हिंदू कब तक मानसिक गुलामी ढोते रहेंगे?

प्रिय पाठकगण, पिछले दिनों भोपाल में पत्रकारों के एक सोशल मीडिया प्‍लेटफॉर्म पर हिंदू और हिन्‍दुस्‍तान को लेकर लंबी बहस चली और उसी दौरान पत्रकार मनोज जोशी ने जानिये हिंदू, हिन्‍दुत्‍व और हिन्‍दुस्‍थान नाम से एक लंबी पोस्‍ट लिखी। मध्‍यमत से उसे प्रकाशित करते हुए अपने सुधी पाठकों से उस पर उनकी राय/प्रतिक्रिया चाही थी। हमें प्रसन्‍नता है कि हिन्‍दी व संस्‍कृत साहित्‍य के प्रतिष्ठित द्वान आचार्य राधावल्‍लभ त्रिपाठी जी ने इस बारे में एक आलेख लिखा है। हम उस आलेख को शब्‍दश: यहां प्रकाशित कर रहे हैं। इस उम्‍मीद के साथ कि इस विषय पर हमें और भी विद्वानों और सुधि पाठकों का वैचारिक योगदान प्राप्‍त होगा ताकि इस विषय पर प्रामाणिक जानकारी सामने लाई जा सके।-संपादक)

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हिंदू कब तक मानसिक गुलामी ढोते रहेंगे?

आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी

वेदों और पुराणों से लगा कर सत्रहवीं शताब्दी तक लिखे गये संस्कृत के साहित्य में हमारे देश के निवासियों को कहीं हिंदू नहीं कहा गया। हिंदू शब्द के संस्कृत साहित्य में प्रयोग का एक उदाहरण मेरुतंत्र का दिया जाता रहा है, वह तंत्र बहुत बाद का है। अब किसी भी अल्पज्ञानी की अधकचरी उक्ति को ऋग्वेद का मंत्र बता कर हिंदू शब्द को हमारी भाषा का प्राचीन काल से प्रयुक्त शब्द साबित किया जा रहा है।

अब तो एक के बाद एक जाली श्लोक निकाल कर यह साबित किया जा रहा है कि हम सनातन काल से हिंदू कहे जाते रहे हैं, जो एक सफेद झूठ है। लगता है कि वेदों और पुराणों के प्रामाणिक संस्करण जो जाने माने शोधसंस्थानों से छपे हैं, उनकी जगह जालसाज लोगों का जाली संस्करण तैयार करने का धंधा पनपने लगा है। पंडितों को दरकिनार कर के असंस्कृतज्ञ लोग महापंडित बन बैठे हैं।

हिंदू नाम के किसी मज़हब का भी कोई जिक्र सत्रहवीं शताब्दी तक के साहित्य में नहीं है। पुराणों में भारतवर्ष का वर्णन है, हिमालय से लगा कर दक्षिण के सागर तक के देश को भारतवर्ष कहा गया है। यह भी बार बार कहा गया है कि इस देश में रहने वाले सारे लोग भारतीय हैं। हमारे ऋषि औऱ पुरखे इस देश को सदैव भारतवर्ष कहते आये हैं, यहाँ के निवासियों को भारतीय कहते आये हैं। जो लोग हिंदुत्व का राग आलाप रहे हैं, क्या उन्हें अपने आप को भारतीय कहने और अपने देश का नाम भारत बताने में शर्म आती है?

खाड़ी के देशों की ओर से आने वाले यात्री या आक्रमणकर्ता सिंधु का उच्चारण हिंदु करते थे, उन्होंने सिंधु नदी के इस पार रहने वाले लोगों को हिंदू कहा। क्षेत्र विशेष में सकार का उच्चारण हकार केवल सिंधु-हिंदु ही नहीं है, ऐसे पचासों उदाहरण हैं।  सप्ताह का हफ्ता होता है, सरस्वती का हरह्वती। बाहर के लोगों ने हिकारत के भाव से हिंदू शब्द का प्रयोग किया। एक गाली के रूप में भी हिंदू शब्द का प्रयोग वे करते रहे।

पर उनकी नज़र में सिंधु नदी के इस पार बसे हुए सभी लोग हिंदू थे– चाहे वे ईसाई हों, इस्लाम को मानने वाले हों या सनातन अथवा वैदिक मतावलंबी हों। जो मुसलमान बाहर से इस इलाके में बस गये थे उनको भी हिंदू ही कहा गया। मुगल काल में सोलहवीं शताब्दी के आते आते यह शब्द इस देश में बसे हुए लोगों के लिये चल पड़ा, फिर मुस्लिम शासक अपनी प्रशासनिक कामकाज की दृष्टि से सनातन मतानुयायियों को हिंदू कहने लगे।

हिंदू भारत में बसे मुसलमान या ईसाइयों से अलग माने गये। यहाँ से हिंदू शब्द में अलगाव आ गया, वह सारे भारतीयों का वाचक नहीं रह गया। ईस्ट इंडिया कंपनी का राज कायम होने के साथ अंग्रेजों ने इस अलगाव को खूब बढ़ावा दिया। अंग्रेजों ने इस शब्द का प्रयोग भारत के उन निवासियों के लिये किया, जो सनातनमतावलंबी थे, मुसलमानों और ईसाइयों से अलग थे और जिन पर उन्हें राज करना था।

