज

हेमंत पाल

देश और दुनिया में फैली महामारी के इस दौर में समाज में बहुत कुछ चाहा-अनचाहा हुआ है। कुछ लोग नई भूमिका में सामने आए, तो कुछ लोगों की पहचान खंडित हुई। बॉलीवुड में भी कई कलाकारों ने गरीबों और जरूरतमंदों के लिए बहुत कुछ किया। लेकिन, उन्होंने जो किया वो इंडस्ट्री तक सिमटा रहा। ऐसे में सबसे अलग काम किया फिल्मों में खलनायक का किरदार निभाने वाले सोनू सूद ने।

‘दबंग’ के इस विलेन छेदीलाल ने ऐसे लोगों की दिल और हाथ खोलकर मदद की, जिन्हें वे जानते तक नहीं हैं। सोनू ने महाराष्ट्र के दूसरे जिलों और राज्यों से मुंबई में आए मजदूरों को घर भेजा जो लॉकडाउन में फंसकर रह गए थे। उन्होंने पैदल घर लौट रहे, हज़ारों मजदूरों को बस से रवाना किया।

बरसों बाद भी कोरोना वायरस के खिलाफ इस जंग को याद करते हुए लोग सोनू सूद का नाम गर्व के साथ लेंगे। लॉकडाउन काल में देश भर के प्रवासी मजदूरों ने कितनी परेशानी का सामना किया। ये बात किसी से छुपी नहीं, पर कोई आगे नहीं आया। ऐसे में सोनू सूद को अहसास हुआ कि उन्हें कुछ करना चाहिए। परदे के इस किरदार को दर्शक अब तक विलेन के रूप में देखते रहे हैं। लेकिन, अपने इस जनहितैषी कदम के बाद समाज में वे हीरो बनकर उभरे हैं।

सोनू ने इस संकट की घड़ी में हजारों मजदूरों की मदद की, जिसका नतीजा ये हुआ कि सोशल मीडिया ने उन्हें माथे पर बैठा लिया। आज वे परदे के उन सारे हीरो से कहीं ज्यादा ताकतवर हैं, जिनके हाथों उन्होंने विलेन बनकर मार खाई होगी।     सोनू आज उन मजदूरों के मसीहा बन गए, जो दूसरे राज्यों से काम करने मुंबई आए थे। लेकिन, लॉकडाउन की घोषणा के बाद उनका वापस लौटना मुश्किल हो गया था।

सोनू ने इन्हें अपने घरों तक पहुंचाने का जिम्मा उठाया और इसमें वे सफल भी रहे। बसों का इंतजाम किया, उनका किराया खुद चुकाया और मजदूरों के खाने-पीने का इंतजाम भी किया। जिस सोनू सूद ने मजदूरों की मदद के लिए लाखों रुपए खर्च किए, वे सिर्फ साढ़े पाँच हज़ार रुपए लेकर मुंबई आए थे। ये पैसे भी उन्होंने दिल्ली में मॉडलिंग से कमाए थे।

मजदूरों को उनके घर तक भेजने की प्रेरणा सोनू सूद को तब मिली, जब उन्होंने एक परिवार को मुंबई से बच्चों के साथ पैदल कर्नाटक जाते देखा। उस वक़्त सोनू कुछ दोस्तों के साथ इन प्रवासी मजदूरों को खाना बाँट रहे थे। उस मजदूर परिवार की हालत देखकर सोनू ने सोचा कि क्यों न सरकार से इजाजत लेकर इन्हें इनके घर छोड़ा जाए।

उन्होंने महाराष्ट्र और कर्नाटक सरकार से मंजूरी ली और पहली बार में 302 लोगों को घर भिजवाया। लेकिन, रवानगी के समय सबकी आंखों में आंसू थे। कुछ लोग तो रो पड़े। इसके बाद सोनू ने इसे अपनी मुहिम बना लिया कि जितना हो सकेगा, वे इन मजदूरों को घर तक पहुंचाकर रहेंगे। इसके बाद बिहार, कर्नाटक, उत्तरप्रदेश समेत कई राज्यों से इजाजत लेकर उन्होंने इस काम को आगे बढ़ाया।

सवाल उठता है कि जो काम सोनू सूद और उनकी टीम ने किया, क्या वो सरकार नहीं कर सकती थी। इसका जवाब शायद किसी सरकार के पास नहीं हो सकता। क्योंकि, सरकार एक व्यवस्था है, जिसका दिल नहीं होता और न उसका संवेदनाओं से कोई वास्ता होता है, जो किसी की पीड़ा को देखकर दुखी हो। सोनू का दिल था, तो वो पिघला और उन्होंने इस नेक काम का बीड़ा उठाया।

लेकिन, उनकी ये बात सही है, कि यदि सरकार मजदूरों के घर जाने के लिए सिस्टम को आसान कर देती, तो वे आसानी से अपने घर चले जाते। इन मजदूरों को अपने घर ही तो जाना था। वे फॉर्म नहीं भर सकते थे, उनके लिए उससे कहीं ज्यादा आसान था, पैदल ही हजार किलोमीटर निकल पड़ना। यही कारण था कि मजदूरों ने वो रास्ता चुना जो उन्हें आसान लगा।

अपने इस काम को सोनू ने अकेले नहीं किया। उनके माता-पिता ने भी उनका बहुत उत्साह बढ़ाया। उनका कहना था कि आप अपनी जिंदगी में तभी सफल होंगे, जब आपने किसी का हाथ थामकर उसे उसकी मंजिल तक पहुंचाया हो। सोनू को पैदल चलने वालों में प्रवासी मजदूरों की पीड़ा ने सबसे ज्यादा व्यथित किया।

एक इंटरव्यू में सोनू ने कहा भी कि सड़क पर जिनकी मौत हुई उनमें कोई किसी का भाई था और किसी का बेटा। लेकिन, व्यवस्था ने उन्हें सिर्फ एक नाम दे दिया था ‘प्रवासी मजदूर’ जैसे उनमें कोई जान ही न हो। अगर हम उन्हें बेआसरा छोड़ देंगे और भूल जाएंगे तो वे कहाँ जाएंगे?

पर, जरा सोचिए कि ये समाज ‘सोनू’ के इस काम का आखिर ‘सूद’ कैसे चुकाएगा?

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टीम मध्‍यमत

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