आप पूछ सकते हैं कि हमारे देश के पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों का, हमसे साढ़े तेरह हजार किलोमीटर से भी अधिक दूरी पर बैठे अमेरिका का भला क्या लेना देना? लेकिन मुझे लगता है कि यह लेना-देना बहुत गहरा है। और इस लेने देने का हमारे मीडिया से तो और भी गहरा वास्ता है।
याद कीजिए कुछ माह पहले अमेरिका में हुए राष्ट्रपति चुनाव के माहौल को। डोनाल्ड ट्रंप और हिलेरी क्लिंटन के बीच हुए मुकाबले को अमेरिकी मीडिया ने क्या-क्या रंग नहीं दिया था। पूरे चुनाव में ट्रंप के लिए ‘हिकारत’ और हिलेरी के लिए ‘हिमायत’ साफ नजर आ रही थी। बीच-बीच में आने वाले सर्वे हालांकि अलग संकेत दे रहे थे, लेकिन उनके बावजूद मीडिया ट्रंप को ‘खलनायक’ और हिलेरी को ‘नायिका’ के रूप में प्रस्तुत करते हुए उसी शाश्वत (?) सिद्धांत को स्थापित करने में लगा था कि जीत तो हमेशा नायक की ही होती है। लेकिन जब परिणाम आए तो पांसा ही उलट गया था।
तो क्या यह माना जाए कि ट्रंप को ‘खलनायक’ बताने या उनकी मैदानी पकड़ को समझने में मीडिया ने गलती की थी? नहीं, अमेरिकी मीडिया ने कोई गलती नहीं की थी। उसकी दिशा भी वही थी और मंशा भी। दरअसल वह अपने देश की जनता को जो बता या दिखा रहा था, वह जनभावना या जनमत का रुख नहीं बल्कि उसकी खुद की इच्छा थी, जिसे जनता के मनोभाव की चाशनी में लपेटकर प्रस्तुत किया जा रहा था। इसीलिए जब परिणाम आए तो वे मीडिया की मंशा या इच्छा के विपरीत थे, क्योंकि मीडिया तो जनभावना के प्रकटीकरण के बजाय अपनी इच्छा लोगों पर थोप रहा था।
अब जरा अपने यहां हाल ही में हुए पांच राज्यों के चुनाव को ले लीजिए। और इन पांच राज्यों में भी हांडी का एक चावल उत्तरप्रदेश के रूप में उठा लीजिए। यहां जो परिणाम आए हैं, उन्हें देखते हुए क्या हम कह सकते हैं कि मीडिया की जनता की नब्ज पर पकड़ थी या वह जमीनी हकीकत को बयां कर रहा था? मीडिया में जिस तरह से रिपोर्टिंग हो रही थी, वह दरअसल मीडिया का विश्लेषण या उसके द्वारा दी जाने वाली जानकारी नहीं थी। बल्कि वे जानकारियां मीडिया और उससे प्रभावित होने या रहने वाले अलग-अलग वर्गों की इच्छाएं थी, जो वर्ग या तो यह चाहते थे कि मोदी ही जीतें या यह कामना कर रहे थे कि भाजपा अथवा मोदी की उत्तरप्रदेश में करारी हार हो, उन्हें सबक मिले।
कहा यह जा रहा था कि सरकार अहंकारी हो गई है इसलिए उसे सबक सिखाना जरूरी है, लेकिन असलियत में मोदी या भाजपा को अहंकारी बताते हुए, उन्हें सबक सिखाने की मंशा के पीछे, खुद के सुप्रीम होने का ‘अहंकार’ था। उत्तरप्रदेश में राजनीतिक दलों के साथ-साथ इन दो अहंकारों की लड़ाई भी थी।
जब खबरों से यह ध्वनि निकाली जा रही थी कि जनता नोटबंदी जैसे मुद्दों पर सरकार को करारा सबक सिखा सकती है, तो मूल रूप से यह कामना की जा रही थी कि जनता ऐसा करके दिखाए। यह राजनीतिक दलों के समानांतर चलने वाला अलग तरह का चुनाव प्रचार था। जिसमें मीडिया का एक वर्ग पॉलिटिकल पार्टी की तरह व्यवहार कर रहा था। जो लोग कह रहे थे कि मोदी हारेंगे, वे शायद चाह रहे थे कि मोदी हारें। ठीक उसी तरह जैसे अमेरिका में मीडिया चाह रहा था कि ट्रंप हारें।
लेकिन मोदी या भाजपा की हारजीत का सट्टा लगाने वाला मीडिया इस पूरे एपिसोड में खुद करारी हार का शिकार हुआ है। चुनाव परिणाम के बाद एक टीवी चैनल पर चल रही बहस में एक मीडिया विशेषज्ञ का यह सवाल बड़ा मौजूं है कि, क्या हमें अपने काम और जनता की नब्ज पर अपनी पकड़ के बारे में गंभीरता से नहीं सोचना चाहिए? आखिर क्या कारण थे कि अंदर ही अंदर इतनी प्रचंड लहर थी और हम उसकी भनक तक नहीं पा सके?
वास्तव में ताजा विधानसभा चुनावों ने राजनीतिक दलों को ही नहीं, मीडिया को भी बड़ा झटका दिया है। हमेशा गुमान का गुब्बारा लेकर घूमने वाले मीडिया के लिए ये चुनाव परिणाम बहुत बड़ा सबक हैं। ‘ऑन एयर’ यानी हमेशा हवा में रहने वाले मीडिया के लिए संदेश है कि वह हवा हवाई संसार में विचरण करने के बजाय जमीनी सच्चाइयों को पहचाने। यदि ऐसा नहीं हुआ तो मीडिया की स्थिति भी सट्टा बाजार जैसी और मीडियाकारों की स्थिति उस सट्टा बाजार में दांव लगाने वाले सटोरियों जैसी रह जाएगी।
अपने हिसाब से मुद्दे तय करना और अपने हिसाब से उन पर फैसले सुनाना, मुद्दे न हों तो उन्हें गढ़ना और गढ़ना भी संभव न हो तो गड़े मुर्दे उखाड़कर उन्हें मुद्दा बना देना… ताजा विधानसभा चुनावों के दौरान यही हुआ। साफ नजर आया कि जमीन से जुड़े लोग या जनमानस जो सोच रहा है, हम मीडिया वाले उस तक पहुंचना तो दूर, उसे देख या पढ़ भी नहीं पा रहे।
जिस तरह उत्तरप्रदेश के चुनाव भारतीय राजनीति की दशा और दिशा बदलने वाले साबित होंगे, उसी तरह वे भारतीय मीडिया की दशा और दिशा बदलने में भी बहुत बड़ी भूमिका निभाएंगे। पहले लोग इस हथियार से डरा करते थे, लेकिन चुनाव परिणामों ने इस हथियार की धार को ऐसा भोथरा किया है कि उसे फिर से सान पर चढ़ाने और उसकी धार में पुराना पैनापन लाने में काफी वक्त लगेगा।
और हां, यह भी सोचकर रखने की जरूरत है कि अमेरिका में जो व्यवहार मीडिया के साथ ट्रंप कर रहे हैं, अब वैसा ही व्यवहार यदि यहां होने लगे तो…?