राज करने के लिये उन्होंने कथित हिंदुओं के इतिहास की एक ग़लत तस्वीर भी खींचना शुरू की, इसमें उन्हें योरोप के कुछ संस्कृतज्ञ विद्वानों की मदद मिली। ग़लत तस्वीर यह थी कि कथित हिंदुओं का एक स्वर्णिम अतीत है, उनके पास वेद, पुराण और साहित्य के ग्रंथ हैं, वर्तमान में वे निरक्षर हैं और इसी लायक हैं कि उन को गुलाम रखकर उन पर राज किया जाय।

सर विलियम जोंस अप्रतिम मेधावी विद्वान् थे। वे कलकत्ता के उच्च न्यायालय में सन् 1784 ई. में मुख्य न्यायाधीश बन कर आये थे। उन्होंने इस इतिहास लेखन की शुरुआत की। उन्होंने ‘क्रोनोलाजी आफ हिंदूज’ नाम से किताब लिखी। यहाँ से हमारी संस्कृति को हिंदू संस्कृति, हमारे धर्म को हिंदू धर्म और हमारे साहित्य को हिंदुओं का साहित्य बताने की अलगाववादी उपनिवेशवादी नीति फलने फूलने लगी। इस नीति में हज़रत अमीर खुसरो, अकबर और दाराशुकोह, अब्दुल रहीम खानखाना, रसखान और सूफी संतों की सारी परंपरा से हमें काट दिया गया।

उन्नीसवीँ सदी और बीसवीं शताब्दी के शुरू में संस्कृत के प्रबुद्ध पंडितों में यह बहस चलती रही कि हिंदू शब्द हमारे ऊपर थोपा गया है, और इसका प्रयोग विदेशी लोग हिकारत या नफरत के भाव से करते आये हैं, तो हम अपने लिये इसका प्रयोग क्यों करें। महाराष्ट्र के अप्पा शास्त्री (1873-1913) प्रकांड पंडित और तेजस्वी संपादक थे। वे 1897 से 1913 के बीच संस्कृत में संस्कृतचंद्रिका मासिक तथा सूनृतनादिनी पाक्षिक निकालते रहे।

उनके नाम पर संस्कृत पत्रकारिता के इतिहास में यह समय अप्पाशास्त्री युग कहा जाता है। संस्कृतचंद्रिका के बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में छपे कई अंकों में यह बहस उठाई गई है कि हम भारतीयों के लिये हिंदू संज्ञा का इस्तेमाल कितना समीचीन है। इस बहस में उस समय के अनेक पंडितों ने अपने अभिमत भेजे जिनमें नरोत्तम शास्त्री गांगेय (श्री विष्णुकांत शास्त्री के पिता) आदि प्रखर पंडित और कवि शामिल थे।

अंत में अप्पा शास्त्री ने निर्णय दिया कि यद्यपि हिंदू शब्द हमारे प्राचीन साहित्य में नहीं है, और इसके प्रयोग के साथ हमारी ग्लानि जुड़ी हुई है, पर यह प्रचारित कर दिया गया है और चल पड़ा, इसलिये इसे स्वीकार कर लेना चाहिये।

दसवीं शताब्दी के पहले विदेश से आने वाले आक्रमणकारियों के समाजों– शक, हूण आदि को भारतीय समाज में खपा लिया गया। उन्होंने हमारा धर्म और जीवनशैली अपना ली। दसवीं शताब्दी के बाद आने वाले तुर्क, मंगोल और मुस्लिम आक्रमणकारी जो यहाँ आ कर बस गये, वे हमारे समाज में इस तरह नहीं खपाये जा सके। उन्होंने अपने धर्म और अपनी जीवनशैली को बरकरार रखा। यही नहीं उन्होंने हमारे सामने विकट सांस्कृतिक चुनौती भी पटकी।

यही स्थिति सत्रहवीं शताब्दी के बाद अंग्रेजों के यहाँ आने से भी पैदा हुई। मुस्लिम, तुर्क और योरोपियन समाजों के आगे, अपने सांस्कृतिक पराभव से जन्मी हीनता से ग्रस्त हो कर, आज हिंदू समाज के कुछ तथाकथित कर्णधार हमारे अतीत को ले कर अनेक प्रवाद और झूठ फैला रहे हैं। वे उपनिवेशवाद से जन्मी मानसिक गुलामी से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। जानकार लोगों का दायित्व हो जाता है कि समाज को झूठ की सत्यानाशी जकड़न से मुक्त करने के लिये प्रामाणिक तथ्यों के साथ आगे आयें।

(आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी मुख्यत: संस्कृत भाषा के प्रतिष्ठित साहित्यकार के रूप में जाने जाते हैं। उनके द्वारा रचित कविता-संग्रह ‘संधानम्’ के लिये उन्हें सन 1994 में ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया था। आचार्य त्रिपाठी संस्कृत को आधुनिकता का संस्कार देने वाले विद्वान् और हिन्दी के प्रखर लेखक व कथाकार हैं।)

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